छन्द-संसार
घनाक्षरी
साँस-साँस मधुमास, पल रही एक आस,
तज निज रंग दिया, मीत रंग रंग गयी।
खान-पान छोड़ कर, नाते सारे तोड़ कर,
मुरझाई बेल जैसे, पीत रंग रंग गयी।
डूब-डूब खुद में ही, सुध-बुध बिसरा के,
बावरी-सी हुई देखो, प्रीत रंग रंग गयी।
प्रेम-पंख धार कर, दुनिया को पार कर,
लड़ मुसीबत संग, जीत रंग रंग गयी।।
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पग-पग पेड़ काटें, जगती को धूप बाँटें,
बढ़-चढ़ करते हैं, बातें क्यूँ विकास की।
बारिशों ने मुख मोड़ा, धरती से नाता तोड़ा,
सुन रहे साफ़-साफ़, दस्तक विनाश की।
हरियाली विहीन भू, हो रही है मलिन भू,
जहरीली गैसें बढ़ी, गति रोके साँस की।
पीपल, अमलताश, बड़,खेजड़ी, पलाश,
आओ करें रखवाली, ढाक, नीम, बाँस की।।
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नफ़रत मिट जाए, दूरियाँ सिमट जाए,
जल-थल, नभ अब, प्यार भरा कीजिये।
हर मन आग जली, धधके है गाँव-गली,
जलते दिलों को कोई, मधुमास दीजिये।
जग के किसान सुन, पुनः तू विधान गुन,
भाव भरी फसलें हों, बीज ऐसे बीजिये।
अहो! जग के विधाता, विनती है मेरी दाता,
सारी जगती के कष्ट, आप हर लीजिये।।
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प्यार का है मूर्त रूप, छवि इसकी अनूप,
भोली-भाली सूरती है, ममता भरी है छाँव।
कभी हाडी रानी बनी, झांसी वाली रानी कभी,
हार कभी मानी नहीं, नहीं थमे कभी पाँव।
जीवन ये भार रहा, खांडे की ज्यूँ धार रहा,
तजी गई सीता सती, द्रोपदी का लगा दाँव।
दर्द अपमान सहे, किसे निज दुःख कहे,
मिले आबरू लुटेरे, हर ठौर हर ठाँव।।
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घर-घर जाते नेता, ख़्वाब दिखलाते नेता,
वोट जब माँगने हो, दास बन जाते हैं।
मीठी-मीठी बातें कर, मेल मुलाकातें कर,
भोली-भाली जनता की, आस बन जाते हैं।
जीत ज्यों ही जाते हैं वे, भाव बड़े खाते हैं वे,
तज चोला सादगी का, ख़ास बन जाते हैं।
फलते हैं फूलते हैं, मद में वे झूलते हैं,
पाँच साल आते-आते, त्रास बन जाते हैं।।
– आशा पाण्डे ओझा