छन्द संसार
घनाक्षरी
भोली गोपियों के कंठहार बन झूलो चाहे
बन मनिहार हाथ थाम लो सयानी के
प्यारी राधिका के अधरामृत का पान चाहे
पूर्ण अरमान करो कूबड़ी दिवानी के
आप का क्या आप तो समर्थ सर्वशक्तिमान
रूप भी अनूप स्वर्ण दिवस जवानी के
मीरा महारानी के निरन्तर दृगों में रमो
चाहे जमो अंतर में ताज मुगलानी के
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खंजन-समूह मन रंजन में होते लीन
दल कुमुदी का शारदीय छवि पाता है
कोकिल, मयूर, चंचरीक वृंद अन्तर में
रास-रस-राग-अनुराग उमगाता है
कृष्ण-मुख चन्द्र चन्द्रिका विभोर गोपियों का
ललित सुहास सुखराशि बरसाता है
थिरकें जहाँ पुनीत पाँव मनमोहन के
ठाँव वही राधिका का गाँव बन जाता है
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जब से गये हैं मथुरा को नहीं आये श्याम
भोली राधिका का धैर्य जाने कहाँ खो गया
स्वर तंत्रिका में रोम-रोम श्वास-श्रृंखला में
कोई घनश्याम नाम मनके पिरो गया
लोचनों के उमड़े अगाध अश्रु-वारिध से
पल में समस्त ज्ञान ऊधव का धो गया
हो गया अमाप इतना वियोग तन-ताप
सावन भी तपते तवे की बूँद हो गया
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हरि के कलेवर की छाप क्या गई न अभी
मिलन की आस लिये आज भी हरी है क्या
मंत्रमुग्ध करती समस्त जड़-चेतन को
प्रीतम के अधर-पियूष से भरी है क्या
गोपियों के रोष का किया न कभी प्रतिवाद
बोले कड़ुवे न बोल इतनी खरी है क्या
बज उठती है बार-बार बँसवारी मध्य
देखो कहीं मोहन की बाँसुरी धरी है क्या
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दुग्ध, दधि, माखन चुराया ब्रज गाँव में जो
आपको मिला क्या सब ग्वाल-बाल ले गये
किन्तु कोप भाजन हुए हो अम्ब के सदैव
खींचे गये कान और गाल मसले गये
छलिया कहाते थे, परन्तु ब्रजराज देखा
पग-पग पर सदा आप ही छले गये
गोपियों के वस्त्र जो चुराये यमुना के तीर
वे भी सब द्रोपदी के चीर में चले गये
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मुख-कंज छवि देखा जिस ब्रज बालिका ने
होती अति विकल, न धैर्य धर पाती है
मोहन की एक ही झलक प्राप्त करने को
भाँति-भाँति की अनेक युक्तियाँ लगाती है
भूप वृषभानु तनया भी ठुकरायी भूल
सारी कुल रीति छोड़ मटकी सजाती है
रूप-रस पान हेतु दधि बेंचने के मिस
ग्वालिनों के संग नित्य गोकुल को जाती है
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कोई कजरारे केश-पाश पर, कोई भाल-
तिलक अनूप, कोई भृकुटि-कमान पर
कोई मोर पंख के किरीट पर, कोई कंज-
नयन सुरम्य, कोई दृष्टियों की शान पर
कोई वनमाल, कोई गोपी कर-जलजात
कुण्डल अमोल कोई बाँसुरी की तान पर
कोई अधरों के मधुदान पर मरती तो
कोई मरती है साँवले की मुसकान पर
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व्याकुल हो राधिका युगों से खोजती है श्याम
जाकर निकुंज भवनों के केलि-थल में
आतुर हो कभी अपलक ढूँढती है तुम्हें
लहराते हुए भानुतनया के जल में
इधर-उधर धेनुओं के मध्य देखती है
व्यथित हो हेरती है गोपियों के दल में
हँसती है स्वप्न में तुम्हारा साथ होता जब
खोती तब लाती अश्रु नयन चपल में
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बाँसुरी बजाते घनश्याम आप जहाँ वही
सघन निकुंज बन जाता छवि-धाम है
खग, मृग, वन, उपवन प्रमुदित होते
मन राधिका का बिक जाता बिन दाम है
जलद कलेवर अनूप अविराम मध्य
पीतपट तड़ित-छटा बसी ललाम है
आप हैं अकाम, कोटि काम करते अकाम
आप के समक्ष काम का न कोई काम है
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कनक-कलेवर की मृदुता न आँकती है
क्रुद्ध हो घनाली बुन्द-वाण बरसाती है
करिये वियोग-परिताप का शमन श्याम
चातक की वाणी उर पावक लगाती है
देखकर राधिका के सजल विलोचन को
दामिनी द्रवित हो, सहायता को आती है
शंख फूँक बार-बार करती कृपाण वार
फिर भी न पंख बादलों के काट पाती है
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बाँसुरी बजाई श्याम ने, अधीर गोपियाँ हों
कोई निजकाज, गृहकाज छोड़ भागी हैं
सुध-बुध खो के बिन चूनरी के भागी कोई
कोई शीघ्रता में मटकी को फोड़ भागी हैं
एक दृग काजल लगाये हुये भागी कोई
लाज त्याग मोहन से स्नेह जोड़ भागी है
कंठ लग सोई पी के, तान सुन भागी कोई
प्रीतम के भुज-बन्धनों को तोड़ भागी हैं
– अशोक कुमार पाण्डेय अशोक