मूल्यांकन
जीवन की संवेदना को खोजती यात्राएँ: राहुल देव
‘सफ़र जारी रहे’ लेखक देवनाथ द्विवेदी का सद्य प्रकाशित यात्रा वृतांतों का संग्रह है। लेखक ने इन वृतांतों में न सिर्फ अपने यात्रा अनुभवों को पाठकों से साझा किया है बल्कि इनके माध्यम से भारतीय लोक की आस्था एवं श्रद्धा के तीन प्रमुख केन्द्रों काशी, हरिद्वार एवं अमृतसर की सांस्कृतिक एवं सामाजिक पड़ताल भी अपने तरीके से की है। संग्रह में सर्वाधिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक विश्लेषण काशी का है। देश की यह प्राचीन नगरी आज भी लोगों के लिए सभ्यता और संस्कृति का आकर्षण केंद्र है। यहाँ के मंदिर, घाट, गलियां, पान, साड़ियाँ विश्वप्रसिद्द हैं। साम्प्रदायिक व आतंकी शक्तियां भी इसकी विविधता तथा जीवन्तता को डिगा नहीं पायीं। लेखक अपने एक कवि मित्र की उक्ति को उधृत करते हुए लिखता है, “भंग नहीं पी, गंगा नहीं नहाए, गलियों में न घूमे, न पान-वान खाए/ घर में ही रह गए होते, काशी में क्यों आए?”
संग्रह में संकलित सभी वृतांत अपनी रोचक शैली के कारण पठनीय बन पड़े हैं। अत्यंत सहज भाषा में लिखा गया लेखक का यह आत्मीयतापूर्ण गद्य पाठक को पूरी पुस्तक बरबस पढ़वा ले जाता है और पढ़ते-पढ़ते वह लेखक से इतनी नजदीकी प्राप्त कर लेता है कि मानो वे यात्राएँ लेखक नहीं बल्कि पाठक खुद तय कर रहा हो। लेखक ने जगह-जगह अपनी यात्रा के अच्छे शब्दचित्र उकेरे हैं, जिससे यात्रावृतांत की यह विधा अपनी चमक बनाये रखती है। लेखक ने इन वृतांतों को लिखते हुए अतिरिक्त सावधानी बरती है तथा अपने आप को अनावश्यक विवरणों में फंसने से बचाया है। संग्रह का ‘मान्यवर का माइक मोह’ शीर्षक वृतांत व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गया यात्रा वृतांत है। इसी तरह ‘क्या खूब है इंडिया’ शीर्षक वृतांत में छोटे-छोटे वाक्यों वाली लेखक की भाषा की एक बानगी देखिये, “छोटे-बड़े समूहों में। अकेले-दुकेले भी। मस्त, अचंभित, रोमांचित और चकित। इंडिया से रूबरू। क्या है इंडिया! कैसा है इंडिया! क्या खूब है इंडिया! ऐसे भी, वैसे भी, जैसे भी देखो, वैसा भी इंडिया। अजब है इंडिया, गजब है इंडिया। ऐसा ही कुछ पढ़ा जा सकता है उनके चेहरों पर।”
यात्रा के सभी स्थानों पर लेखक का सूक्ष्म पर्यवेक्षण दृष्टिगोचर होता है। ‘गंगा में गुलाब’ शीर्षक वृतांत में लेखक का दार्शनिक चिंतन व्यक्त हुआ है जोकि बेहद महत्त्वपूर्ण है। अपने ‘संकल्प एक प्रहरी, मन्त्र एक शक्ति’ शीर्षक वृतांत में लेखक जीवन के उद्देश्य और संकल्प की शक्ति के बारे में लिखते हुए कहता है, “जीवन का लक्ष्य अथवा उद्देश्य निर्धारण का बड़ा महत्त्व है। इसके बाद लक्ष्य की प्राप्ति हेतु संकल्प करके जुटना पड़ता है। संकल्पित व्यक्ति अपने आपको अतिरिक्त ऊर्जा से भरा अनुभव करता है, असंभव को भी संभव बनाने की युक्ति और श्रम करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है।” लेखक की इन अंतर्देशीय यात्राओं में कुछ प्रत्याशित तो कुछ अप्रत्याशित यात्राएँ भी हैं। सबके लिए यात्राओं का मंतव्य अलग-अलग हो सकता है। इस बारे में लेखक का कथन है कि, “कुछ लोग छुट्टियाँ बिताने की मानसिकता लेकर आये हैं, कुछ अन्य अपने मानसिक या पारिवारिक तनावों से कुछ दिनों की राहत पाने के लिए आए हैं, कुछ दूसरे लोग मनोकामनापूर्ति का उद्देश्य लेकर आए हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जो बस आ ही गए हैं यहाँ। शायद उन्हें नहीं मालूम कि वे यहाँ क्यों आए हैं और यहाँ से क्या लेकर जाने वाले हैं।” (पृष्ठ 69)
पुस्तक में कहीं-कहीं लेखक ने यात्रागत विसंगतियों पर कड़ी चोट की है तो कहीं-कहीं पर आधुनिकीकरण के प्रभाव और उन पर अपनी चिंताएं भी जाहिर की हैं। जैसे ‘साथी युवती, बर्गर और आटे की गोलियाँ’ शीर्षक वृतांत में। अमृतसर की अपनी यात्रा में लेखक का बदलता हुआ संवेदनात्मक सौन्दर्यबोध भी दिखाई देता है, जब वह स्वर्ण मंदिर में जाकर सिर्फ वहां की सुन्दरता तथा भव्यता का चित्रण मात्र नहीं करता बल्कि उस शहर के ऐतिहासिक तथ्यों की खोजबीन करते हुए ‘ऑपरेशन ब्लूस्टार’ तथा 84 के सिख दंगों की त्रासदी का भी उल्लेख करता है। इसके साथ ही साथ वह सपरिवार ‘जलियांवाला बाग़’ में जाकर शहीदों की गौरव गाथा का जिक्र करते हुए अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि भी अर्पित करता है। ‘पंजाब से लौटते हुए’ उसकी नज़र सिर्फ खुशहाली तथा लहलहाती फसलों पर ही नहीं जाती बल्कि उसके पीछे छिपी श्रम व शोषण के इतिहास पर भी उसकी दृष्टि जाती है, जिस पर वह स्पष्टता से पाठकों के समक्ष अपने विचार रखते हैं। इस मायने में संग्रह के अंतिम कुछ वृतांत समाज और संस्कृति के ऐसे कई स्याह पहलुओं पर रोशनी डालते हैं।
इस संग्रह की विषयवस्तु साहित्यिक रूप से समृद्ध होने के बावजूद 80 पृष्ठीय पुस्तक का मूल्य 195 रुपये काफी ज्यादा प्रतीत होता है, ऐसे में यह कृति एक बड़े पाठक वर्ग तक पहुँच पाएगी, इसमें संदेह है।
समीक्ष्य कृति- सफ़र जारी रहे
लेखक- देवनाथ द्विवेदी
प्रकाशक- ममता प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य-195/-
– राहुल देव