उभरते स्वर
चलो, करते हैं पूरा आज इनको ही
ये क्षण भी वही हैं
बीत चुकें होंगें पहले कभी
ये एहसास भी वही हैं
महसूस किए होंगें पहले भी
ये तर्क भी वही हैं
उलझें होंगें कभी ऐसे ही
ये मौसम भी वही हैं
कभी गुजरें होंगें इनसे भी
और
ये शब्द भी वही हैं
चलो करते हैं पूरा आज इनको ही
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दर्द-बीज
हमसे कहा गया
जहाँ तक हो सके चुप रहो
उफ्फ तक मत करो
और एक दिन
ख़त्म हो जाएगा ये दर्द भी
ऐसा ही किया
दर्द बढ़ता गया
और एक दिन
ये मन हो गया
दर्दमय
सुनो!
भीतर ही भीतर दबें रहेंगें जब तक
ये बीज
कभी न कभी तो उपजेंगें ही न!
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मेरे शब्दों की चाहत
मैंने कभी नहीं चाहा
सिर्फ कवि होना
कि घेर लूँ कुछ जगह
अख़बारों में,
कि मिल जाएँ कुछ पन्ने
किताबों में,
कि बटोर लूँ बिकाऊ
सर्टिफिकेट,
या खो जाऊँ शोर में
तालियों के
सिर्फ चाहती हूँ इतना
कि पहचान लो मुझको
मेरे ही शब्दों से
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वो अधूरी कविताएँ
छू लिया था बहुत गहरे से
मन को
मन ने,
भावों को
अर्थ ने,
स्पर्श को
स्पर्श ने,
मौन को
नि:शब्द ने,
छूट गया था
फिर भी कहीं कुछ,
नहीं मिल रहे वो ‘शब्द’
लिखनी हैं जिनसे
वो अधूरी कविताएँ
– नमिता गुप्ता