अच्छा भी होता है
जहाँ जीवन की विषमताओं, समाज की कुरीतियों, व्यर्थ के दंगे-फ़साद, न्याय-अन्याय की लड़ाई, अपने-पराये, रिश्ते-नाते, ईर्ष्या, अहंकार और ऐसी ही तमाम विसंगतियों में उलझकर जीना दुरूह होता जा रहा है, वहीं कुछ ऐसे पल, ऐसे लोग अचानक से आकर आपका दामन थाम लेते हैं कि आप अपनी सारी नकारात्मकता त्याग पुन: आशावादी सोच की ओर उन्मुख हो उठते हैं। बस, इसी सोच को सलामी देने के लिए हमारे इस स्तंभ ‘अच्छा’ भी होता है!, की परिकल्पना की गई है, इसमें आप अपने साथ या अपने आसपास घटित ऐसी घटनाओं को शब्दों में पिरोकर हमारे पाठकों की इस सोच को क़ायम रखने में सहायता कर सकते हैं कि दुनिया में लाख बुराइयाँ सही, पर यहाँ ‘अच्छा’ भी होता है! – संपादक
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चौका-बर्तन से ओलंपिक तक…सलाम, रेणुका!
वह जब भी साइकिल में दूध के डिब्बे लेकर लोगों के घरों में पहुंचाने जाती, अक्सर देर से पहुंचती थी, वजह थी, दूध लेने वाले ग्राहक और उसके घर के बीच में पड़ने वाला एक मैदान। मैदान में वह लोगों को हाथों में हॉकी स्टिक लेकर दौड़ते देखती तो बस, दूध पहुंचाना भूलकर इसी में रम जाती थी। इसके बाद उसे घर में डांट भी खानी पड़ती थी। एक दिन उसने हिम्मत की और मैदान के भीतर पहुंच गई। करीब दस साल पुरानी बात है यह। इसके बाद उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। हाथों में हॉकी स्टिक थामते ही उस लड़की ने मैदान में सबको छकाना शुरू कर दिया। हॉकी लेकर जब वह गेंद को लेकर भागती तो उसका मुकाबला करने में अच्छे-अच्छों के पसीने छूट जाते।
यह कोई कहानी नहीं, हकीकत है और इस हकीकत घटना की नायिका है रेणुका यादव। छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव शहर में एक बेहद गरीब परिवार में पैदा हुई रेणुका अब अपने शहर से निकलकर ओलंपिक में देश का प्रतिनिधित्व करने रियो पहुंच गई हैं। राजनांदगांव के हमालपारा की रहने वाले, गाय का दूध बेचकर घर चलाने वाले मोतीलाल यादव की बेटी रेणुका ब्राजील के रियो-डि-जेनेरियो में ओलंपिक में महिला हॉकी टीम में मिड-फिल्डर के रूप में खेलेंगी।
संघर्ष से मिली सफलता वाकई ग़ज़ब की होती है। दूध बेचकर और लोगों के घरों में अपनी माँ के साथ झाड़ू-पोंछे में हाथ बंटाने वाली रेणुका के हाथों को शायद इसी हॉकी स्टिक का इंतजार था। सरकारी स्कूल में पढ़ने वाली रेणुका के खेल शिक्षक भूषण साव बताते हैं कि मैदान में रेणुका लड़कों के साथ भी खेलती थी और जब गेंद रेणुका के हॉकी स्टिक के संपर्क में आती थी तो उससे गेंद गोल पोस्ट के पास ही जाकर छूटती थी।
पहली से लेकर आठवीं तक की पढ़ाई एक खपरैल वाले सरकारी स्कूल में करने वाली रेणुका के हाथों में हॉकी का स्टिक आया और उसने इसे ही अपना लक्ष्य बना लिया। मैदान में हॉकी स्टिक से ऐसा कमाल दिखाया कि इसी के दम पर उसने एक लम्बी छलांग लगाई और वह हॉकी अकादमी ग्वालियर पहुंच गई। रेणुका ने अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को सुधारने हॉकी के माध्यम से नौकरी पाने का लक्ष्य रखा। इस लक्ष्य के साथ वह बेहतर पर बेहतर करती चली गई और इसका परिणाम उसे यह मिला कि वह कई अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं से होते हुए अब ओलंपिक तक पहुंच गई है।
ओलंपिक में दखल देने वाली राजनांदगांव की रेणुका यादव छत्तीसगढ़ की पहली महिला खिलाड़ी है। पिता मोतीलाल यादव दूध बेचते हैं। माँ कांति बाई आसपास के घरों में चौका-बर्तन करती है। परिवार में एक बड़ी बहन व एक छोटा भाई है। शुरू में माँ कांति बाई रेणुका को हॉकी खेलने से मना करती थीं। कहती थीं कि यह लड़कों का खेल है। इसमें अपना समय ज़ाया मत करो। चूल्हा चौका का काम सीखो। लेकिन अब रेणुका की इस कामयाबी पर उसकी माँ फूली नहीं समाती है।
रेणुका की यह बड़ी उपलब्धि, उसकी अपनी हासिल की हुई है। दुर्भाग्य यह है कि राजनांदगांव के विधायक, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हैं लेकिन उसे राज्य सरकार से किसी तरह की कोई आर्थिक मदद नहीं मिली। अलबत्ता मध्यप्रदेश की ग्वालियर अकादमी ने रेणुका के खेल को निखारने का काम किया। रेणुका के ओलंपिक में चयन के बाद अब जाकर सरकार की आंखें खुली हैं और छत्तीसगढ़ सरकार के मुखिया डॉ. रमन सिंह ने उन्हें दस लाख रूपए देने की घोषणा की है।
– अतुल श्रीवास्तव