मूल्याँकन
जीवन की असलियत पहचानने का माद्दा
– सेवाराम त्रिपाठी
एक सोने का मगर झूठा शज़र था सामने
खोखले जुमलों का अब, फ़ीका असर था सामने
स्वप्न नगरी के लिए मेरी ज़मीनें छिन गयीं
छप्परों की कब्र पर अब, इक शहर था सामने
डी. एम. मिश्र को जानते-जानते ही कुछ जान पाया। उनकी सहज आत्माभिव्यक्तियाँ मुझे आकर्षित करती हैं। वे बड़े-बड़े तूमार नहीं बाँधते। सादगी से अपनी बातें कहते हैं। उनकी रचनात्मकता में एक निराली शान और अदा है।
वो पता ढूंढें हमारा पैन में, आधार में
ऐ ख़ुदा, हम तो ग़ज़ल के चंद अश्आरों में हैं
लोहे की ज़ंजीरें तोड़ी जा सकतीं
सोने के फंदों से बचना मुश्किल है
टूट कर जाता बिखर गर हौसला होता नहीं
क्यों यक़ीं होने लगा कोई ख़ुदा होता नहीं
उनका यही सहज विश्वास उनका जीवन मूल्य-बोध भी बनता गया, अपने लेखन के प्रति। इस तरह का उत्साह, उमंग और समर्पण प्राय: कम लोगों में मिलता है।
समूची दुनिया एक महामारी की चपेट में और समय की तालाबंदी और अंततः किलेबंदी में है। हम ज़रूरत से ज़्यादा सुविधाभोगी हो गए हैं। आम जनता किन हालात और दिक्कतों में है, कुछ लोग इसे जानना-पहचानना ही नहीं चाहते। मदद की बजाय उनकी खिल्ली उड़ाई जा रही है। बड़े वर्ग ने और मध्यम वर्ग के एक हिस्से ने अपने लिए सुविधाओं के अंबार लगा लिए हैं और ऊपर से गरज रहे हैं। सत्ताएँ अपने को फिर से दोहराने और किसी तरह पुन: सिंहासन पाने का सरंजाम करने की स्पृहा के लोक में हैं। शीर्ष नेतृत्व ने इतने दिनों बाद ग़लती मानी लेकिन विपक्ष पर धौंस जमाकर, आरोप के कुल्ले करते हुए। कोरोना की महामारी से हम घुटनों-घुटनों आ गए। सत्ता की ललकार और वाणी, गुमान भरी धमकी विदा तो नहीं हुई और उन्हें लज्जा तो छू ही नहीं गई।
हम प्रश्नों के दावानलों के बीच हैं। यह दौर ऐसा है, जिसमें आलोचना के लिए लगभग कोई गुंजाइश नहीं। काफ़ी समय से देख रहा हूँ कि आखिर आलोचना कहाँ है? रचनाकार हो या अन्य आलोचकों को खरी-खोटी बड़ी हेकड़ी से सुना सकते हैं। यह एक रिवाज बन गया है, उनकी इज़्ज़त उतार सकते हैं। सियासत तो किसी भी तरह आलोचना के पक्ष में नहीं है क्योंकि हम प्रशंसाओं के बाड़े में, अहो-अहो के अहर्निश जाप में हैं। इधर ऊपरी यथार्थ ज़्यादा बखाना जा रहा है और अंदरूनी सच को किसी तरह बाहर लाने से हम परहेज करते जा रहे हैं। दुश्मन की असली जगह तक जाने में हम अक्सर चुप्पी लगा बैठते हैं। डी. एम. मिश्र सही कहते हैं-
लंबी है सियाह रात जानता हूँ मैं
उम्मीद की किरन मगर तलाशता हूँ मैं
धूप थी लम्बा सफ़र था, दूर तक साया न था
सामने चट्टान थी, फिर भी वो घबराया न था
डी. एम. मिश्र की ग़ज़लें आम जीवन के यथार्थ से निकली हैं। उनकी चिंतनधारा मानवीय मूल्यों के रूप में ढलती है। वे कविता से ग़ज़लों तक आए हैं। उनमें किसान जीवन, मजदूर जीवन और ग्रामीण इलाक़ों के ताप को सहजता से देखा, समझा और अनुभव किया जा सकता है। जिसकी गवाही रचना में या उसमें व्याप्त समय के सच के साथ मिल सकती है। उनकी ग़ज़लें पढ़ते हुए इनकी पहुँच, सीमा, पकड़ और तासीर को जानने-समझने के प्रयास को भी देखा जाना चाहिए। वास्तव में आम ग़ज़लों के साथ या उनके बारे में शिद्दत के साथ कहा जा सकता है कि वे ज़माने के दुख-सुख और संघर्षों के साथ हैं, जिनमें जिजीविषा के कई-कई रूप प्राप्त होते हैं। यथार्थ के विस्तार भी वहाँ देखे जा सकते हैं। ग़ज़लों के पूर्व के रूपों में ही इश्क़-मोहब्बत भर में न देखा जाना चाहिए, उसमें अन्य रंगतें भी हैं। जाहिर है कि ग़ज़ल की परम्परा की अनेक प्रवहमान धाराएं हैं। यही नहीं वस्तुगतता और शिल्प संरचना के अनेक दायरे हैं जिनके बारे में ज़्यादा कहना शायद श्रेयस्कर नहीं है अन्यथा दोहराव के रूपाकारों में भी हम जा सकते हैं। जान लेना चाहिए कि ग़ज़लों की दुनिया में भी ऐसे लोग हैं, जो अपने महत्व के मारे हुए व्यक्तित्व हैं जो अपने लिए एक पीढ़ा या एक ठीहा तलाश रहे हैं।
वे अपने नाम से युग का निर्धारण करने की फ़िराक़ में हैं। तथ्य यह है कि ग़ज़ल के बारे में स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि वह किसी की दया की पात्र नहीं है। वह अपनी सीमाओं और संभावनाओं में सक्षम विधा है। किस-किसकी उपेक्षा का रोना रोया जाएगा। जनतंत्र किन हादसों में है? क्या हमारा जन-गण उपेक्षा का शिकार नहीं है? स्वार्थी तत्व उसकी नुमाइश लगाकर क्या अपना नाम ऊँचा करने की कोशिश में नहीं लगे हैं। क्या यह ठीक है? यह एक पीड़ा बड़ी तल्खी के साथ बार-बार उजागर हो रही है। जैसे की कोई हैसियत नहीं है। दुष्यंत कुमार का महत्त्व कम है क्या? कुछ दूसरी तरह की आवाज़ें भारी-भरकम चिल्लाहट में बुलंद की जा रही हैं। छंद का महत्व है और वह हर हाल में रहेगा। निराला में दम था तो उन्होंने छंद का चलन तोड़ा और उसी ताक़त के साथ मुक्त छंद में लिखा और नए-नए रूपाकार भी गढ़े। छंदों को तोड़ना मुक्त छंद में लिखना और उसी ताक़त के साथ छंद में भी लिखना, यह बड़ी बात है। निराला जी ने उसे हर तरह से साबित भी किया। वे मानते रहे कि आदमी की मुक्ति की तरह छंद की भी मुक्ति होती है। कविता ही नहीं हमारे गद्य में जो हमारे जीवन संग्राम की भाषा है, उसमें लय और छंद होता है, मात्र उठा-पटक नहीं। मात्र रोना-धोना नहीं। छंद तो हर जगह है, उसी तरह लय भी। हमारे उठने-बैठने और हर क्रिया-कलाप में। शर्त यही है कि उसके रूप अलग होते हैं और भंगिमाऍं भी। कुछ लोग मात्र छंदों के पीछे पिल पड़ते हैं। वे कविता की स्वच्छंदता को सांस नहीं लेने देना चाहते। मात्र कविता में ही छंदों की वापसी और महत्त्व की बात मत कीजिये, बल्कि हमारे जीवन में छंद और लय की महत्ता को मूल्यवत्ता के साथ स्थापित करने का प्रयास कीजिये। बड़े दायरे भी बनाइये। संकीर्णता के ख़ाने नहीं।
जिसे देखिए वही बड़े आराम से ग़ज़लें कहते हुए घूम रहा है और अपनी छाती तान रहा है। ग़ज़लों की इस तरह की लोकप्रियता से सचमुच डर लगता है जिसमें ग़ज़ल का व्याकरण थर-थर काँप रहा है। बहर और अन्य चीज़ें दाव पर लगी हैं। दुखद है कि ग़ज़ल की आत्मा का निरंतर ह्रास हो रहा है। वहाँ अर्थ और जीवन के संघर्ष लुप्त होते जा रहे हैं। किसिम-किसिम की खींच-तान जारी है। एक विशेष प्रकार की कलाकारी और उसकी बाज़ीगरी फैल रही है। उनकी जनपक्षधरता में निरंतर कमी आ रही है। अनेक लोग आकाश में कलाबाज़ियाँ खा रहे हैं। सच तो यह है कि जीवन की सच्चाइयों तक ग़ज़लों की पहुँच बनी रहे। आरोपित मुद्राऍं नहीं बल्कि ज़िंदगी का सच ग़ज़लों में आना चाहिए। उसमे प्यार मोहब्बत भी आये और हमारे जीवन की खिलखिलाहटें भी। मात्र नाटक और जीवन का तमाशा नहीं। अदम गोंडवी के शब्दों में–
घर में ठण्डे चूल्हे पर, अगर ख़ाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूँ, धूप फागुन की नशीली है।
ग़ज़ल हो या कविता या कोई भी विधा, उसे समय के सवालों से जूझना पड़ता है। वहां नाटक-नौटंकियों से काम नहीं चल सकता। समय, सच, ज़िंदगी और सामान्य जन को अलग करके कोई भी रचना कारगर नहीं हो सकती।
समूचे देश की साँसें ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे। मज़दूर बेरोज़गार हुए और पूरे देश में पलायन, और भुखमरी पसर गई। लगभग समूचा देश अंधेरे और भयानक सन्नाटे से गुज़र रहा है। एक शासक वर्ग या उनके समर्थक या कुछ दिग्भ्रमित और कुंठित मानसिकता के लोग हैं जो इधर-उधर की बातों में वक़्त ज़ाया कर रहे हैं। इसी दौर में डी एम मिश्र के दो ग़ज़ल संग्रह ‘आईना दर आईना’ और ‘वो पता ढूंढे हमारा’ पढ़ता रहा। वे ज़िंदगी के तमाम रूपों को अभिव्यक्त और उजागर करने की कोशिश कर रहे हैं। जीवन के संघर्षों को बखान रहे हैं। गाँव की माटी की गंध को अनुभव कर रहे हैं। दुष्यंत कुमार के कुछ शेर देखिये-
सिर्फ़ शायर देखता है, क़हक़हों की असलियत
हर किसी के पास तो ऐसी नज़र होगी नहीं
मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं
सवाल है कि अनेक लोग अपने को दुष्यंत कुमार से जोड़ते हैं, जाहिर है कि मिश्र जी भी जोड़ते हैं, तो उनकी तरह अदम गोंडवी की तरह ऐसा लिखने की कोशिश भी करते हैं। उनका यक़ीन नारेबाज़ी और धमा-चौकड़ी में नहीं है बल्कि ज़िंदगी के सार्थक बदलाव में है।
कहना ज़रूरी है कि सच्चा लेखक जो भी लिखता है, उसमें उसके सच और झूठ का परीक्षण भी होता है। मुगालता देर तक नहीं चल सकता। कोई चाहे जितना बचाए अंततोगत्वा लेखक का झूठ पकड़ा ही जाता है। किसी भी तोप-ताप से लेखक को बचाया नहीं जा सकता। जीवन का सच इतना बड़ा, व्यापक और बहुआयामी होता है कि उन सबको लेखक पकड़ नहीं पाता। यह उसकी सीमा है। उसका प्रयास ईमानदारी से होना चाहिए। डी एम मिश्र का एक शेर देखें–
ज़िंदगी जितना तुझको पढ़ता हूँ
उतना ही और मैं उलझता हूँ
यह उनका आत्मसंघर्ष है। जिस दिन कोई लेखक अपने आपको दुहराना शुरू कर देता है, आत्मालोचन बंद कर देता है, वह अपने अंधेरे तहखाने में बंद हो जाता है और तरह-तरह के नाटक करता है। वह अपने सीमित अनुभव संसार को अनेक रंगतों में छितराना शुरू कर देता है और पाठकों को भरमाना भी। जनाब कृष्ण बिहारी नूर का एक अंदाज़ देखें–
ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या जुर्म है पता ही नहीं
इतने हिस्से में बंट गया हूँ मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं
लेखक बनना, उसमें क़ायम रहे आना बड़ा कठिन काम है। ज़ाहिर है कि जनजीवन के मूल्यों के लिए अपने आप से भी संघर्ष करना पड़ता है, अपनी हस्ती मिटानी पड़ती है। मुझे बलबीर सिंह रंग याद आए। उनका अंदाज़ भी देख लें-
आबोदाना रहे, रहे, न रहे
चहचहाना रहे, रहे, न रहे
हमने गुलशन की खैर मांगी है
आशियाना रहे, रहे, न रहे
दुभाषियापन बहुत समय तक नहीं चल सकता। यदि ग़ज़ल ज़िन्दगी के साथ, आम आदमी, आमजन के साथ है तो उसका संज्ञान ज़रूर लिया जाता है, कमोबेशी हो सकती है। सच है कि ग़ज़ल अपनी ज़रूरत पैदा करने में समर्थ है। किसी को ठेका देकर तवज्जो लेने का रिवाज़ तो कभी नहीं था। आरोप तो मनगढंत ढंग से नहीं लगाए जा सकते। लंबी लाइन या लकीर खींच कर ही ऐसा संभव है। आकाश में लात मारकर नहीं। ग़ज़ल लंबी साधना की मांग करती है। ग़ज़ल ने जो लंबी यात्रा की है वह मात्र कथन भंगिमा से नहीं जानी जा सकती। अपनी सख़्त जान के द्वारा ही उसकी पहचान है। आम जीवन की संघर्षशीलता, कर्मठता और संबद्धता के साथ ही उसका रिश्ता है। दुष्यंत कुमार ने सच ही कहा था-
परिंदे अब भी पर तोले हुए हैं
हवा में सनसनी घोले हुए हैं
इसलिए ग़ज़ल थी, है और आगे भी रहेगी। कोई भी कविता या रचना अपने समय के द्वंद्वों और जनजीवन की संबद्धता से ही अपना रूपाकार गढ़ सकती है। आम जनजीवन से कटकर सत्ता की चाटुकारिता करके और पाला बदलकर, निष्ठाएं किसी को भी मात्र शिल्प और वचनवक्रता के साथ झूठ को सच में बदलने की स्पृहा से कामयाब नही हो सकती। हम अभी भी रास्तों की खोज में हैं। अन्य विधाओं की तरह ग़ज़ल भी कोई खिलाड़ी विधा नहीं है, उसमें भी जीवन सत्य बोलता है। हालांकि इसमें शिल्प की पहल द्वारा अपनी जनसंबोधता के स्थान पर दूसरे इलाकों में करिश्मा दिखाने और अपने को खूबसूरत ढंग से छिपाने की बड़ी गुंजाइश है।
ग़ज़लों में कलाबाज़ी के या अपने को छिपाने के कम अवसर नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि यह यहाँ ही है, अन्य जगहों में भी ऐसा होता है। हाँ, कारीगरी यहाँ ज़्यादा संभव है। कारीगरी भर से ग़ज़लें कथ्य को और जीवन को नहीं पा सकतीं। कला की चतुराई भी तो बहुत बड़ी चीज़ है। डी एम मिश्र में निडरता के अनेक कोण हैं और समय के भयावह द्वंद्वों को रचने की अपार चेष्टाएं और संभावनाएं भी। दो शेर देखें–
हमारी वफ़ा की तिजारत करोगे
सरों को कटाकर, सियासत करोगे
नज़र में है ख़ंज़र, लबों पे है शोले
यक़ीं कैसे कर लूँ, मुहब्बत करोगे
सच को ग़ज़लें तस्लीम करती हैं, खोजती हैं और उसी को सामान्य जीवन के दहानों में भी पाना चाहती हैं। ज़िंदगी से बड़ा क्या कोई सच है, जि़न्दगी हमेशा हरी होती है। मनुष्य को अलग करके क्या किसी साहित्य संस्कृति को विकसित किया जा सकता हैॽ साहित्य तो जनता के साथ कनेक्ट होता है, सम्बद्ध होता है। प्रतिरोध ही उसकी असली ताक़त है। आम जीवन के लिए ही तो उसका संघर्ष होता है। ये ग़ज़लें हमारे तमाम साहित्य, संस्कृति और समाज के जीवन संग्राम से, मनुष्य के संघर्षों से और आमजन के ताप से आई हैं। यही तो साहित्य की दुनिया और उसकी जिम्मेदारी है। साहित्य कोई नुमाइश की चीज़ नहीं है। यह अपने को साबित करने का कोई कारखाना नहीं है। हम आलोचना की भरपूर अवहेलना के दौर में हैं। यहाँ प्रशंसाओं के बैरोमीटर लगे हैं। प्रशंसाओं का थोक उत्पादन होता है। एक सही आदमी और जि़न्दगी की वास्तविकता को गिराने का पूरा एक तंत्र खड़ा है। प्रशंसाओं के लगातार पुल बांधे जा रहे हैं। मेरी जानकारी में नहीं है कि डी एम मिश्र अपनी ग़ज़लों की प्रसिद्धि के लिए कोई जतन करते हैं। हाँ लिखते हैं, और ठाठ के साथ कहते हैं। बिना आगा-पीछे सोचे कहते हैं, बिना डरे जनता की समस्याओं के साथ खड़े होते हैं।
आत्ममुग्धता के समय में, अपने अलावा किसी को महत्व न देने वाले दौर में, आकांक्षाओं के घनघनाते इरादों में, हर अच्छाई को, मानवीय मूल्यों को ध्वस्त करने की योजनाएँ बिछा दी गई हैं। एक राग गाया जा रहा है कि मेरे अलावा कुछ भी नहीं। यह मामला व्यक्ति का नहीं राष्ट्रीय स्तर का है, और इसके व्यापक संदर्भ हैं। डी एम मिश्र की ग़ज़लें पढ़ते हुए अक्सर यह लगा कि कि यह शख़्स सोचता बहुत है। हाँ , जितना सोचता-विचारता है उतना शायद उसे बाँध या कह नहीं पाता। उसके संसार में, सोच के दायरे में अन्य रूपाकारों में तरह-तरह के आकार हिरण की तरह कुलांचें भरने लगते हैं। जाहिर है कि यह घपलों और घमासानों का भी दौर है। इसमें कोई अपने आप को बचा पाता है- यही बड़ी बात है। उनका लेखन हमें आश्वस्त करता है।
आपदाओं, विडम्बनाओं और विसंगतियों के दौर में डी एम मिश्र का स्वाभिमान बाक़ी है और उसके अंदाज़ जुदा हैं। एक शेर मुलाहिजा हो–
करो हज़ार वार हमको डर नहीं लगता
लड़ेंगे जुल्म से जब तक कि जान बाक़ी है
यह हौसला ही हमारी ज़िन्दगी का असली मूलमंत्र या धन है। बेचैनी हमें बार-बार मजबूर करती है-
बेचैन हो रहा हूँ, बेसब्र हो रहा हूँ
किससे कहूँ मैं यारो आपा भी खो रहा हूँ
हर दर्द अब लिखा हो चेहरे पे क्या ज़रूरी
बाहर से हँस रहा पर भीतर से रो रहा हूँ
मिश्र जी को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि वे भावों से भरे हुए इंसान हैं। दुविधाओं से घिसट रहे जीवन, फैले हुए हाहाकार को, घुटती हुई उदासी और बेचैनी को वे अपनी ग़ज़लों में मुखर करते हैं। वे सियासत के खेल तमाशों को सहजता और गंभीरता से रखते हैं। गुस्सा बहुत है उनमें, लेकिन एक विश्वास भी निरंतर जगमगाता है। उनके शेर बहुत चमकीले, भड़कीले और उद्धरणीय भले न हों लेकिन उनमें हौसलों का उद्घोष और मानवीय मूल्यों के प्रति विश्वासों की रोशनी हरदम जगमगाती है। वे बहुत बारीकी से सबकी असलियत ताड़ लेते हैं। कुछ शेर देखें-
मंज़िल हमारी और है रस्ते हमारे और
दुनिया हमारी और है मसले हमारे और
जंग लड़नी है तो बाहर निकलो
अब ज़रूरी है सड़क पर निकलो
इतनी सी इल्तिज़ा है चुप न बैठिए हुजूर
अन्याय के खि़लाफ़ हैं तो बोलिए हुजूर
मिश्र जी बोलते हैं और कुछ ऐसे हैं जो मात्र शब्द भांजते हैं। इस दौर में भी कुछ हैं जो अन्याय के खि़लाफ़ कुछ बोलते नहीं ऊपर से सामान्य आदमी की खिल्ली भी उड़ाते हैं, इसे किस रूप में देखा जाए?
डी. एम. मिश्र ग़ज़लों की परम्परा से भरपूर परिचित हैं। वे हिन्दी उर्दू नहीं करते। सच है, ग़ज़लें तो लोक की तमाम बोलियों में भी लिखी जा रही हैं। रचना की दुनिया में उन्होंने जो पाया है, वह कठिन परिश्रम, साधना एवं लगन से हासिल किया है। उनकी भाषा जीवन के कारख़ाने से निकली है। वह आयातित नहीं है। श्रम के पसीने से उसका जीवंत रिश्ता है। मुझे लगता है कि यह आदमी जीवन के विविध क्षेत्रों और अन्य आयामों तक जाता है। उसके अनुभव घर-गॉंव, गली-मोहल्ले-कूंचे, पगडंडियों से लेकर पहाड़ों, खदानों, रेगिस्तानों और दलदली जीवन संघातों से ऊर्जा ग्रहण करते हैं। कोई आदमी जब दिन-रात कविता में जीता है, उसी को ओढ़ता बिछाता है- तभी यह रंगत आती है। ज़रूरत उसे यह होती है कि उसकी आँख हो और आँख में पानी भी। वे संवेदना की व्यापक पृष्ठभूमि, पटभूमि से लेकर गझिन वास्तविकताओं को अभिव्यक्ति का दमखम रखने वाले शायर हैं। वे कविता के फुलटाइमर जीव हैं। जाहिर है कि जीवन उतना ही नहीं होता जो हमें ऊपर-ऊपर से दिखाई देता है। वह धरती के बहुत नीचे होता है और आसमानों तक भी। जैसे खदानों की दुनिया में खनिज बहुत होता है, उसकी खोज की जाती है और वहाँ से बाहर निकाला जाता है। रचनाकार को इत्मीनान से सारी चीज़ें नहीं मिलती। यह बैठे-थाले और आराम का मामला नहीं है। जीवन की आंतरिक संरचना, सच्चाइयों तक जाना, उनके कारकों को खोजना भी लेखक की ज़रूरत है, क्योंकि असली ताप तो यथार्थ की उन्हीं आंतरिक तहों में जाने से मिलता है। कभी-कभी कथन के लहजे और भाषाई चमक-दमक के बाहर भी मिलता है। सच यह है कि भाषा का छल अपने लब्बो-लुआब के साथ, कारीगरी के साथ बड़ी आसानी से लोगों को भरमा लेता है, लेकिन यह खेल-तमाशा ज़्यादा ‘चलेबल’ नहीं है।
हमारे जीवन संघर्ष बहुत व्यापक होते हैं। मिश्र के यहाँ नफ़रत और नाराज़गी है दुश्मनों की खातिर, लेकिन उसका लहजा शांत है। हालाँकि उसका काम इन्हीं भर से नहीं चलता। ज़रूरी यह है कि उसकी काट कैसे की जाए, इसका तरीका भी खोजा जाए। देखिए कि वह जीवनलीलाएँ किन-किन रूपों में देखते है और उसका ठीक बखान कैसे करते है। इस तरह के प्रश्न किन विधियों में अंकित करते है। कोई ज़रूरी नहीं कि कविता सिद्धि के परकोटे में आने के लिए काव्य वस्तु और जीवन मूल्य रस को ही अलग-थलग कर दे। परफेक्ट छंद के अनुशासन की खातिर वह सत्य को पीठ दिखा दे। कवि की परीक्षा के अनेक मानक हो सकते हैं। इधर पूर्व की तुलना में चुनौतियाँ निरन्तर बढ़ी हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के निबंध ‘कविता क्या है’ के संदर्भ में उसे देखा जाना चाहिए। मेरी नज़र में इसे किस भी तरह अनदेखा नहीं किया जा सकता है। ‘मनुष्य लोकबद्ध प्राणी है। उसका अपनी सत्ता का ज्ञान तक लोकबद्ध है। लोक के भीतर ही कविता क्या किसी कला का प्रयोजन और विकास होता है।’
ग़ज़लें कविता के गोत्र में शामिल हैं। वे किस परिवेश, यथार्थ और ज़मीनी हक़ीक़त से गुजरती हैं। उसका कथ्य क्या है और वह किसके साथ खड़ी है, यह महत्वपूर्ण होता है। डी एम मिश्र उर्दू, अरबी, फारसी से लेकर हिन्दी और बोलियों की अनेक परंपराओं को जज़्ब करते हैं। वे अपने लिए ग़ज़लों की कौन सी पृष्ठभूमि और कौन सी भाषा अख़्तियार करते हैं तथा संवेदना और दुनिया के विविध इलाकों के परिप्रेक्ष्य में ज़िंदगी के एहसासों को रखते हैं। यह उनकी ग़ज़लों के देखे बिना जाना पहचाना नहीं जा सकता। अपनी ग़ज़लों में वे ईमान की मुक़म्मल सलामती चाहते हैं। उँची उड़ान ज़िदें भी उनके यहाँ जिन्दा हैं। दो शेर देखें–
ख़त्म हो जाए भले मान, पद-प्रतिष्ठा सब
मैं रहूँ या न रहूँ पर मेरा ईमान रहे
हवा में हैं वो, अभी आसमान बाकी है
अभी परिंदों की उँची उड़ान बाकी है
रचनाकार की सबसे बड़ी ताक़त यह है कि वह यथार्थ, जीवन, संघर्ष और अतंर्तत्वों के दहानों को कितना खोल पाता है। यह लेखक का जीता जागता सच है। ग़ज़ल को भी वाहवाही के बरअक्स जीवन की व्यापक सच्चाइयों का सतत सामना करना है। यही रचना का असली तकाज़ा है। यह भेदक दृष्टि ही रचनाकार की जीवन भूमि है। जो आदमी, सत्ता, संस्कृति और सामाजिकता का विराट संदर्भों में अन्वेषण, पहचान और उस अभिव्यक्ति को संभव करता है, वह विरला और विश्वसनीय लेखक होता है। डी एम मिश्र समूचे तंत्र के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं। यह अच्छी बात है कि उनकी ग़ज़लें उनकी जनसम्बद्धता प्रकट करती हैं।
सच की मार बहुत कठिन होती है। सच को, जीवन को बखानने में यथार्थ को शिद्दत से महसूस करने की हमेशा कोशिश होती है । हमारे पूर्वजों ने और वर्तमान में रोज़-रोज़ दुनिया बनाने वालों ने इसे कई तरह से कहा है। हर लेखक को परम्परा, आधुनिकता और उत्तरआधुनिकता के बाहरी और आंतरिक द्वंद्वों की पहचान करते हुए उस तलस्पर्शी सच, मानवीय मूल्य और भोथरी कर दी गई संवेदना को फिर से जागृत करना पड़ता है। आदमी को भूनकर खाने की लीलाओं के खिलाफ मानुष सत्य को पहचानने और पाने का संघर्ष करना पड़ता है। दुष्यंत कुमार के शब्दों में-
एक चिनगारी कहीं से ढूँढ़ लाओ दोस्तो
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है
आज वीरान अपना घर देखा
तो कई बार झाँककर देखा
पाँव टूटे हुए नज़र आए
एक ठहरा हुआ सफ़र देखा
लेखक की बातों को बहुत व्यापक सन्दर्भों में देखा जाना चाहिए। सन्दर्भ बदलकर ज़िंदगी के संघर्षों को अनुभव किया जाना चाहिए। इसी क्रम में जिगर मुरादाबादी का एक शेर देखें-
ये इश्क़ नहीं आसा इतना तो समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
जि़न्दगी खांचों भर में नहीं देखनी चाहिए, जिन्दगी हमारे जीवन संघर्षों, व्यापारों, प्रकृति के रूपाकारों में भी है और समूची कायनात के विस्तार में भी। कौन ताकतवर है, कौन सी विधा का कौन सा रूप, जो श्रेष्ठ है, यह कहना मुश्किल है। ज़ाहिर है कि रचनाकार जो साध पाए वही कहे, लेकिन ठीक-ठिकाने से कहे। यदि किसी के पास जि़न्दगी की समझ नहीं है, ज़मीर नहीं है और अपने विश्वासों का ठाठ नहीं है, वह देखा-देखी में चाहे जो हाँकता रहे, अंततोगत्वा घुमाता-फिराता ही रहेगा। वे जीवन राग के शायर हैं। यदि प्रलोभन के महामायाजाल को यदि वे लगातार काटते रहे तो उनकी ज़मीन बची रहेगी। यथार्थ के रूपाकार बहुत हैं। बाह्य यथार्थ, आंतरिक यथार्थ और एक नया नाम सामने आया है- जादुई यथार्थ। उनकी ग़ज़ले चमकीली भले न हों, ठोस और जीवंत जरूर हैं। उनमें सादगी है। उसी तरह समय की पेचीदगियॉं बहुत हैं। हाँ , उसमें मिश्र जी का पहचानने का स्वर अलहदा है।
वो सितारे भी खिलौनों की तरह से टूट सकते
बांसुरी से भी बगावत के नए स्वर फूट सकते
ग़ज़लों के अनेक स्वंर और रंगते हैं, परम्परा और प्रगति के भिन्न -भिन्न अंदाज़ हैं। डी. एम. मिश्र का रिश्ता जीवन के साधारण तत्वों से है। वे रहन सहन, बोली-बानी और कहन में साधारण हैं। उनसे सभी लोग एक उम्मीद रख सकते हैं।
समीक्ष्य पुस्तक- वो पता ढूँढे हमारा
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- डी. एम. मिश्र
प्रकाशक- शिल्पायन पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, शाहदरा, दिल्ली
संस्करण- प्रथम, 2019
– सेवाराम त्रिपाठी