आलेख/विमर्श
चम्पारण सत्याग्रह: मोहनदास से महात्मा तक की यात्रा
– नीरज कृष्ण
गाँधीजी के अस्त्र अहिंसा का प्रयोग वही कर सकता है, जो निर्भय हो। निस्वार्थ हो। गाँधी ने चम्पारण में अपने उदाहरण से ये दोनों बातें स्थापित कीं और फिर तो देर न लगी। जिस देश में लोग लाल टोपी वाले को देखकर डर जाते थे, उसी चम्पारण में अपने करिश्माई सत्याग्रह के अभिनव प्रयोग से गाँधी जी ने चम्पारण के लोगों के मस्तिष्क से ब्रिटिश हुकूमत का खौफ़ ख़त्म कर दिया और मोहनदास से ‘महात्मा’ बन गये।
यदि मुझसे पूछा जाये कि इस देश में पिछले 73 वर्षों में किसे सबसे कम समझा गया तो मेरा उत्तर निश्चित ही होगा- ‘महात्मा गाँधी’। गाँधीजी के 150वें जन्मदिन के अवसर पर चम्पारण सत्याग्रह को याद करना आज भी प्रासंगिक है? यह एक महत्वपूर्ण और संवेदनशील प्रश्न है और आज भी चम्पारण सत्याग्रह को ठीक-ठीक समझ लिया गया हो, यह दावा करना कठिन है। चम्पारण सत्याग्रह सतही तौर पर देखने में एक प्रकार से स्थानीय किसानों की समस्या से निपटना था। कई बार ज्यादा बारीकी से गौर करने पर यह सांस्कृतिक और राजनैतिक सवाल भी लगता है- बल्कि सांस्कृतिक अपमान, बदहाली, पिछड़े वर्गों समेत कमजोर लोगों की दुर्गति के सवाल पर तो अभी तक ध्यान ही नहीं गया है। फिर यह एक राष्ट्रीय राजनैतिक आंदोलन तो था ही।
गाँधीजी ने चम्पारण आन्दोलन को कभी परिभाषित करने की कोशिश नहीं की। अपनी आत्मकथा में गाँधीजी चम्पारण आन्दोलन की चर्चा तो अवश्य करते हैं, पर आंदोलन की व्याख्या या समीक्षा की कोशिश उन्होंने नहीं की है। सन् 1942 में जब लुई फिशर ने उनसे कई दिन तक चला लंबा इंटरव्यू लिया तब उन्होंने इतना ही कहा कि चम्पारण के लोगों के कष्ट देखने के बाद मुझे पहली बार लगा कि ‘अंग्रेजों को भारत से निकाले बगैर काम नही चलेगा’।
दक्षिण अफ्रीका में भारतीय नागरिकों के सम्मान के लिए सफल संघर्ष करने के उपरान्त गाँधीजी 9 जनवरी 1915 को बम्बई के अपोलो बन्दरगाह पर उतरे तो उनके स्वागत में हजारों लोग खड़े थे। गाँधीजी ने उपस्थित लोगों को संबोधित करते हुए कहा- “आप लोगों ने मेरा जो प्रेमपूर्वक और हार्दिक स्वागत किया, उससे हमारी खुशी और भी बढ़ गई है- अभिभूत हो गया हूँ। मैं चाहता हूँ कि भविष्य में मैं अपने व्यवहार से इस स्वागत की अपनी पात्रता सिद्ध कर सकूँ। मैं भारत में स्थायी रूप से रहने के इरादे से आया हूँ और यदि परिस्थितियों ने मजबूर नहीं कर दिया, तो मैं दक्षिण अफ्रीका वापस नहीं जाऊँगा। मैं नहीं जानता कि मैं यहाँ क्या करूँगा किन्तु मेरी सेवाएँ श्री गोखले के सुपुर्द हैं। श्री गोखले ने मुझे यहाँ एक प्रेक्षक और विद्यार्थी के रूप में कुछ समय व्यतीत करना चाहिए। मैंने ऐसा करने का वचन दिया है और मैं आशा करता हूँ कि मैं इस वचन को निभा सकूँगा।”
14 जनवरी 1915 को ‘गुर्जर-सभा’ द्वारा मंगलदास भवन के प्रांगण स्वागत समारोह का आयोजन हुआ, जिसकी अध्यक्षता मुहम्मद अली जिन्ना कर रहे थे और यहीं पर कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी भी उपस्थित थे। समारोह में सभी वक्ताओं ने अपना भाषण अंग्रेजी में दिया था, परन्तु गाँधीजी ने आभार प्रकट करने के लिए गुजराती भाषा का चयन किया। उन्होंने गुजराती और हिन्दी भाषा के उपयोग पर जोर दिया और गुजराती सभा में अंग्रेजी के उपयोग के विरुद्ध अपना नम्र विरोध प्रकट किया। गाँधीजी का भारत लौटने पर यह पहला ‘सत्य-आग्रह’ था।
17 जनवरी 1915 को राजकोट में अभिनंदन समारोह में आभार प्रकट करते हुए गाँधीजी ने कहा- “…. हम अपनी सेवाएँ इस देश के लिए अर्पित करते हैं और घोषणा करते हैं कि यदि अपने कर्तव्य पालन के लिए हम निरन्तर उत्सुक बने रहे तो हम राजकोट के सपूत हैं और यदि उससे पीछे हटे तो कपूत हैं”।
बम्बई से राजकोट जाते समय रास्ते में वीरगाम स्टेशन पर वीरगाम के समाजसेवी दर्जी मोतीलाल गाँधीजी से मिलने आये थे। उन्होंने गाँधीजी से वढ़वाण स्टेशन पर चुंगी संबंधी शिकायत की थी। गाँधी जी ने अपने स्तर से इसकी जाँच पड़ताल की। पोरबन्दर में भी इसकी शिकायत उन्हें मिली। गाँधीजी ने इसकी शिकायत लिखकर बम्बई के गवर्नर को भेजी। बाद में स्वयं मिलने गये। परन्तु कोई निष्कर्ष नहीं निकला। बम्बई के गवर्नर ने उन्हें दिल्ली में यह बात उठाने की सलाह दी।
इस बीच समाजसेवी मोतीलाल जी का निधन हो गया। गाँधीजी चुंगी की शिकायत नहीं भूले थे। दिल्ली में केन्द्र सरकार से लगातार पत्र-व्यवहार करते रहे। दो वर्ष बाद लार्ड चम्सफोर्ड से मिलने का मौका गाँधीजी को मिला। गाँधीजी ने वढ़वाण की चुंगी संबंधी शिकायत की याद दिलाई। लार्ड चम्सफोर्ड ने आश्वासन दिया कि यदि शिकायत सही पायी गयी तो तुरंत कार्रवाई करेंगे। कुछ दिनों बाद वढ़वाण से चुंगी उठा ली गई। गाँधीजी ने इस जीत को ‘सत्याग्रह की जीत’ कहा था।
इस घटना के दो वर्ष पूर्व जब बम्बई सरकार के सेक्रेटरी ने गाँधीजी के सत्याग्रह करने की बात कहने पर आपत्ति की थी और कहा था कि गाँधीजी आप सरकार को धमकी दे रहे हैं। शक्तिशाली सरकार धमकियों की परवाह नहीं करती है। तब गाँधीजी ने कहा था- “यह धमकी नहीं है। यह लोकशिक्षा है। अंग्रेजी सरकार शक्तिशाली है, पर इस विषय में भी मुझे कोई संदेह नहीं कि ‘सत्याग्रह’ सर्वोपरि अस्त्र है।
चम्पारण सत्याग्रह
चम्पारण सत्याग्रह की घटना का जीवन्त वर्णन राजेन्द्र बाबू ने अपनी पुस्तक ‘चम्पारण में महात्मा गाँधी’ में किया है। 1916 के लखनऊ कांग्रेस में चम्पारण के रैयतों ने अपना प्रतिनिधि बनाकर राजकुमार शुक्ल को भेजा था। राजकमार शुक्ल ने गाँधीजी को चम्पारण का हाल सुनाकर उन्हें वहाँ आने का निमंत्रण दिया, जिसे गाँधीजी ने स्वीकार कर लिया था। बाद में गाँधी जी को याद दिलाने के लिए राजकुमार शुक्ल ने एक मार्मिक पत्र बेतिया से लिखा था।
राजकुमार शुक्ल का गाँधी जी का पत्र
बेतिया
ता. 27 .02 .1917
मान्यवर महात्मा,
किस्से सुनते हो रोज़ औरों के
आज मेरी भी दास्तान सुनो।
आपने उस अनहोनी को प्रत्यक्ष कर कार्यरूप में परिणत कर दिखलाया, जिसे टालस्टाय जैसे महात्मा केवल विचार करते थे। इसी आशा और विश्वास के वशीभूत होकर हम आपके निकट अपनी राम-कहानी सुनाने को तैयार हैं। हमारी दु:खभरी कथा उस दक्षिण अफ्रीका के अत्याचार से- जो आप और आपके अनुयायी वीर सत्याग्रही बहनों और भाइयों के साथ हुआ- कहीं अधिक है। हम अपना वह दुःख- जो हमारी 19 लाख आत्माओं के हृदय पर बीत रहा है- सुनाकर आपके कोमल हृदय को दुःखित करना उचित नहीं समझते। बस, केवल इतनी ही प्रार्थना है कि आप स्वयं आकर अपनी आँखों से देख लीजिए, तब आपको अच्छी तरह विश्वास हो जायेगा कि भारतवर्ष के एक कोने में यहाँ की प्रजा, जिसको ब्रिटिश छत्र की सुशीतल छाया में रहने का अभिमान प्राप्त है- किस प्रकार के कष्ट सहकर पशुवत् जीवन व्यतीत कर रही है। हम और अधिक न लिखकर आपका ध्यान उस प्रतिज्ञा की ओर आकृष्ट करना चाहते हैं, जो लखनऊ कांग्रेस के समय और फिर वहाँ से लौटते समय कानपुर में आपने की थी कि मैं मार्च-अप्रैल महीने में चम्पारण आऊँगा। बस, अब समय आ गया है। श्रीमान्, अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करें। चम्पारण की 19 लाख दु:खी प्रजा श्रीमान् के चरण कमल के दर्शन के लिए टकटकी लगाये बैठी है। और उन्हें आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि जिस प्रकार भगवान श्री रामचन्द्र जी के चरण स्पर्श से अहिल्या तर गयी, उसी प्रकार श्रीमान् के चम्पारण में पैर रखते ही हम 19 लाख प्राणियों का उद्धार हो जायेगा।
श्रीमान् का दर्शनाभिलाषी
राजकुमार शुक्ल
गाँधीजी और राजकुमार शुक्ल 10 अप्रैल 1917 को पटना पहुँचे थे। राजकुमार शुक्ल जी गाँधीजी को कलकत्ता से लेकर यहाँ पहुँचे थे। पटना में राजेन्द्र बाबू के घर पर ले गये। राजेन्द्र बाब पटना में नहीं थे। उनके नौकर ने महात्मा गाँधी को साधारण जन समझकर बहुत ही सामान्य व्यवहार किया। बाद में मजहरूल हक़ साहब को इसकी जानकारी मिली तो वह गाँधीजी को अपने घर ले गये। उसी दिन रात में गाँधीजी राजकुमार शुक्ल के साथ मुजफ्फरपुर चले गये। वहाँ जे० वी० कृपलानी की गाँधीजी से पहली मुलाकात हुयी।
मुजफ्फरपुर पहुँचकर गाँधीजी ने तिरहुत के कमिश्नर को पत्र लिखा और अपने आने का कारण बतलाया।
कमिश्नर को गाँधी जी का पत्र
मुजफ्फरपुर
श्री एल०एफ० मौर्शड अप्रैल 12, 1917
कमिश्नर
तिरहुत डिवीजन
मार्फत- बाबू गया प्रसाद सिंह
प्रिय महोदय,
नील की खेती करने वाले हिंदुस्तानियों के विषय में बहुत-सी बातें सुनकर, जहाँ तक संभव हो, मैं उनकी असली हालत का पता लगाने के लिये यहाँ आया हूँ। मैं इस काम को स्थानीय सरकारी कर्मचारियों की जानकारी तथा सहयोग से, यदि मिल सके तो करना चाहता हूँ ताकि मैं इस जाँच के विषय में अपने विचार आपके सामने प्रस्तुत कर सकूँ और जान सकूँ कि स्थानीय सरकारी कर्मचारियों से मुझे अपने कार्य में कोई सहायता मिल सकती है या नहीं ।
आपका विश्वस्त
मो.क. गाँधी
परन्तु कमिश्नर से वैसा सहयोग नहीं मिला, जैसा गाँधीजी ने अनुरोध किया था। गाँधीजी को समझते देर न लगी कि अब उनकी गिरफ्तारी की स्थिति में प्रशासन द्वारा क्या किया जाएगा, इस पर विचार करने लगे। तब तक ब्रजकिशोर बाबू, रामनवमी बाबू, राजेन्द्र प्रसाद आदि लोग वहाँ पहुँच चुके थे। एंडयूज को भी चम्पारण आने के लिये गाँधीजी ने पत्र लिखा।
15 अप्रैल 1917 को गाँधीजी चम्पारण पहुँचे। 16 अप्रैल को चम्पारण के एक गाँव जसवली पट्टी जाने की तैयारी हई। यह यात्रा हाथी की सवारी से शुरू हुई। राजेन्द्र बाबू ने उस समय का वर्णन करते हुए लिखा है “यह रवानगी हाथी की सवारी से हुई। सुबह 9 बजे वैशाख का महीना था, धूप कड़ी थी। पछवां हवा भी खूब जोरों से बह रही थी। बाहर निकलते देह झुलस जाती थी। गाँधीजी को हाथी पर सवारी का अभ्यास भी नहीं था। महात्मा के हृदय में रैयतों के दुखों को दूर करने की धुन थी। ऐसे में धूप और धूल क्या कर सकती थी।”
इस यात्रा के रास्ते में ही गाँधीजी को कलक्टर साहब का सलाम सादे लिबास में एक दारोगा सुनाता है। गाँधीजी अपने सहयोगियों को आगे जाने की सलाह देकर स्वयं दारोगा के साथ हो लेते हैं। पहले बैलगाड़ी फिर इक्के की सवारी और रास्ते में डिप्टी सुपरिटेंडेंट से मुलाकात होती है। टमटम लेकर आये थे वह साहब। उसी पर गाँधीजी को बैठा लेते हैं। तभी गाँधीजी को जिला मजिस्ट्रेट का नोटिस देते हैं, जिसमें लिखा था- “आपकी उपस्थिति से इस जिले में शांति भंग और प्राण हानि का डर है, इसलिए आपको हुक्म दिया जाता है कि आप पहली गाड़ी से चम्पारण छोड़कर चले जाइये।” गाँधीजी ने नोटिस को शांत भाव से पढ़ा। गाँधी जी ने इसके जवाब में जिला मजिस्ट्रेट को लिखा-
“महोदय, धारा 188 के नोटिस के उत्तर में मुझे यही निवेदन करना है कि मुझे इस बात का खेद है कि आपको इस नोटिस को जारी करने की जरूरत पड़ी है। मुझे इस बात का भी खेद है कि डिविजन के कमिश्नर ने मेरी स्थिति को बिल्कुल गलत समझा है। सर्वसाधारण के प्रति जो मेरा कर्तव्य है, उसका ध्यान रखते हए मैं इस जिले को छोड़ नहीं सकता हूँ पर यदि कर्मचारियों की ऐसी राय है तो आज्ञा के उल्लंघन करने के लिये जो दंड हो, उसे सहन करने के लिए तैयार हूँ। कमिश्नर की इस बात का कि मेरा उद्देश्य आंदोलन मचाना है, मैं घोर विरोध करता हूँ। मेरी इच्छा केवल असल बात जानने की है और जब तक मैं स्वतंत्र रहूँगा, इस इच्छा को पूरा करता ही जाऊँगा।”
गाँधी जी ने चम्पारण छोड़ने के जिला मजिस्ट्रेट के आदेश को नहीं माना। फिर भी शाम तक जब कोई सम्मन आज्ञा भंग के लिए नहीं मिला तो गाँधीजी ने अपनी अगली यात्रा की जानकारी जिला मजिस्ट्रेट को भेजी। पत्र में गाँधीजी ने छुप-छुपकर पुलिस वालों को पीछा करने की शिकायत की और कहा कि मैं अपना आंदोलन प्रकट रूप में करना चाहता हूँ, इसीलिए पुलिस वाले मेरे साथ प्रकट रूप में रहें, मैं उनका स्वागत करूँगा।
चम्पारण के जिला मजिस्ट्रेट को पत्र
जिला मजिस्ट्रेट अप्रैल 17, 1917
मोतिहारी मोतिहारी
महोदय,
चूंकि अधिकारियों को सूचित किये बिना मैं कोई काम नहीं करना चाहता, इसलिए आपको इत्तला दे रहा हूँ कि अगर मुझ पर कल अदालत में हाजिर होने के लिए सम्मन जारी न हुआ तो मैं कल सुबल शामपुर तथा उसके समीपवर्ती गाँवों में जा रहा हूँ। हम लोग 3 बजे प्रातः काल चल देंगे। कल मेरे देखने में यह आया कि हम लोगों के पीछे-पीछे पुलिस अधिकारी लगातार चल रहा था। मैं निवेदन करना चाहता हूँ कि हम लोग अपना सारा काम बिल्कुल प्रकट रूप से करना चाहते हैं और इसलिए मैं अपनी तथा अपने साथियों की ओर से कहना चाहता हूँ कि वैसे तो हम अपने कामों में पुलिसवालों की सहायता तक की इच्छा रखते हैं। किन्तु वह संभव न हो तो हम अपना काम करते समय उनकी उपस्थिति का स्वागत तो करेंगे ही।
आपका आज्ञाकारी सेवक
मो. क. गाँधी
इसके उपरान्त जिला मजिस्ट्रेट ने गाँधीजी को उन पर धारा 188 का अभियोग चलाने की सूचना भेजी। कुछ देर बाद सम्मन भी आया। 18 अप्रैल 1917 को सब डिविजनल अफसर की कचहरी में उपस्थित होने की आज्ञा दी।
इस अवसर का वर्णन करते हुए राजेन्द्र बाबू लिखते हैं- “ता. 18 अप्रैल 1917 चम्पारण के इतिहास में ही नहीं वरन् भारतवर्ष के वर्तमान इतिहास में एक बड़े महत्त्व का दिन है। आज जगत विख्यात सर्वश्रेष्ठ न्यायकारी एवं प्रतापी राजर्षि राजा जनक के देश में आकर यहाँ की दरिद्र एवं दुखी प्रजा के हित के लिये महात्मा गाँधी जेल जाने की तैयारी कर रहे हैं।”
18 अप्रैल को गाँधी निश्चित समय पर कोर्ट पहुंचे। जब महात्मा जी से हाकिम ने पूछा- “आपके कोई वकील हैं?”
महात्मा जी ने उत्तर दिया- “कोई नहीं।”
सरकारी वकील ने अपना अभियोग पत्र पढ़ा। गाँधीजी ने कहा- मैंने आज्ञा भंग करने का कारण जिला अधिकारी को भेज दिया था। उस पत्र को इसमें शामिल कर लिया जाय। मजिस्ट्रेट ने कहा कि वह पत्र यहाँ नहीं है। आप आवेदन दीजिए। कोर्ट में गाँधीजी ने बयान इस प्रकार दिया-
“अदालत की आज्ञा से मैं संक्षेप में यह बतलाना चाहता हूँ कि नोटिस द्वारा जो मुझे आज्ञा दी गयी थी, उसकी अवज्ञा मैंने क्यों की? मेरी समझ में यह स्थानीय अधिकारियों और मेरे बीच में मतभेद का प्रश्न है। मैं इस देश में राष्ट्रीय तथा मानव सेवा करने के विचार से आया हूँ। यहाँ आकर उन रैयतों की सहायता करने के लिए, जिनके बारे में कहा जाता है कि नीलवर साहब अच्छा व्यवहार नहीं करते, मुझसे बहुत आग्रह किया गया था, पर जब तक मैं सब बातें अच्छी तरह न जान लेता, तब तक उन लोगों की कोई सहायता नहीं कर सकता था। इसलिये मैं यदि हो सके तो अधिकारियों और नीलवरों की सहायता से सब बातें जानने के लिए यहाँ आया हूँ। मैं किसी दूसरे उद्देश्य से यहाँ नहीं आया हूँ। मुझे यह विश्वास नहीं होता कि मेरे यहाँ आने से किसी प्रकार की शांति भंग या प्राणहानि हो सकती है। मैं कह सकता हूँ कि ऐसी बातों का मुझे बहुत कुछ अनुभव है। अधिकारियों को जो कठिनाइयाँ होती हैं, उनको मैं समझता हूँ और यह भी मानता हूँ कि उन्हें जो सूचना मिलती है, वे केवल उसी के अनुसार काम कर सकते हैं। कानून मानने वाले व्यक्ति की तरह मेरी प्रवृत्ति यही होनी चाहिए थी और ऐसी प्रवृत्ति हुई भी कि मैं इस आज्ञा का पालन करूं। पर मैं उन लोगों के प्रति, जिनके कारण मैं यहाँ आया हूँ, अपने कर्तव्य का उल्लंघन नहीं कर सकता था। मैं समझता हूँ कि मैं उन लोगों के बीच में रहकर ही उनकी भलाई कर सकता हूँ। इस कारण मैं स्वेच्छा से इस स्थान से नहीं जा सकता था। दो कर्तव्यों के परस्पर विरोध की दशा में मैं केवल यही कर सकता था कि अपने हटाने की सारी जिम्मेवारी शासकों पर छोड़ दूँ। मैं भली-भाँति जानता हूँ कि भारत के सार्वजनिक जीवन में मेरी जैसी स्थिति वाले लोगों को आदर्श उपस्थित करने में बहुत ही सचेत रहना पड़ता है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि जिस स्थिति में मैं हूँ, उस स्थिति में प्रत्येक प्रतिष्ठित व्यक्ति को वही काम करना सबसे अच्छा है, जो इस समय मैंने करना निश्चय किया है और वह यह है कि बिना किसी प्रकार का विरोध किये आज्ञा न मानने का दंड सहने के लिये तैयार हो जाऊँ। मैंने जो बयान दिया है, वह इसलिए नहीं कि जो दंड मुझे मिलने वाला है, वह कम किया जाये, पर इस बात को दिखलाने के लिये कि मैंने सरकारी आज्ञा की अवज्ञा इस कारण से नहीं की है कि मुझे सरकार के प्रति श्रद्धा नहीं है, बल्कि इस कारण से कि मैंने उससे भी उच्चतर आज्ञा अपनी विवेक बुद्धि की आज्ञा का पालन करना उचित समझा है।”
इस बयान को सुनकर अदालत थर्रा उठी। मजिस्ट्रेट की समझ में यह नहीं आया कि वे अब क्या करें? उन्होंने महात्मा जी से बार-बार पूछा कि आप अपराध स्वीकार करते हैं या नहीं? महात्मा जी ने उत्तर दिया कि मुझे जो कहना था, मैंने अपने बयान में कह दिया। इस पर हाकिम ने कहा कि उसमें अपराध का साफ इकरार नहीं है। महात्मा जी ने कहा कि मैं अदालत का अधिक समय नष्ट करना नहीं चाहता, मैं अपराध स्वीकार कर लेता हूँ। हाकिम और भी घबरा गये। उन्होंने महात्मा जी से कहा कि यदि आप अब भी जिला छोड़कर चले जायें और न आने का वादा करें तो यह मुकदमा उठा लिया जायेगा। महात्मा जी ने उत्तर दिया ‘यह नहीं हो सकता। इस समय की कौन कहे, जेल से निकलने पर भी मैं चम्पारण में ही अपना घर बना लूँगा।’ हाकिम यह दृढ़ता देख अवाक् रह गये और उन्होंने कहा कि इस विषय में कुछ विचार करने की आवश्यकता है। आप तीन बजे यहाँ आइए तो मैं हुक्म सुनाऊँगा। ये सब बातें आधे घंटे के भीतर समाप्त हो गयीं।
तीन बजे के कुछ पहले ही महात्मा जी मजिस्ट्रेट के इजलास में पहुँच गये। मजिस्ट्रेट ने कहा कि मैं ता. 21-04-1917 को हुक्म सुनाऊँगा और तब तक आप एक सौ रुपये की जमानत दे दीजिए। महात्मा जी ने उत्तर दिया कि मेरे पास कोई जमानतदार नहीं है और न मैं जमानत ही दे सकता हूँ। फिर मुश्किल पड़ी। अंत में मजिस्ट्रेट ने उनसे स्वयं मुचलका लेकर उन्हें जाने की आज्ञा दी।
इस प्रकार गाँधी जी ने बिहार में कदम रखकर मात्र नौ दिन के अंदर ही चम्पारण के निलहे साहबों के मामले में अंग्रेज सरकार को कटघरे में ला खड़ा कर दिया था।
गाँधी जी द्वारा अंग्रेजी कोर्ट और अंग्रेजी सरकार की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न लगा दिया गया था। इस कलंक को लेकर कोई भी सरकार प्रजा पर शासन नहीं कर सकती है। जीत की पहली किरण स्पष्ट दिखाई पड़ने लगी थी।
21 अप्रैल के पूर्व ही गाँधीजी पर से सारे केस उठा लिये गये। इसके बाद शुरू हुआ रैयतों की बयान लिखाई जिसमें राजेन्द्र बाबू ही नहीं, गाँधीजी की धर्मपत्नी कस्तूरबा बाई ने भी योगदान किया था।
चम्पारण सत्याग्रह के दौरान ग्रामीणों के बयान लिपिबद्ध करने वाले नेतागण-
1. श्री ब्रज किशोर प्रसाद, 2. श्री रामनवमी प्रसाद, 3. श्रीमती कस्तूरबा गाँधी, 4. महात्मा गाँधी, 5. श्री शंभुशरण वर्मा, 6. श्री चन्द्रदेव नारायण, 7. श्री बाबू अनुग्रह नारायण सिंह, 8. श्री वी०पी० वर्मा, 9. श्री राजेन्द्र प्रसाद, 10. श्रीमती विन्ध्यवासिनी प्रसाद वर्मा, 11. श्री रघुनन्दन प्रसाद, 12. श्री बच्चन राय, 13. श्री कोकिलमान मिश्र, 14. श्री किताब फकीर, 15. श्री भोला मल्लिक, 16. श्री शामवरण तिवारी, 17. श्री साहब राय, 18. श्री गिरिवर धारी लाल, 19. श्री धरणीधर प्रसाद, 20. श्री शिवनन्दन प्रसाद, 21. श्री गोरख नाथ, 22. श्री सुखदेव नारायण वर्मा, 23. श्री जे०वी० कृपलानी, 24. श्री महेन्द्र नाथ सिन्हा, 25. श्री राम बहादुर सिंह, 26. श्री रघुनाथ प्रसाद सिन्हा, 27. श्री रघुनन्दन सिंह, 28. श्री रामदयाल सिंह, 29. श्री विन्देश्वरी उपाध्याय, 30. श्री लक्ष्मण प्रसाद सिंह, 31. श्री राय महेन्द्र सिन्हा, 32. श्री रामदत्त प्रसाद।
प्रथम बयान
15-04-1917 राजेन्द्र प्रसाद के समक्ष रामलाल पाण्डे का।
अंतिम बयान
08- 06-1917 शिवनन्दन प्रसाद के समक्ष अनहोती महतो का।
बयान दर्ज कराने वाले कुल ग्रामीणों की संख्या- 3494
गाँधीजी ने चम्पारण सत्याग्रह को अहिंसक सिद्धांत के आधार पर जीत कर दिखलाया था। साठ वर्ष से चली आ रही समस्या सप्ताह भर में ही चरमराने लगी थी। 1918 में चम्पारण एग्रेरियन एक्ट बना। 20 फरवरी 1918 को सरकारी गजट में प्रकाशित हुआ। इस एक्ट का सारांश यह था कि तीन कठिया प्रथा उठा दी गयी। राजकुमार शुक्ल का भगीरथी प्रयास सफल हुआ और चम्पारण के रैयतों को नवजीवन मिला।
गाँधीजी भीतर से इतने मजबूत हो चुके थे, जिसने न सिर्फ चम्पारण आंदोलन को खड़ा किया बल्कि दुनिया की राजनीति और जीवन को नई दिशा दी। इसकी शुरुआत चम्पारण से हुई, और चम्पारण बदला, बिहार बदला, मुल्क की राजनीति में नए दौर की शुरुआत हुई, विश्वव्यापी उपनिवेशवाद की विदाई का श्रीगणेश हुआ। जबरदस्त बदलाव गाँधी में भी हुआ, इससे भी ज्यादा उन बिहारी और सहयोगी नेताओं में हुआ, जो गाँधी के आंदोलन की रीढ़ बने और उन्होंने चम्पारण तथा गाँधी को जितना दिया, गाँधी और चम्पारण ने उससे कई गुना ज्यादा उन्हें दिया या जीवन बदलकर ले लिया। पर यह बात रेखांकित करनी जरूरी है कि यह काम उन्होंने अहिंसा से किया, जो इसके पहले चम्पारण ही नहीं, इतिहास में भी नहीं मिलता।
– नीरज कृष्ण