मूल्याँकन
जीवन को सहज रूप में जीने का संदेश देता: केसरिया बालम
– डॉ. मधु संधु
‘केसरिया बालम’ उपन्यास की कहानी भारत, राजस्थान से अमेरिका के न्यूजर्सी के एडीसन तक आई है। यह स्नेहिल रिश्तों में पली-बढ़ी राजस्थान के उच्च मध्यवर्ग की इकलौती लाड़ली बेटी धानी के विवाहोपरान्त अमेरिका बसने की कहानी है। उसके लिए जीवन में संबंध और उनमें समाई रागात्मकता-प्यार, स्नेह, ममता, वात्सल्य, सम्मान ही सबकुछ है। रिश्तों की अहमन्यता सर्वोपरि है। इसके विपरीत उसका पति यंत्र युग का प्राणी है। वह संसार जहाँ यंत्र की तरह मनुष्य भी जल्दी ही आउट डेटेड या एक्सपायर हो जाते हैं। पत्नी धानी जीवन का यह अलजेबरा न समझने के कारण असहज और तनावग्रस्त है और पति, उसका केसरिया बालम, न्यूजर्सी की धरती पर अपने भौतिकतावादी दृष्टिकोण और कुंठाओं के कारण मनोरोगी बन अस्पताल पहुँच जाता है। विक्षिप्त-सा हो जाता है। उपन्यास बताता है कि यान्त्रिकी और भौतिकतावाद जब हमारी सोच पर हावी हो जाये तो जीवन को तहस-नहस होने से कोई नहीं बचा सकता। राजस्थान की रूखी, रेतीली बंजर धरती में स्नेह स्त्रोत भरे पड़े हैं, जबकि न्यूजर्सी की साधन सम्पन्न ज़मीन जीवन का सारा रस सोख रही है।
टोरेंटों विश्व विद्यालय में प्रवक्ता पद पर कार्यरत कथाकार डॉ. हंसा दीप के दो उपन्यास ‘बंद मुट्ठी’ और ‘कुबेर’ तथा कहानी संग्रह ‘चश्मे अपने-अपने’, ‘प्रवास में आसपास’ से तो हिन्दी जगत परिचित हो चुका था, तभी नेट की दुनिया में घूमते-विचरते मुझे इस उपन्यास का पता चला। ‘केसरिया बालम’ नेट के ‘मातृभारती’ पोर्टल पर जुलाई 2020 में प्रकाशित हुआ। जबकि हंसा दीप जी ने मेसेंजर पर बताया कि यह प्रेस में है, प्रकाशक इसे जनवरी 2021 में लाएँगे।
इसके इक्कीस परिच्छेद हैं। इन इक्कीस परिच्छेदों को मूल कथ्य प्रतिध्वनित करने वाले इक्कीस शीर्षक दिये गये हैं-
1- केसरिया बालम पधारो म्हारे देस, 2- बरगद की छाँव तले, 3- पंखों को छूती हवाएँ, 4- इंद्र्धानुषी रंग,
5- पुनरारोपन अमेरिका, 6- एक नया क़दम, 7- आसमानी ख़्वाब, 8- गर्माहट पर पानी के छींटे,
9- फूटती कोंपल, 10- रुख बदलती हवाएँ, 11- अपने नीड़ में, 12- चुप्पियों का बढ़ता शोर,
13- अमावसी अँधेरों में, 14- अहं से आह तक, 15- बदलती नज़रें बदलता नज़रिया, 16- बारूद के ढेर पर,
17- एक किनारे की नदी, 18- केसरिया से केस, 19- बदली देहरी बदले पैर, 20- और दौड़ती दुनिया थम गई
और 21- केसरिया भात की खुशबू।
आरंभ में हमें नायिका धानी और उसकी अल्हड़, चंचल, मस्त सखियाँ सलोनी, कजरी अपने-अपने केसरिया बालम के सपनों में खोयी, उनकी बाट जोहती तथा परस्पर चुहलबाजियाँ और छेड़खानियाँ करती दिखाई देती हैं। भावी घर आँगन को छूने की लालसा लिए हर पल कुँवारे मन से उड़ानें भरती ये युवतियाँ दो ‘मैं’ को एक ‘हम’ बनाने को तत्पर और उतावली हैं। मासूम कुंवारी कल्पनाओं का सुंदरतम एहसास उनके अंग-अंग से छलकता रहता है।
यह आज की कहानी है। दूरियाँ टेक्नोलॉजी ने पाट दी हैं। भारत में रहकर भी रोज सुबह उठकर अमेरिका में बसे बच्चों से बात हो सकती है। बालेंदु प्रसाद बाली ने अपने स्थानीय मित्र बुला-बुला कर मानों एडीसन में एक छोटा राजस्थान बसा दिया था। यह यंत्र युग है। इसके फायदे भी हैं और नुकसान भी। इकलौती बेटी को विदेश भेजते वक्त यही सोचा गया था कि टेक्नोलोजी ने हर दूरी पाट दी है। रोज बेटी के साथ बात भी हो जाती थी। नवासिन को भी देख लिया जाता था, लेकिन न माँ-बेटी की जचकी पर पहुँच सकी और न बेटी अस्वस्थ, मरणासन्न पिता के लिए कुछ कर सकी। माँसा और बाबासा के संस्कार के बाद सब कुछ दान कर अमेरिका लौटना ही गंतव्य बना रहा। वे सहेलियाँ सलोनी और कजरी जिन पर धानी जान छिड़कती थी, हमेशा के लिए छूट गयी।
बेजान यंत्र आपका हर कमांड मानेंगे और फिर जल्दी ही आउट ऑफ डेट हो जाएँगे, एक्सपायर हो जाएँगे, जंग खा जाएँगे। अमेरिका में न्यूजर्सी के एडीसन शहर अपने रसिया बालम के साथ पहुँचने के बाद यही धानी के साथ हुआ। वह जी जान से अपने बालम के कमांड पर रही और जल्दी ही उसे आउट ऑफ डेट, एक्सपायर कर दिया गया। विदेशी भात में कंकड़ आ गये। उसका ख़याल था कि अपनी संस्कारी बुद्धि से आज के इस दर्शन शास्त्र में प्यार शास्त्र मिला, वह इसे दोस्ती शास्त्र में बदल देगी। सोचती थी कि वक्त को अपनी मुट्ठी में रखेगी। कल्पनाओं को कैद कर लेगी, लेकिन जल्दी ही वह जान लेती है कि यह अति भौतिकतावादी संसार है। यहाँ सबको अपना रास्ता स्वयं बनाना पड़ता है। उसने बेकरी का कोर्स किया हुआ था। वह स्वीट स्पॉट बेकरी को अपना गंतव्य बना काम शुरू कर देती है और अपनी मेहनत से बेकरी को इतना ऊँचा उठा देती है कि मालिक उसे मैनेजर बना देता है। नित्य नए प्रयोग किए जाते हैं। ऑनलाइन प्रचार-प्रसार किया जाता है। धानी को नई पहचान ही नहीं मिलती, उसकी कमाई से घर चलने लगता है। पति बाली बड़े-बड़े जोखिम ले व्यवसाय में पैसा लगाने में जुट जाता है। घर-गृहस्थी के उत्तरदायित्वों के प्रति बढ़ती उपेक्षा और अनासक्ति से सारे संतुलन बिगड़ जाते हैं।
बेकरी के सभी कर्मचारी भिन्न देशों से हैं, फिर भी यह बेकरी एक परिवार-सी आत्मीयता लिए है। साफ-सफाई करने वाली इज़ाबेला-इजी ईरान से है। असिस्टेंट ग्रेग फिलीपीन्स से है (ग्रेग इंजीनियर है)। डिलिवरी ब्वाय रेयाज़ बांग्लादेश से है। सभी जमकर काम करते हैं और बेकरी में ही गीत-संगीत, झूमर-बेली की मस्ती भी चलती रहती है। घर के बाहर एक और घर बन जाता है।
खान-पान में, शगुन-विवाह में, रीति रिवाज में भारतीय संस्कृति बिखरी पड़ी है। केसरिया भात केसर, काजू, किशमिश, इलाइची की सुगंध से सराबोर रहता है। शकरपारे, आटे में घी डाल शक्करवाली रोटी बनाई जाती है। रोके में रुपया-नारियल का शगुन किया जाता है। शादी का उत्सव तीन दिनों तक चलता है। ढोल की ढम-ढम और लोकगीतों की मिठास, गणेश पूजा, हास-परिहास, सिठनियाँ, स्वांग विवाहोत्सव में राग घोलते हैं। मेहंदी, संगीत, मामेरा की रस्म, अग्नि साक्षी, गठबंधन, फेरे, विदाई आदि अनेक रस्में हैं। परंपरा और आधुनिकता का समावेश भी दिखाई देता है। दीवाली पर रंगोली बनाई जाती है, दीवाली की जगमगाहट दीयों में नहीं, सब के मन में रोशन रहती है। भारत की होली के हुल्लड़ की तो अमेरिका में कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन इस बहुसांस्कृतिक देश में भी हर संस्कृति के लिए स्पेस है। शिक्षण संस्थाओं में ऐसे आयोजन होते रहते हैं। आर्या को अपने स्कूल के ‘साउथ एशियन कल्चर डे’ का उत्तरदायित्व सौंपा जाता है।
कहानी राजस्थान के उस रसिया बालम की है, अमेरिका की धरती और उसकी अपनी सोच जिसका काया कल्प कर देती है। अहम उसे इतना आत्मकेंद्रित कर देता है कि पत्नी उसे उस स्तर की नहीं लगती कि उससे कुछ सांझा किया जा सके। पैसे का लालच उसे करजाई बना देता है। मन का चैन छीन लेता है। यह रसिया बालम इतना कुंठित है कि अपनी असफलताओं से छलकते आक्रोश का भाजन पत्नी को बनाता है। आत्मीय क्षणों को अमानवीय हिंसा का औज़ार बनाता है, हर बात का उल्टा अर्थ निकालता है, बेकरी के कर्मचारियों/ स्वामी से पत्नी के रिश्ते जोड़ता है। पत्नी द्वारा अपनी पैतृक संपत्ति दान करना उसे फूटी आँख नहीं भाता। सफल पत्नी का यह असफल पति अपने गुस्से, तनाव, हताशा के कारण घर में एकतरफा शीतयुद्ध छेड़ देता है, जबकि बारूद के इस ढेर पर बैठी धानी का चरित्र उस राजस्थान का प्रतिनिधित्व करता है, जिसकी मरुभूमि भी अपने में नदियाँ समेटे है।
भारतीय मूल्यों में समाई उदातत्ता के अनेक चित्र हैं। भौतिकतावाद यहाँ एक मानसिक रोग की तरह चित्रित है। यह बाली को जेल और फिर सुधारगृह पहुँचा देता है, वह याद्दाश्त ही खो चुका है। न उसे कोई चेहरा याद है, न स्थान, न व्यक्ति, न भाव-विचार। घरेलू हिंसा का शिकार होकर भी धानी दाम्पत्य को टूटने नहीं देती और जब सब टूटकर बिखर ही जाता है तो भी वह बाली की चिंता लिए है। उसके पास रीहेबिलिटेशन केंद्र जाती है। नौकरी से अवकाश ले, नियमित वालांटियर बन जाती है। कोरोना प्रकोप के समय उसे स्थायी रूप से घर ले आती है।
लिव-इन का उल्लेख अगली पीढ़ी के संदर्भ में किया गया है। यूनिवर्सिटी में आकर आर्या अवि के साथ लिव-इन में रहने लगती है, लेकिन इस लिव-इन में भी सम्बन्धों के स्थायीत्व की एक मूल्यवत्ता है। उपन्यास के अंत तक आते-आते अवि कोरोना काल में ही उसे फोन पर प्रपोज करता है और कोरियर से सगाई की अंगूठी भेजता है।
अमेरिका में रहने की ललक के लिए विश्व ने अनेक चोर रास्ते बना रखे हैं। कानूनी रूप से अमेरिका में रहने के लिए भारतीय कागज बनवा नकली शादियाँ करवाया करते हैं। बेकरी का बंगलादेशी रियाज अवैध रूप में अमेरिका में रह रहा है। इसीलिए उसे एक सप्ताह के नोटिस यह देश छोड़ना पड़ता है।
सूत्रात्मता उपन्यास की भाषा को चिंतन से जोड़ रही है। जैसे-
1. दीये के नीचे अँधेरा होवे है, पर ओरों को तो उजाला ही मिले है उससे।
2. कैसी गुणवत्ता है मिट्टी की, जिस आकार में ढालो उसमें ढाल जावे, लेकिन फिर भी अपने अस्तित्व को बचाकर ही रखे।
3. पैसा पास हो तो हर ज़मीन अपनी लगती है, हरी भी लगती है।
4. जब पैसा अपनी धरती से दूर ले जाता है, तब मन उसके और भी करीब हो जाता है।
5. मशहूर होने के लिए कोई खास ताम-झाम नहीं, सिर्फ मेहनत चाहिए।
6. सिक्कों की खनखनाहट की खुशी सबके स्वभाव में मिठास ले आती है।
7. इंसान खुद से ही खफा होने लगे तो किसी को कुछ कहना आग में घी डालना है।
8. जब पैसे कमाने की अनिवार्यता खत्म हो जाती है तो आदमी पैसों से खेलने लग जाता है।
9. पुरुष हताशाओं के घेरे में जकड़ने लगे, तो उसका पौरुष चोट खाये उस घायल शेर की तरह हो जाता है, जो अपने क्रोध की अग्नि में खुद तो खत्म होता ही है दूसरों को भी नहीं छोड़ता।
‘केसरिया बालम पधारो म्हारे देस’ में राजस्थानी लोक गीत को शीर्षक का आधार बनाया गया है। कंठानुकंठ अग्रसारित हो रहे सारगर्भित लोकगीतों का वर्णन उपन्यास के भाषिक और सांस्कृतिक सौंदर्य को द्विगुणित करता है।
1.
सुन लो बाबासा माई
लाडो तुम्हारी हो गई पराई
अब तो देनी होगी विदाई।
2.
चालो गणेश आपणे मालीड़ा रे
चालां तो आछा आछा फूलड़ा
मोलावां गजानन
चालो गणेश आपणे अमेरिका चालां
तो आछा आछा बनडा मोलावां
गजानन।
3.
पल्लो लटके, म्हारों पल्लो लटके।
लोक गीतों में फेरबदल भी कर लिए जाते।
विदाई गीत-
घड़ी डोए घुड़ला थोब जो सायर बनड़ा,
बाबा सूँ मालवा दो नी हठीला बनड़ा।
माँसा, बाबासा, कॅँवरसा आदि सम्बोधन और धानी, बाली नाम, थारी, लाडो, मामेरा शब्द राजस्थानी परिवेश बनाते हैं। वाक्य भी मिलते हैं- ‘नानों टाबर लेके इत्ती दूर न आ।’
उपन्यास कहता है कि जीवन सहज रूप में जियो। मूल्यवत्ता को दसों अंगुलियों से मत फिसलने दो। यान्त्रिकी या भौतिकता को अपने ऊपर मत हावी होने दो। नायिका धानी अपने केसरिया बालम से मन से जुड़ी है। केसरिया रंग आन-बान-शान का प्रतीक है। धानी अपने केसरिया बालम को अपनी आन-बान-शान मानती भी है और उसके लिए आन-बान-शान बनती भी है। बाली से तलाक के बाद भी, उसका दिमागी संतुलन बिगड़ने के बाद भी वह मित्र बन उसको संरक्षण देती है। राजस्थान की यह बेटी तलाक से मरु हो चुके दाम्पत्य को मैत्री की नदी से सींचने की प्रयास बनाए रखती है।
समीक्ष्य पुस्तक- केसरिया बालम
रचनाकार- हंसा दीप
प्रकाशन- मातृभारती वेब पोर्टल
प्रकाशन समय- जुलाई 2020
– डाॅ. मधु संधु