छन्द-संसार
घनाक्षरी छंद
कोई भगवान यहाँ भोग में ही लीन हुआ
कोई भगवान तस्करों में सर नाम है
कोई भगवान आस्तीन का ही साँप हुआ
कोई भगवान हुक्मरानों का गुलाम है
ऐसे-ऐसे भगवान आज के समाज मे हैं
ध्यान में रमी सुरा है, सुंदरी है, जाम है
ऐसे भगवानों से बचाये भगवान हमें
ऐसे भगवानों को तो दूर से प्रणाम है
**********************
रोशनी उषा की बिखरेगी द्वार-द्वार किंतु
देखना ये रोशनी सभी के आँगनों में हो
रात की विभीषिका से मुक्त भावनायें भी हों
चेतना की पृष्ठभूमि साँस के वनों में हो
आत्मा में शांति और मुखड़े पे कांति नई
ज्योति का प्रकाश पुंज गीत चंदनों में हो
ऐसा कुछ कीजिए कि विष हो प्रभावहीन
ऐसा कायाकल्प सर्प राज के फनों मे हो
**********************
एक राह खोजिये हजार राहें पाइयेगा
लक्ष्य बिखरे पड़े हैं कितने स्वराज के
ज़िन्दगी को कर्म में ही लीन होने दीजिए तो
द्वार खुल जायेंगे ही मुक्ति के जहाज के
टूटते हुए पलों की ओर मत देखियेगा
स्वप्न देखियेगा चेतना के स्वर साज के
एक बीज धरती की कोख में दबाइये तो
लाख-लाख बीज होंगे सामने समाज के
**********************
हम आप को सुधा का दान सदा देता रहा
किंतु बन के शंभु आज भी पिये गरल है
ये तो मजदूर की लगन की कला है बंधु
देश आधुनिकता की दौड़ में सफल है
तोड़ता है पर्वतों का वज्र जैसा वक्ष किंतु
कीचड़ के बीच में खिला हुआ कमल है
ये विराट बांध और ये इमारतें विशाल
कामगार भाइयों के श्रम का ही फल है
**********************
हाथ में कुदाल हो या फावड़ा लिए हुए हो
देश के लिए सृजन के गीत गुनगुना रहा
रोटी एक जून की हो या कि होंठ की तृषा हो
देह का पसीना खून की तरह बहा रहा
आलसी प्रवृत्ति वाली भावना को ललकार
जन-जन में नवीन चेतना जगा रहा
जी रहा अभावों में है आज भी श्रमिक जो कि
राष्ट्र के लिए सजीव भूमिका निभा रहा
– डॉ. अजय प्रसून