ख़ास-मुलाक़ात
‘पानी को प्रदूषित करने वाले लोगों को जेल में डाल देना चाहिए।’
– जल पुरुष राजेंद्र सिंह
भारत में जल पुरुष के नाम से विख्यात और रेमन मैग्सेसे पुरस्कार समेत कई अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड जीत चुके राजेंद्र सिंह ने पर्यावरण पत्रकार अमरेंद्र किशोर के साथ देश में निरंतर उभरती पानी की समस्या को लेकर बीते हफ्ते दिल्ली में जमकर बात की। केंद्र की पिछली भाजपा सरकार पर बरसते हुए उन्होंने कहा कि गंगा के नाम पर भले ही मंत्रालय बना दिया गया, पर हकीकत यह है कि पांच सालों में गंगा को अविरल बनाने के नाम पर एक भी काम नहीं हुआ है। बातचीत के कुछ अंश…..
अमरेंद्र किशोर- समूचा देश इस समय पानी की कमी से जूझ रहा है। सरकारें इस मामले में गंभीर हैं?
राजेंद्र सिंह- सरकार गंभीर नहीं है। कुछ साल पहले तरह राज्य के लोगों ने जंतर-मंतर पर जल सत्याग्रह कर ज्ञापन दिया था। आपको जानकार आश्चर्य होगा कि जिस भाषा में हमनें ज्ञापन दिया था, सरकार ने उसी भाषा में बड़े-बड़े विज्ञापन दे दिए। सवाल उठता है कि विज्ञापन से क्या होगा। सरकार दिखावा ज्यादा करती है़, लेकिन उस ढंग से काम नहीं हो रहा है। दरअसल सरकार विज्ञापन देकर अपने को मुक्त करना चाहती है। सरकार की पानी बचाने में कोई रूचि है ही नहीं, योजनाएं और कार्यक्रम उसने एक से एक दिए हैं। नई सरकार आयी है जो पहले पाँच साल की अपनी आयु पूरी करने के बाद साफ़ दिखता है कि पानी पर सरकार ने अब तक कुछ ठोस नहीं किया है। पानी कभी किसी जमाने में समाज की थाती था। जल के तमाम स्रोत हमारी विरासत थे। लेकिन अंग्रेजों ने समाज से उसका पानी छीन लिया।इसकी व्यवस्था ठेकेदारों के पास चली गयी और आजादी मिलने के बाद सरकार पानी की मालिक तो बन गयी, लेकिन यह मालिकाना हक वह प्राइवेट कंपनियों को दे रही है। मैं देखता हूं कि सरकार ने समाज के लिए पानी बचाना बंद कर दिया है। हमारी सरकारें प्राइवेटाइजेशन में जुटी हैं। दिल्ली हो, यूपी हो, एमपी हो या देश को कोई भी क्षेत्र हो, सरकार पानी का बाजारीकरण करने में जुटी है।
अमरेंद्र किशोर- यदि यह अनुमान है कि अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा तो क्यों न हम पानी के खजाने को बचाएं।
राजेंद्र सिंह- ऐसा तुम कहते हो, सरकार नहीं कहती। उसके विज्ञापनों में लिखा मिलता है कि ‘जल ही जीवन है’—, लेकिन विडंबना यह है कि मौजूदा दौर में भारत के ज्यादातर राज्यों में पानी की घोर किल्लत है…. और गर्मी के दिनों में यह समस्या देश के कई हिस्सों में विकराल रूप धारण कर लेती है। मध्यप्रदेश से लेकर महाराष्ट्र के कई इलाकों में पेयजल संकट इतना ज्यादा गहराता है कि रेल परिवहन के जरिये वहाँ पानी पहुंचाना पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, भारत में लगभग पौने आठ करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं होता। गांवों में जाओ तो हालात और भी खराब है। वहाँ लगभग सत्तर प्रतिशत लोग आज भी प्रदूषित पानी पीने को मजबूर हैं। पीने को पानी नहीं है क्योंकि कुएं-तालाब-पोखर सब के सब सूख रहे हैं। ऊर्जा की बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के प्रयास में लगातार नए बिजली संयंत्र बनाए जा रहे हैं। लेकिन इस कवायद में पानी की बढ़ती खपत को नजरअंदाज कर दिया जाता है। इन संयंत्रों को ठंडा रखने के लिए भारी मात्रा में पानी की खपत होती है। ध्यान देने कि बात है कि अगर ऊर्जा उत्पादन की होड़ इसी रफ्तार से जारी रही तो अनुमान है कि वर्ष 2040 तक लोगों की प्यास बुझाने के लिए पर्याप्त पानी ही नहीं बचेगा।
अमरेंद्र किशोर- सेंट्रल वाटर कमीशन ने लातूर समेत मराठवाड़ा और विदर्भ के गिरते भू-जलस्तर पर रिपोर्ट दी है- रिपोर्ट में देश के इन इलाकों में गन्ने की खेती से धरती के कोख का पानी लगभग सूख गया है। आप क्या कहते हैं?
राजेंद्र सिंह- खूब सारा पानी सोखने वाली गन्ने की खेती ही सूखे की बड़ी वजह है। जल और सिंचाई आयोग ने पूरे मराठवाड़ा में गन्ने की खेती पर पाबंदी लगाने की सिफारिश की थी। दिक्कत यही है कि इसमें से ज्यादातर पानी गन्ने की खेती में खप रहा है। किसान अवैध तरीके से पानी निकाल रहे हैं। लेकिन इस रिपोर्ट का कोई असर नहीं दिखा। ये इलाके पानी के दारिद्र से जूझ रहे हैं। मराठवाड़ा और विदर्भ की धरती के आँचल और कोख का पानी किसान घुटक चुके हैं। तो रिपोर्ट देना उनका काम है, उनकी डयूटी है। लेकिन असली डयूटी यह भी है कि जल संकट के समाधान के लिए भी कुछ करें, सोचे। लेकिन करती नही है। सरकार ने समाज के हाथ से पानी छीन लिया है, नहीं छीनेगी तो प्राइवेट कंपनियां का पानी बिकेगा कैसे।
अमरेंद्र किशोर- तालाबों का हाल बुरा है। देश भर में रियल स्टेट कल्चर बढ़ने से भी जल संकट पैदा हो रहा है ।
राजेंद्र सिंह- बिलकुल सही कहा। अपने शहर के पुराने दिनों को याद करो- हमारे शहर, हमारे गॉंव के चारों ओर मीठे पाने के बड़े-बड़े भण्डार होते थे। उन सबसे समाज जुड़ा था। समाज की पारम्परिक जातियों की ज़िन्दगी पानी के इन संकायों पर निर्भर थी। उस ज़िन्दगी में पर्व थे, अनुष्ठान थे, गीत थे, कहानियां थीं और एक से एक टोटके भी थे। दरअसल ये सब के सब जीने के कारण थे। ज़िंदगी के रस और रंग थे पानी से जुड़े अनुष्ठान और उन अनुष्ठानों पर आश्रित कई लोकपर्व। लेकिन तालाब सिकुड़ने लगे। शहरीकरण में पानी के बहाव को खासा बढ़ा नुकसान पहुँचा। जब तालाब का पानी निकल नहीं पाता था तो आने की संभावना कमतर होती गयी। तालाब सूखने लगे। सूखते तालाबों पर शहर भर का कचरा डालकर उसे पाट दिया गया। अब विकास की नयी ज़मीन तैयार हो गयी। सरकार ऐसी जमीन रियल स्टेट के लोगों को देने लगी। जबकि मर चुके या मारे गए तालाबों को फिर से ज़िंदा किया जा सकता था। वहाँ पानी संरक्षित किया जा सकता है। देश के नगरों में तालाब बनाए जा सकते हैं, बारिश का पानी इकठ्ठा किया जा सकता है, खेती की जा सकती है। पर वो तो रियल स्टेट को लोगों को दे दी गयी है। नहीं देगी तो सरकार को उसका हिस्सा कहां से मिलेगा। जंगल उजाड़े जा रहे हैं, बिल्डिंग तो बन रही हैं, लेकिन रेन वाटर हारवेस्टिंग सिस्टम बनाने की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा। ऐसे में कैसे धरती के पेट तक पानी पहुंचेगा। हमारे भूमिगत जलाशय सूख रहे हैं भाई। ध्यान देना होगा इस तरफ, नहीं तो पीने का पानी खत्म हो जाएगा। दुनिया की कुल आबादी में से 18 प्रतिशत भारत में रहती है, लेकिन केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक देश में महज चार प्रतिशत ही जल संसाधन हैं। यह बेहद गंभीर स्थिति है। सरकारी आंकड़ों से साफ है कि बीते एक दशक के दौरान देश में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता तेजी से घटी है।
अमरेंद्र किशोर- गंगा-यमुना जैसी नदियाँ पानी के बड़े और विशाल स्रोत हैं, किन्तु अब ये दोनों नदियाँ सिकुड़ रही हैं दुनिया की कुल आबादी में से 18 प्रतिशत भारत में रहती है, लेकिन केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक देश में महज चार प्रतिशत ही जल संसाधन हैं। यह बेहद गंभीर स्थिति है। सरकारी आंकड़ों से साफ है कि बीते एक दशक के दौरान देश में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता तेजी से घटी है।
राजेंद्र सिंह- देखो भाई हिमालय अब गंजा हो रहा है। सरकार वहां पर्यटन को जमकर बढ़ावा दे रही है, लेकिन उसे बचाने की ओर ध्यान नहीं दे रही। शिमला की आग, उत्तराखंड के जंगलों की आग और श्रीनगर के जंगलों की आग के सालाना आयोजन मुख्य कारण तो यही है। हिमालय पानी का खजाना रहा है लेकिन वहाँ से पानी तेजी से घट रहा है। प्राकृतिक झरने, नाले, नदियाँ सूख रही हैं। हाल ही में उत्तराखंड के जंगल लहकने लगे इतना भी पानी नहीं था कि आग पर काबू कर लेते। ये नदियाँ नहीं सूखती तो उत्तराखंड की आग को तो बहुत जल्द काबू कर लिया जाता। जो उत्तराखंड देश की प्यास बुझाता है वो अब खुद पानी के लिए तरस रहा है। पहाड़ का पानी पहाड़ पर रोकने की बात तो सरकार सोच ही नहीं रही। हां पानी में राफ्टिंग, पर्यटन की ओर सरकार का पूरा ध्यान है।
अमरेंद्र किशोर- क्या पानी को लेकर सरकार को स्पष्ट कानून बनाने चाहिए?
राजेंद्र सिंह- क़ानून से क्या होगा। मेरा मानना है, कि पानी बचाने की जिम्मेदारी तभी बनेगी जब समाज को हकदारी मिलेगी। सरकार ने समाज से जल की हकदारी छीन ली है। इसलिए समाज को पानी की हकदारी वापस लौटाना सरकार की जिम्मेदारी है। ऐसा होने पर ही हम जल जुटाने, सहेजने व उसके अनुशासित उपयोग की समाज से अपेक्षा कर सकते हैं। सरकार को इस पर पूरी प्रतिबद्धता से निश्चय व निर्णय करने की जरूरत है। दूसरी बात जो बहुत महत्वपूर्ण है। सामुदायिक जल प्रबंधन को बढ़ावा देने वाले कायदे-कानून बनें और उनका पालन सुनिश्चित कराने की मजबूत तथा ठोस व्यवस्था भी विकसित की जाए। आज पानी के लिए नीति बनाए जाने की जरूरत है। बारिश के पानी के लिए कोई नीति नहीं है। इस वक्त भारत को एक जलनीति बनाने की जरूरत है। जो लोग पानी बचाते हैं उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। जो लोग पानी का फिजूल खर्च करते हैं उन्हें दंड मिलना चाहिए। और हाँ, वहीं पानी को प्रदूषित करने वाले लोगों को जेल में डाल देना चाहिए।
अमरेंद्र किशोर- विश्व बैंक ने कुछ दिनों पहले पानी के संबंध में अपनी एक रिपोर्ट भारत सरकार को सौंपी थी।
राजेंद्र सिंह- देखिए, इस बात के लिए मन मजबूत कर लीजिये कि विश्व बैंक कभी भी भारत के भले के सुझाव नहीं देगा। हाँ, विश्व बैंक हमें खूब पैसा देता है लेकिन दुःख की बात ये है कि इस पैसे ने देश में भ्रष्टाचार ही बढ़ाया है, समस्या को कम नहीं किया है। इस मुल्क में पर्यावरण को बचाने के नाम पर दान-अनुदान और कर्ज की जमकर उगाही की गयी है। इस उगाहे से समूचे समाज की नैतिकता और परम्परा के साथ-साथ उसके संस्कार पर भारी पड़ा असर पड़ा है। वैसे विश्व बैंक की चिंता इस मसले में सही है हमें इसे गंभीरता से लेने की जरूरत है। वहीं जहां तक विश्व बैंक के उपायों की बात है तो वह समाज और सृष्टि के हित में नहीं है।
अमरेंद्र किशोर- देश में जल संकट बढ़ रहा है आपके हिसाब से कैसे इसे रोका जा सकता है?
राजेंद्र सिंह- हम जब पानी के लिए काम करने राजस्थान गए थे, तो लोग हमें पागल तक कहते थे। अब आकर देखो, आज वहाँ हमने नदियों को पुर्नजीवित करने से लेकर हजारों तालाब बना दिए । हमने धरती के पेट तक पानी पहुंचाया। वही पानी धरती हमें उलटा दे रही है। तो जब तक तालाब, बांध नदियों को जोड़ना, नहर आदि पर काम नहीं होगा संकट ऐसे ही बढ़ेगा। तालाब पर अवैध कब्जे करवाकर अफसर मौज मनाते हैं . मैंने पहले ही कहा है कि नये तालाब तो छोड़िए पुराने ही हजम कर जाते हैं, तो धरती की प्यास कैसे बुझेगी। जहाँ बारिश अच्छी होती है वहाँ हमें बारिश के पानी को रोकना होगा, तालाब बनाने होंगे। नहीं किया तो परिणाम जल्द सामने होंगे।
अमरेंद्र किशोर- सरकार नदियाँ बचाने और पानी बढ़ाने के एक से एक मनलुभावन पोस्टर्स चिपकाकर देश को पानीदार बनाने की प्रतिज्ञा दोहराती है। अब तो मंत्रालय तक बना लिया।
राजेंद्र सिंह- देश के राजनेता यह जान चुके हैं कि नदियों की बात करके वोट हासिल किए जा सकते हैं। उन्हें इस बात का भी अंदाजा है कि वे नदियों का भला नहीं कर सकते, परंतु कुछ सद्गुरुओं और बाबाओं को आगे करके नदियों को ठीक करने का ढोंग जरूर रचा जा सकता है। यह ढोंग ठीक वैसा ही है, जैसा एक जमाने में आसाराम बापू, राम रहीम, रामपाल, फलाहारी बाबा का रहा है। इन बाबाओं की नेताओं से खूब नजदीकियां रहीं और उनका बाबाओं के आश्रम में खूब आना-जाना होता रहा। इससे एक तरफ बाबा प्रतिष्ठित हुए, तो वहीं नेताओं को उसका राजनीतिक लाभ मिला। जब इनकी सच्चाई सामने आई, तो नेताओं ने दूरी बना ली। कुछ बाबाओं की वास्तविक तस्वीर सामने आने पर राजनेताओं ने फिर कुछ ऐसे नए चेहरे ढ़ूढ़ना शुरू किए, जिन्हें लोग जल्दी से पकड़ न सकें। अब ऐसे बाबा नदियों के बड़े पैरोकार बनकर सामने आ रहे हैं। उन्होंने गंगा, कावेरी, गोदावरी, कृष्णा और नर्मदा नदी के नाम पर अपने-अपने खेल शुरू किए हैं। एक बाबा ने तो देश की सारी नदियों को ठीक करने का खेल शुरू किया है। नदियों के पैरोकार बनकर सामने आ रहे नए-नए बाबाओं में से कुछ आने वाले दिनों में कई बाबा राम-रहीम साबित होंगे। इससे नदियाँ तो ठीक नहीं होंगी, लेकिन नदियों से लोगों के रिश्ते जरूर टूटेंगे।
अमरेंद्र किशोर- तो इसके परिणाम क्या होंगे?
राजेंद्र सिंह- इन बाबाओं से रहा सहा विश्वास उठेगा और समाज नदियों को नाले की तरह देखने लगेगा। सिंह इस बात को लेकर चिंतित हैं कि जब नदी को ठीक करने के लिए आगे आ रहे बाबाओं की हकीकत सामने आएगी, तब तक भारत देश का बहुत कुछ बिगड़ जाएगा। बाबाओं का बिगड़ेगा या नहीं, ये तो मैं नहीं जानता, लेकिन नदियों, राज और समाज की बहुत हानि हो चुकी होगी। उस हानि की क्षतिपूर्ति करना संभव नहीं होगा।
अमरेंद्र किशोर- पानी के संकट के इस दौर में जल की समस्या को सुलझाने के मामले में महात्मा गांधी कितने प्रासंगिक रहते?
राजेंद्र सिंह- देखो, गांधी जी कहते थे कि ये सृष्टि सबकी जरूरत पूरा कर देगी लेकिन किसी के लालच को पूरा नहीं कर सकती। ऐसे में मुझे अपना काम गांधी का काम लगता है। कल्पना करो– गांधी अगर जिंदा होते तो निजीकरण, व्यापारीकरण के खिलाफ आंदोलन करते। क्योंकि गांधी जी साधक थे। यह संभव है कि हमारे साधनों के तरीको में बदलाव हो लेकिन हमारा लक्ष्य एक ही है। आज महात्मा गांधी जिन्दा होते तो दिल्ली में यमुना किनारे रहते और गरीबों को उजाड़कर अमीरों को बसाने के विरुद्ध सत्याग्रह करते। इसलिए हम सबको मिलकर यमुना को यमुना मां बनाए रखने का आग्रहपूर्वक सत्कर्म करने के लिए जुटना चाहिए।
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राजेन्द्र सिंह: जीवन परिचय
उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के डौला गाँव में 6 अगस्त 1959 को जन्मे प्रसिद्ध पर्यावरण कार्यकर्ता श्री राजेन्द्र सिंह को ‘जल पुरुष’ के नाम से जाना जाता है। हाई स्कूल पास करने के बाद राजेन्द्र सिंह जी ने भारतीय ऋषिकुल आयुर्वेदिक महाविद्यालय से आयुर्विज्ञान में डिग्री हासिल की। उसके बाद उन्होंने जनता की सेवा के भाव से गाँव में प्रेक्टिस करने का इरादा किया। साथ ही उन्हें जयप्रकाश नारायण की पुकार पर राजनीति का जोश भी चढ़ा और वे छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के साथ जुड़ गए। छात्र बनने के लिए उन्होंने बड़ौत में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध एक कॉलेज में एम.ए. हिन्दी में प्रवेश ले लिया।
1981 में उनका विवाह हुए बस डेढ़ बरस हुआ था, उन्होंने नौकरी छोड़ दी, घर का सारा सामान बेचा। कुल तेईस हजार रुपए की पूँजी लेकर अपने कार्यक्षेत्र में उतर गए क्योंकि उन्होंने ठान लिया था कि वह पानी की समस्या का कुछ हल निकलेंगे। आठ हजार रुपये बैंक में डालकर शेष पैसा उनके हाथ में इस काम के लिए था। राजेन्द्र सिंह के साथ चार और साथी आ जुटे थे, यह थे नरेन्द्र, सतेन्द्र, केदार तथा हनुमान। इन पाँचों लोगों ने तरुण भारत संघ के नाम से एक संस्था बनाई जिसे एक गैर-सरकारी संगठन (एन.जी.ओ) का रूप दिया। दरअसल यह संस्था 1978 में जयपुर यूनिवर्सिटी द्वारा बनाई गई थी, लेकिन सुप्तावस्था में थी। राजेन्द्र सिंह ने उसी को जीवित कर अपना लिया। इस तरह तरुण भारत संघ (TBS) उनकी संस्था हो गई।
देश की जल-परम्परा और यहाँ के जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने में उनके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए साल 2015 में उन्हें स्टॉकहोम जल पुरस्कार मिला, यह ‘पानी के लिए नोबेल पुरस्कार’ के रूप में जाना जाता है। सामुदायिक नेतृत्व के लिए उन्हें 2011 का ‘रेमन मैगसेसे पुरस्कार’ दिया गया था। राजेन्द्र सिंह की जीवन यात्रा पर जीवनी लिखी गई है जो ‘जोहड़’ के नाम से है। उनके जीवन एवं समर्पित जल संरक्षण के प्रयासों की संघर्षगाथा को दस्तावेजी फ़िल्म ‘जलपुरुष की कहानी’ नाम से युवा फ़िल्म निर्माता निर्देशक रवीन्द्र चौहान व सहनिर्देशक कोरियोग्राफर शीलेन्द्र प्रताप सिंह द्वारा निर्मित किया जा रहा है।
– अमरेंद्र किशोर