जैसा कि होता आया है, किसानों की कर्जमाफ़ी पर भी राजनीतिक रोटियाँ सिकने लगी हैं। सत्ता हो या विपक्ष, ये अच्छे-बुरे हर अवसर का लाभ लेने से कभी नहीं चूकते। व्रत, उपवास, धरना….सब इन्हें तो लाइमलाइट में ले आते हैं पर समस्या फिर भी अंधकार के गर्त में डूबी, प्रकाश की प्रतीक्षा में वर्षों कराहती है। नेताओं के इस कृत्य में वैसे भी संवेदनशीलता के प्रमाण से कहीं ज्यादा वोट लोलुपता दिखाई देती है। देश की आबादी का एक हिस्सा भी भूखा ही सोता है, उससे इनकी समस्याओं का हल निकलते देखा है कभी! नेताओं के इस ढोंग रचने और व्यवस्था के नाम पर जो करोड़ों रुपये आनन-फ़ानन में नष्ट कर दिए जाते हैं, उनके उचित प्रयोग से कई कृषक परिवार लाभान्वित हो सकते हैं। इसलिए बेहतर होगा कि ऊर्जा के क्षीण होने की बजाय उसे संचयित कर, कुछ सकारात्मक हल निकाला जाए।
एक किसान का कहना था कि “जब फ़सल अच्छी नहीं होती, वह समय तो बुरा होता ही है पर जिस वर्ष बम्पर फ़सल होती है तब भी यही परिस्थिति रहती है क्योंकि दाम इतने गिर जाते हैं कि मुनाफ़ा न के बराबर होता है। कई बार तो माल भेजने की लागत भी नहीं निकलती और फ़सल को सड़ने के लिए छोड़ना पड़ता है।” उसका यह भी कहना था कि “हर क्षेत्र में अधिक उत्पादन होने से उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ती है और विक्रेता मालामाल हो जाता है। मात्र कृषि ही ऐसा है, जहाँ अच्छा होने पर भी ख़ुशी नहीं मना सकते।” अब इससे अधिक दुर्भाग्य और क्या होगा!
हाँ, आत्महत्या करना किसी बात का हल नहीं! बल्कि यह पलायनवादी प्रवृत्ति का द्योतक है। मुसीबत से जमकर टक्कर लेते हुए ही उसे भगाना संभव है। भाग जाने पर तो वो वहीं की वहीं खड़ी रह और भी विकराल रूप धारण कर लेती है।
ख़ैर, फ़िलहाल आशा ही की जा सकती है कि सरकार बिचौलियों को हटाकर, किसान को उसकी फ़सल का सही मूल्य दिलाने के प्रयास अवश्य करेगी। सरकारें कितनी ही आती-जाती रहें, जनता का भरोसा कभी नहीं छूटता; ये प्रजातंत्र की सबसे ख़ूबसूरत बात लगती है पर दरअस्ल होती मजबूरी ही है।
परीक्षा, परिणाम और प्रावीण्य-सूची के मामलों ने इस बार भी ख़ूब सुर्ख़ियां बटोरीं। यह कह देना अत्यन्त ही सरल है कि विद्यार्थियों पर किसी तरह का कोई मानसिक दबाव नहीं होना चाहिए और न ही माता-पिता को उनसे ज्यादा अपेक्षा रखनी चाहिए। पर होता इसके ठीक उलट ही है। कुशाग्र बुद्धि वाले बच्चों को इस तरह की परेशानी उतनी नहीं झेलनी पड़ती क्योंकि उनमें आत्मविश्वास भरपूर होता है। पर औसत अंक लाने वाले क्या करें जब वो नब्बे प्रतिशत से अधिक अंक लाने वाले को भी भटकते देखते हैं? क्यों न होगा उन्हें और उनके माता-पिता को तनाव! जब बारहवीं के अंक ही उन्हें अच्छे विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार तक पहुँचा सकते हैं? माता-पिता इतना अवश्य कर सकते हैं कि अपने बच्चों को उनकी रुचि के अनुसार विषय चुनने दें पर अंक तो फिर भी उत्तम ही लाने होंगे क्योंकि हमारी शिक्षा-प्रणाली ही ऐसी है कि यहाँ योग्यता, प्रतिशत से आंकी जाती है। यदि ऐसी व्यवस्था कर दी जाए कि प्रत्येक छात्र अपने मनचाहे विषय में स्नातक/स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर सकता है तो उन्हें भी मानसिक राहत मिलेगी और उनके परिवार को भी। बल्कि परिणाम भी पहले से कहीं बेहतर आएंगे!
एक औसत मध्यमवर्गीय परिवार के पास विरासत में देने को कुछ नहीं होता और उस पर यदि वह सामान्य वर्ग का है तो ‘करेला नीम चढ़ा’, वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए उसकी चिंता स्वाभाविक है। ऐसे में वो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए उत्तम विद्यालय में प्रवेश के लिए और उनके अच्छे अंक सुनिश्चित करने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर कमाता है ताकि यह पैसा उनकी पढ़ाई में काम आ सके। तनाव और शिक्षा और भविष्य, बच्चे के स्कूली दिनों से ही माता-पिता के मस्तिष्क में घर कर लेते हैं। सोचना यह होगा कि बदलना किसे चाहिए? चिंतित मन, शिक्षा या व्यवस्था?
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चलते-चलते: ‘हस्ताक्षर’ का यह अंक ‘शोधपत्र विशेष’ है। जिसमें ‘हिन्दी का कृष्ण भक्ति काव्य और आधुनिकता की अवधारणा’ विषय पर लिखित चालीस पत्र सम्मिलित किये गए हैं। इन शोधपत्रों का चयन कनोडिया पी.जी. महिला महाविद्यालय, जयपुर की हिन्दी विभाग, व्याख्याता डॉ. सीता शर्मा ‘शीताभ’ द्वारा किया गया है। इस खण्ड की ‘अतिथि संपादक’ का दायित्व उन्होंने पूर्ण रुचि एवं तत्परता के साथ निभाया है, इसके लिए ‘हस्ताक्षर परिवार’ सीता जी का हार्दिक स्वागत एवं अभिनन्दन करता है। आशा है, हमारे पाठकों को भी उनका एवं पत्रिका का यह साझा प्रयास पसंद आएगा एवं इससे लाभान्वित हो सकेंगे।