यात्रा वृत्तांत
जंजैहली से कमरुघाटी तक का खूबसूरत, रोमांचक और श्रद्धा से भरा सफर: पवन चौहान
कौन नहीं चाहता कि प्रकृति की हसीन वादियों में कुछ समय बिताया जाए। फिर वह स्थान ऐसा हो कि जहाँ पर आध्यात्मिक शांति के साथ-साथ प्रकृति के खूबसूरत नजारे और रोमांच एक साथ हों तो सोने पे सुहागा जैसी बात होगी। कुछ ऐसे ही अनुभवों से सराबोर करती है हिमाचल प्रदेश के मण्डी जिले की जंजैहली घाटी। आजकल यह घाटी पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है। जंजैहली घाटी ने देशी व विदेशी पर्यटकों के लिए एक अच्छा खासा प्लेटफार्म तैयार कर लिया है। रोजाना सैकड़ों की तादात में इस घाटी में पर्यटक विचरण करते देखे जा सकते हैं।
जिला मण्डी से जंजैहली बस स्टैंड तक की दूरी लगभग 86 कि.मी. है। किसी भी वाहन अथवा बस द्वारा यहाँ पहुँचा जा सकता है। रास्ते में चैलचैक, काण्ढा, बगस्याड तथा थुनाग आदि छोटे-छोटे स्टेशन आते हैं। जहाँ पर आप रुककर इस घाटी के मनोरम दृश्यों से रु-ब-रु होकर अपनी यात्रा में नया जोश भरते हैं। इन स्टेशनों से आप अपनी जरुरत का सामान भी खरीद सकते हैं। जंजहैली से दो किलोमीटर पीछे पांडवशिला नामक स्थान आता है, जहाँ आप उस भारी भरकम चट्टान के दर्शन कर पाएंगे जो मात्र आपकी हाथ की सबसे छोटी अंगुली से हिलकर आपको अचंभित कर देगी। इस चट्टान को महाभारत के भीम का चुगल (हुक्के की कटोरी में डाला जाने वाला छोटा-सा पत्थर) माना जाता है और इसकी पूजा की जाती है। ढलानदार खेतों में चारों ओर फैली आलू और मटर के खेतों की हरियाली मन को मोह लेती है। जब हम जंजैहली पहुंचते हैं तो हम खुद को एक अलग ही दुनिया में पाते हैं। जंजैहली सुंदर व शहर के शोर-शराबे से दूर एक शांत गांव है। यहाँ सेब, पलम, नाशपाती, खुमानी आदि फलों की सीजन पर भरमार रहती है। जंजैहली बस स्टैंड के साथ ही ढीमकटारु पंचायत की सीमा शुरु हो जाती है। यह पंचायत प्राकृतिक सौंदर्य का एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करती है। यदि आपके पास समय हो तो यहाँ के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अवष्य शामिल होइए। आपकी यात्रा सफल मानी जाएगी। इसी घाटी में अन्य स्थल हैं, जो खूबसूरती और रोमांच से भरे पड़े हैं। इन स्थलों को एक बार देख लेने के पश्चात् ये स्थल आपके मानस-पटल पर प्राकृतिक सौंदर्य का ऐसा अध्याय लिख जाएंगे कि आप ताउम्र इन स्थलों की याद को अपने ज़हन से न उतार पाएंगे।
भुलाह
जंजैहली से 6 कि.मी. की दूरी पर आता है रमणीक स्थल भुलाह। जिसे एक बार देख लें तो भुले से भी न भूले। भुलाह तक पक्की सड़क है। कोई भी बस यहाँ तक ही आती है। भुलाह ट्रैकरों, पर्यटकों व श्रद्धालुओं का पहला पड़ाव स्थल भी माना जा सकता है क्योंकि इसके बाद शिकारी पर्वत की चोटी तक चढ़ाई शुरु हो जाती है। थोड़ा-सा मैदानी होने और चारों ओर से देवदार, बान आदि के पेड़ों से घिरा होने के कारण इस स्थान की सुंदरता देखते ही बनती है। भुलाह की भौगोलिक सरंचना हमें चंबा जिला के खजियार पर्यटन स्थल की याद को जाता कर देती है, जिसे हिमाचल का ‘मिनी स्विट्ज़रलैंड’ के नाम से जाना जाता है। सभी यात्री यहाँ थोड़ी देर रुककर जहाँ इस स्थान को कैमरों में कैद करते हैं, वहीं यहाँ बैठकर चाय-पानी/भोजन का आनंद भी लेते हैं।
बूढ़ा केदार तीर्थ स्थल
इस स्थल के लिए पैदल ही जाना पड़ता है। जंजैहली से ही आप इस रास्ते पर हो लेते हैं। पूरा रास्ता चढ़ाई वाला है। यहाँ पर रहने वाले गुज्जरों के लिए यह रोज का रास्ता है। ये जंजैहली तक दूध, घी व खोया आदि पहुंचाते हैं और बदले में मिलने वाले रुपयों से राशन व जरुरत का अन्य सामान ले जाते हैं। यह गुज्जर समुदाय सर्दी में इन इलाकों को छोड़कर मैदानी इलाकों में अपने पशुओं के साथ चले जाते हैं और गर्मीयों में ये फिर से वापिस अपने-अपने दड़वों को आबाद करते हैं। घाटी में आप जगह-जगह इन दड़वों को निहार सकते हैं। इनकी जीवनशैली हमें इनके कठिन जीवन का अहसास करवाती है। सरकार ने इनके उत्थान के लिए मोबाइल स्कूल भी चलाए हुए हैं, जहाँ इनके बच्चे शिक्षा ग्रहण कर समाज की मुख्य धारा के साथ जुड़ रहे हैं। किवदंती है कि बूढ़ा केदार में भीम से बचने के लिए नंदी बैल एक बड़ी चट्टान में कूदे और सीधे पशुपति नाथ मंदिर पहुंचे थे। चट्टान में आज भी बड़ा-सा सुराख है, जिसके अंदर जाकर पूजा-अर्चना की जाती है। यहाँ साथ ही स्थित छोटे से झरने के नीचे स्नान करना पवित्र माना जाता है। यह स्थल यहाँ के लोगों के साथ-साथ बाहर से पहुँचे लोगों के लिए भी आस्था का केन्द्र है।
शिकारी देवी पर्वत
जंजैहली में इतनी संख्या में पर्यटकों के पहुंचने का प्रमुख कारण यदि माता शिकारी देवी के प्रति अटूट आस्था व भक्ति भावना को माना जाए तो गलत न होगा। परंतु यह बात भी उतनी ही सच है कि इस भक्ति भावना को बल देती है प्राकृतिक सौंदर्य से लबालब यह घाटी। भुलाह से आगे शिकारी देवी मंदिर लगभग 11 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। मंदिर तक सड़क सुविधा है। किसी भी छोटी गाड़ी में आप इस दूरी को तय कर सकते हैं। लेकिन पैदल चला जाए तो आप रोमांच से भर उठेगें। माता शिकारी देवी का मंदिर इस पर्वत पर स्थित होने के कारण इसे शिकारी पर्वत के नाम से भी जाना जाता है। शिकारी मंदिर तक पहुँचने के कई रास्ते हैं। लेकिन जंजैहली से मुख्यतः दो रास्ते मंदिर तक जाते हैं। एक बूढ़ा केदार तीर्थ स्थल से तथा दूसरा वाया भुलाह से होकर। दोनों रास्तों से जाने का अपना ही मजा है। वाया भुलाह से सड़क मार्ग उपलब्ध है जबकि बूढ़ा केदार तीर्थ स्थल से आपको पैदल ही खड़ी चढ़ाई तय करनी पड़ती है। यह मार्ग ट्रैकरों के लिए अति उत्तम है। जंजैहली का ट्रेकिंग हाॅस्टल भी इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
प्राकृतिक नजारों का आनंद लेना हो तोे ऐसी जगहों पर पैदल चलना ही बेहतर होता है। शिकारी देवी पर्वत के लिए आप सड़क के बजाए भुलाह नाले से होते हुए जाएँ तो एक अलग रोमांचकारी अनुभव से सराबोर होंगे। बड़ी-बड़ी चट्टानों से प्रस्फुटित झरने, कल-कल बहते नाले का संगीत और लंबे-लंबे देवदार के वृक्षों से सुसज्जित यह नाला हर किसी को आकर्षित करने में पूर्णतया सक्षम है। नाले वाला रास्ता शोर्टकट है। इस नाले पर एक नई चीज जो पहली बार हमने देखी वह था गहरे भूरे रंग का जंगली घोंघा (स्थानीय लोगों के अनुसार) जो बिल्लकुल ही अलग-सा था। उसकी स्नेल नहीं थी। वह आम व्यक्ति के अंगूठे से भी मोटा और लगभग 6 ईंच लंबा था। इस नाले से आप लड़वहाच होते हुए सीधे सिंगरयाला पहुंचेगे। बुजुर्गों या पैदल न चल सकने वालों के लिए सड़क मार्ग से जाने का भी अपना मजा है। कल्पना लोक-सा शिकारी देवी मंदिर का यह स्थान एक अनोखे एहसास से सराबोर कर देता है। आस-पास की चोटियों से सबसे ऊपर होने के कारण ऐसा लगता है, जैसे हम आकाश में उड़ रहे हों। समुद्रतल से इस स्थान की ऊंचाई 9000 फुट है।
शिकारी देवी मंदिर हिमाचल का एकमात्र ऐसा मंदिर है, जिसकी छत नहीं है। माता अपने ऊपर किसी भी तरह का छत स्वीकार नहीं करती। कहा जाता है कि माता शिकारी देवी का मंदिर पांडवों द्वारा निर्मित है। वनवास काल के दौरान पांडव यहाँ रुके थे। इस स्थान के विषय में एक बात गौर करने योग्य है कि माता की मूर्तियों के ऊपर कभी भी बर्फ नहीं टिकती। चाहे जितनी भी बर्फ क्यों न गिर जाए। दूसरा यदि देवी को काली बकरी की सुखना की जाए तो मीरगी के रोगी पूरी तरह से ठीक हो जाते हैं। पर्यटकों के पड़ाव का यह दूसरा स्थान है। भक्तगण चाहें तो माता के दर्शन के उपरांत यहाँ से वापिस घर भी जा सकते हैं लेकिन प्रकृति प्रेमियों के लिए शिकारी देवी मंदिर के दक्षिण-पश्चिम दिशा में जो सौंदर्य बिखरा पड़ा है, उसे करीब से देखे बगैर जाने का किसी भी सूरत में मन नहीं करेगा।
देवीदहड़
शिकारी देवी मंदिर की दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर जब हम रुख करते हुए उतराई उतरते जाते हैं तो हम उस प्राकृतिक खूबसूरती के और करीब होते जाते हैं। कुछ ही समय में शिकारी देवी मंदिर हमारी आँखों से ओझल हो जाता है। शिकारी मंदिर की इस पथरीली पहाड़ी के पीछे छिपते ही ऐसा लगता है मानो हमने अतीत को पीछे छोड़ वर्तमान में कदम रख दिया हो। इस दुनिया का कुछ सफर हमें घने जंगल और पथरीले रास्ते से रु-ब-रु करवाता है। इस रास्ते पर चलते हुए पश्चिम में नीचे की ओर हमें दीदार होता है एक छोटे से सुंदर इलाके देवीदहड़ का। देवीदहड़ हिमाचल के पर्यटन मानचित्र में अपना एक विशेष स्थान रखता है। प्रकृति प्रेमियों के लिए इस स्थान को देखे बगैर आगे का सफर तय करना बेमानी होगा। इस क्षेत्र का असीम सौंदर्य हमें अपने मोहपाश में बांध देता है। इस इलाके के लोगों की कठिन लेकिन शांत जीवनशैली हमें हर मुश्किल से हंस कर लड़ने की प्रेरणा देती है। यहाँ का पांच पेड़ों का एक पेड़ हमें हैरत में डाल देता है। यहाँ माता मुंडासन का अति सुंदर मंदिर दर्शनीय है। यहाँ ठहरने हेतू आप जंगलात महकमें का विश्राम गृह बुक करवाकर इस वादी को तसल्ली से निहारने का आनंद ले सकते हैं। देवीदहड़ के लिए दूसरा रास्ता वाया तुना, धंग्यारा होकर है, जो चैलचैक से एक किलोमीटर आगे जंजैहली रोड़ से इस दिशा की ओर मुड़ जाता है। इस रास्ते से आप गाड़ी द्वारा यहाँ आराम से पहुंच सकते हैं। गर्मी के मौसम में यहाँ की स्थानीय सब्जी लिंगड़ आपको बहुतायत मात्रा में मिल जाती है, जिसका अपना ही एक ख़ास स्वाद होता है। यहाँ आप लंच जरुर करना चाहेंगे। अपने साथ यहाँ का शीतल जल लेकर फिर आप अपनी आगे की यात्रा के लिए पहाड़ी पर चढ़ना आरंभ कर देते हैं।
कमरुनाग मंदिर व झील
जहाँ से हम देवीदहड़ के लिए नीचे उतरते हैं, वहीं से ही एक रास्ता हमें सीधा कमरुनाग (पांडवों के आराध्य देव) मंदिर तक भी जाता है। वैसे भक्तगणों, पर्यटकों व प्रकृति प्रेमियों के लिए इस रास्ते को तय किए बिना उनकी यात्रा अधूरी ही समझी जाएगी। शिकारी मंदिर से कमरुनाग मंदिर तक का रास्ता तय करने में 7 से 8 घंटे (यदि देवीदहड़ न जाएँ) का समय लग जाता है। इस रास्ते को पैदल ही तय करना पड़ता है। बेहद थका देने वाले इस रोमांचक सफर को हवा के ठंडे झोंके, हर कदम पर दृष्टिगोचर होने वाले खूबसूरत दृश्य हमें सदा ऊर्जायमान रखते हैं।
इसी यात्रा के दौरान सीढ़ीनुमा छोटे-छोटे खेतों के टीले के बिल्लकुल ऊपर छोटी-सी पहाड़ी पर व्यवस्थित घर किसी चित्रकार की कल्पना से उभरी हुई नायाब तस्वीर मालूम पड़ती है। हम अब टाढ़ाबाई गांव के रास्ते पर चल रहे होते हैं क्योंकि यह रास्ता समतल और थोड़ा आरामदायक है। इस यात्रा के दौरान हमें रास्ते में इक्का-दुक्का घर ही रास्ते में मिलते हैं। ये घर पूर्णतया लकड़ी से निर्मित हैं और जो लोग इन जगहों पर बसे हैं उनका मुख्य पेशा भेड़-बकरी पालन है। फसलों में ये मुख्यतः आलू उगाते है। दूसरे अनाज की पैदावार यहाँ बहुत कम है।
अपनी आंखों में ढेर सारा प्राकृतिक सौंदर्य समेट कर, रोमांच से सराबोर होकर, बहुत-सी छोटी-बड़ी पहाडि़यों को लांघकर जब हम कमरुनाग मंदिर पहुँचते हैं तो हमारी सारी थकान जैसे छुमंतर हो जाती है। मंदिर के साथ एक झील भी है, जिसे ‘कमरु झील’ कहा जाता है। इस ऐतिहासिक झील की खास बात यह है कि इस झील में ढेर सारा सोना, चांदी, सिक्के, रुपये समाहित हैं, जो सदियों से चली आ रही परंपरा के चलते असंख्य भक्तगणों द्वारा यहाँ श्रद्धानुसार व मन्नत पूरी होने पर फैंके गए हैं। किवंदतीनुसार कमरुनाग पांडवों के आराध्य देव हैं। वैसे इनका नाम राजा यक्ष था। ये बहुत शक्तिशाली राजा थे। इनकी शक्ति का अंदाजा यहीं से ही लगाया जा सकता था कि जब महाभारत का युद्ध चला था तो इन्होने उस सेना की ओर से लड़ने का ऐलान कर दिया, जो हार रही हो और उसे विजयी बनाने का भी पूरा विश्वास दिया। कौरव हार रहे थे। अतः निश्चित था कि यक्ष कौरवों की ओर से ही लड़ेंगे। कृष्ण भगवान को इनकी शक्ति का एहसास था। धर्म की रक्षा हो सके इसलिए कृष्ण जी ने एक युक्ति द्वारा इनका सर माँग लिया और इन्हे पांडवों का आराध्य देवता मानने का भी वचन दिया। राजा यक्ष ने पूरा युद्ध बांस की नाल के ऊपर अपनी कटी गर्दन रख कर देखा। पांडव जब विजयी हुए और इनकी इच्छा की जगह पर इन्हें स्थापना हेतु लाए तो राजा ने यह जगह चुनी और कहा कि इस जगह से उनका नाता पिछले जन्म से है तब उनका नाम ‘कमरुनाग’ था। उस समय से कमरुनाग इस जगह पर विराजमान हैं और लाखों लोगों की श्रद्धा व आस्था के प्रतीक हैं।
इस ऐतिहासिक मंदिर व सरोवर के दर्शनों के पश्चात् आप चाहें तो यात्रा जारी रख सकते हैं और यदि सरायों में रुकना चाहें तो यहाँ ठहर भी सकते हैं। 7-8 घंटे का लंबा पैदल सफर तय करने के उपरांत आप अब सड़क मार्ग से सिर्फ 6 कि.मी. की दूरी पर होते हैं। अब हम जंजैहली की पश्चिम दिशा की तरफ इसके दूसरे छोर अर्थात सुन्दरनगर की ओर होते हैं। यह 6 कि.मी. का पूरा रास्ता ही उतराई वाला है। इस उतराई को उतर कर हम पहुंचते है रोहांडा। रोहांडा में एक छोटा-सा बस स्टेशन है, जो सुन्दरनगर-करसोग मार्ग में स्थित है। इस मार्ग द्वारा करसोग, शिमला, काजा, किन्नौर भी जाया जा सकता है। यहाँ से चण्डीगढ़-मनाली राष्ट्रीय उच्चमार्ग-21 मात्र 35 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। रोहांडा एक छोटा-सा बस स्टेशन है। यहाँ से जरुरत की हर वस्तु खरीदी जा सकती है। रोहांडा से बस, जीप व अन्य वाहन द्वारा राष्ट्रीय उच्चमार्ग-21 तक आराम से पहुँचा जा सकता है।
यहाँ पर हमारी यह धार्मिक व रोमांचक यात्रा संपन्न हो जाती है और हम एक बार फिर जुड़ जाते हैं उन काली रेखाओं के साथ जहाँ हम फिर से दौड़ पड़ते हैं अपने सुनहरे भविष्य की खोज में उसी रफ्तार से। लेकिन इसके बावजूद कुछ समय के लिए प्रकृति के करीब रहकर प्रकृति की गोद में बिताया गया यह रोमांचकारी सफर हमारे मानस-पटल पर सदा एक खूबसूरत याद बनकर महकता रहता है और हमें नयी ताजगी तथा प्राकृतिक सौंदर्य की अनुभूति से हमेशा लबालब रखता है।
सही समय
वैसे गर्मी का मौसम जंजैहली घाटी को निहारने के लिए अतिउत्तम है। लेकिन आप अप्रैल से अक्तूबर (बर्फ गिरने से पहले) अंत तक इस वादी में विचरण कर सकते हैं।
कैसे पहुँचे
चण्डीगढ़-मनाली राष्ट्रीय उच्च मार्ग-21 या फिर पठानकोट-जोगिन्द्रनगर मार्ग द्वारा सुन्दरनगर या फिर मण्डी पहुंचकर यहाँ से आगे जंजैहली के लिए (86 कि.मी.) बस या किराए पर गाड़ी ले सकते हैं। एक अन्य रास्ता मण्डी से ही वाया पण्डोह, बाड़ा, कांढा होकर (76 कि.मी.) भी है जो पहले रास्ते से लगभग 10 कि.मी. छोटा है लेकिन यह पहले वाले रास्ते से थोड़ा तंग है। इस मार्ग से आप व्यास नदी पर बने पण्डोह डैम की खुबसूरती का मजा ले सकते हैं। हवाई मार्ग से भी जंजैहली पहुंचा जा सकता है लेकिन इसके लिए पहले आपको एयरपोर्ट भुंतर (कुल्लू) जाना पड़ेगा फिर वापिस मण्डी की ओर आना पड़ेगा।
कहां ठहरें
जंजैहली में लोक निर्माण विभाग, जंगलात महकमे का रेस्ट हाऊस तथा अन्य निजी होटल व सराएँ हैं, जिनके चार्जेज ज्यादा नहीं हैं और हर तरह की सुविधा से संपन्न हैं। आप इनमें सहज महसूस करेंगे।
तो फिर देर किस बात की है। आइए चलें, दुनिया के शोर-शराबे से दूर जंजैहली घाटी की वादियों में, दो पल सुकून के बिताने।
– पवन चौहान