ज़रा सोचिये
अकेलापन कमज़ोरी नहीं है
आज हर तरफ मायूसी, कोफ़्त, गुस्सा, नफरत…..शायद ही कोई हो, जिसे किसी से शिकायत न हो। किसी को हाल से शिकवा, किसी को हालात से। किसी को ख़ामोशी परेशान करती है तो कोई चीख-चिल्लाहट से तंग आ गया है। कोई सरकार को कोसता है, कोई परिवार को। कोई सपने नहीं देख पाता, किसी को टूटे सपने चुभते हैं। कोई किसी के साथ से दुखी है तो कोई अपने अकेलेपन से। अपवाद हर जगह पाए जाते हैं और न भी हो तो किसी की बात को ग़लत साबित करने के लिए बन जाते हैं।
जैसे मैं कहूंगी कि दुनिया में कोई सुखी नहीं है, तो मेरी बात को विरोध होगा और लोग कहेंगे हम सुखी हैं। मैं कहूंगी सब सुखी हैं, तब तो ज्यादा विरोध होगा क्योंकि कुछ लोगों की आदत होती है हमेशा ‘विपक्ष’ में बैठने की। ख़ैर हम अपवादों की बात क्यों करें! अपवाद तो आखिर अपवाद ही होते हैं और वैसे भी आज के ज़माने में हर किसी की ‘अपनी अपनी ढफली, अपना अपना राग।’
फ़िलहाल मेरा राग सुनिए… मैं मानती हूँ कि दुनिया में सभी असंतुष्ट हैं। सभी को अपनी स्थिति और परिस्थिति से कोई-न-कोई शिकायत है। हर व्यक्ति दूसरे की ज़िंदगी से ख़ुद की तुलना करके दुखी होता है क्योंकि पुरानी कहावत है ‘दूसरे की थाली में घी ज्यादा दिखता है’। वैसे भी कहा जाता है इंसान अपने दुःख से कम और दूसरों के सुख से ज्यादा दुखी होता है।
ख़ैर, छोड़िये! मैं बात करना चाहती हूं अकेलेपन नामक गंभीर बीमारी की। मुझे और मेरे आसपास के लोगों को अकेलेपन की बहुत शिकायत है। घर के काम की बात हो तो गृहिणी को लगता है, मैं अकेली क्या-क्या करूँ? धनोपार्जन की बात हो, पुरुष को लगता है कि मैं अकेला कितना कमाऊं। दोनों मिलकर काम करते हैं तो संबंधों में दूरियां आती हैं। तथाकथित अपने आए दिन याद दिलाते रहते हैं कि दुनिया में ‘अकेले आए हो और अकेले ही जाओगे।’
हम हर वक्त अकेलेपन की शिकायत से क्यों घिरे रहते हैं? आज का परिवेश ही ऐसा हो चला है कि दाएं हाथ को, बाएं हाथ पर भी भरोसा करने से डर लगता है। इस ज़माने में रिश्तों से अपेक्षाएं दूरियों को बढ़ाती हैं और जब अपनों से दूरी बढ़ती है तो अकेलापन हावी होने लगता है। जब हम सबके साथ होते हैं, तो अपनापन भी दखल-अंदाज़ी लगता है और जब ज़रुरत हो और लोग हाथ खींच लें तो अकेलापन महसूस होता है।
पर कभी सोचा है कि अकेलापन हमारी कमज़ोरी और निराशा बनता जा रहा है। ख़ुद को अकेला मानकर हम अपनी क्षमताओं को ख़त्म करते जाते हैं। अपेक्षाएं जब उपेक्षाओं में बदलती हैं तो हम ख़ुद भी ख़ुद की उपेक्षा करने लगते हैं जबकि जब हम अकेले होते हैं तब हमें निराश होने की बजाय ऊर्जा का संचय करना चाहिए। वो ऊर्जा, जो बोलने में, सुनने में, दु:खी होने में, उपेक्षित होने में खर्च करते आ रहे हैं, उसे एक मनचाही दिशा देकर पूरी ऊर्जा सोचने, समझने और करने में लगानी चाहिए। और फिर कौन कहता है कि ‘अकेला चना भाड़ नही फोड़ सकता।’
याद करो वो दिन जब माँ ने जन्म देकर अपनी कोख से बाहर जीना सिखाया। हाथ से कौर खिलाते-खिलाते हाथ से निवाला खाना सिखाया। पिता ने चलना सिखाते-सिखाते उंगली छोड़कर अकेले चलना सिखाया। अक्षर से वाक्य पढ़ाते-पढ़ाते ज़िंदगी आत्मनिर्भरता से जीने का पाठ पढ़ाया। सायकिल चलाना सिखाते हुए पिता ने धीरे से पीछे अकेला छोड़ दिया ताकि अकेले सायकिल से बाइक और बाइक से कार तक का सफ़र तय कर सको। स्वतंत्र होकर अपनी जीविका चलाने के लिए सलामत हाथ पैर और तालीम दी।
आज जब स्वतंत्र हो तो अकेलेपन का रोना क्यूं? अकेलापन कमज़ोरी नहीं, अगर सोच सकारात्मक हो। हो सकता है, आज किसी ने हाथ और साथ छोड़ा है तो उसके पीछे वजह ये हो कि अब रास्ता बदलने का समय आ गया हो। हो सकता है, अगला मोड़ अकेले के लिए ही सफलता के आयाम लेकर आ रहा हो।
आज मैंने तय कर लिया है इस अकेलेपन में जीवन को नया रुप दूंगी अपनी मर्ज़ी से, अपनी ख़ुशी के लिए। अपनी पसंद से, अपनी सोच का एक ऐसा प्रारुप तैयार करुंगी और फिर अपनी पूरी संचित ऊर्जा लगाकर उसे जीवंत करुंगी बिलकुल वैसे जैसे मैंने चाहा है और तब साबित कर दूंगी कि मेरा अकेलापन मेरी कमजोरी नहीं बल्कि ताकत है।
एक गुजारिश, एक बार आप भी आजमाकर देखो न….सुकून मिलेगा जब
कोई रोकेगा नहीं कोई टोकेगा नहीं
वो करो दिल चाहे जो
जैसा सोचा था जितना सोचा था
वो कर के दिखा दो
मौका मिला है किस्मत वाले हो
कर सकते हो मन की
अकेलापन कमजोरी नहीं ताकत है
आज ये साबित कर दो
– प्रीति सुराना