यात्रा वृत्तांत
ग्वालियर का किला और उसका सतरंगी इतिहास
चंबल के दर्शनीय स्थल मेरे लिये बहुत सोच-समझकर यात्रा करने वाले कभी नहीं रहे,,क्योंकि जिसकी पैदाइश में बीहड़ों का ईको , बाल-कहानियों में फूलन/पुतली/माधौ-मानसिंह आदि रहे हों,,बचपन जहाँ साँझ के डर के साये में बिताया हो ..तो एक उम्र बाद वो आदत का नहीं वरन् वो सब उसके जीवन का हिस्सा बन जाते हैं ।
सो ..इस दफ़ा फिर वहीं के ग्वालियर संभाग की शान “ग्वालियर का किला व मान-मंदिर” तक लिये चलती हूँ आप सबको ।
मेरी यात्रा की शुरूआत गुडगाँव से बाई कार नई दिल्ली तक रही और वहाँ से भोपाल शताब्दी से मुरैना तक ।
मुरैना से बाई कार बमुश्किल चालीस-पैतालीस मिनिट की ड्राइव में आप ग्वालियर पहुँच सकते है और यही मैंने भी किया ।
*आप हवाई मार्ग से भी ग्वालियर तक सीधी उड़ानों द्वारा राजधानी दिल्ली व भोपाल,इंदौर,मुम्बई आदि प्रमुख शहरों से पहुँच सकते हैं ।
हालाँकि मेरी यात्रा का मुख्य पड़ाव ईश्वरा महादेव मंदिर था परंतु मौसम की विषमता ने उसे बदल कर ग्वालियर किले तक पहुँचा दिया ।
ग्वालियर में घुसते ही..विविध जगहों से गोपांचल पहाड़ी की ऊँचाई पर स्थित किले की इमारत के हिस्से और विशाल क्षेत्रफल में फैली किले की बाउंड्री वाल दिखाई देती है ।
पहले ही अवगत करा दूँ कि – किले में प्रवेश के दो गेट हैं– पूर्व की ओर ‘ग्वालियर गेट’ है । इसमें प्रवेश करने पर चढ़ाई के कारण आगे पैदल ही जाना होगा आपको । इसे उत्तर-पूर्वी ‘हाथी पुल’ भी कहा जाता है ,ये सीधा मान-मंदिर के द्वार तक लाता है । कहते हैं राजा मानसिंह इस रास्ते पर चढाई के लिये हाथियों का इस्तेमाल करते थे ।
पत्थर-पत्थर चिन कर बनाया यह रास्ता आपको ऐतिहासिक फिल्मों की याद भी दिलायेगा । दूसरा गेट पश्चिम की ओर है जिसे ‘उरवाई गेट’ या दक्षिण -पश्चिमी ‘ बादलगढ़ द्वार’ भी कहते है।
यहाँ तक वाहन से पहुँचा जा सकता है और गाडी किले के भीतर स्थित मान-मंदिर,सहस्त्र-बाहु मंदिर,तेली मंदिर,बड़ा गुरुद्वारा आदि बहुत सी जगहों (जिनका विवरण मैं आगे लेख में दूँगी )तक ले जाती है ।
*यदि आप पैदल चढ़ाई से बचना चाहें इसके लिये उरवाई गेट ही सही चयन होगा ।
इस शानदार किले में प्रवेश करने के पहले मुझे एक गाइड तय करना जरूरी लगा क्योंकि मुझे मान मंदिर के भीतर स्थित भूल-भुलैया और महल का वो हिस्सा देखना था जिसके बारे में सालों से कोई अफ़वाह सुन रही थी ..उसमें सच्चाई कितनी है ,ये सवाल अक्सर मेरे जैसे मुड़ियल को उकसाता है ।
कुछ हिस्से बंद कर दिये गये हैं ,,कारण समझ आया कि- बचपन के किस्सों में आपराधिक प्रवृत्ति वाले लोग ‘भूत-प्रेत/आत्मा बन कर आज तक डरा रहे थे ,वो टकराये ही नहीं …शायद से चंबल के भूत ,चंबल की भूतनी से पंगा नहीं लेना चाहते होंगे ..हैना !
हमें घुमाने का जिम्मा लिया बढ़िया चकाचक भगवा रंग की बुश्शर्ट और ईंट रंग वाला पतलून पहने लगभग उम्र के अर्धशतक पार कर चुके गाइड ‘ मोहन सिंह भदौरिया’जी ने ।
मुझे लगता है कि..किसी भी विरासत को देखने से पूर्व उसका इतिहास व उससे जुड़ी सत्य/असत्य अफ़वाहों/घटनाओं /युद्धों-लड़ाईयों/शासकों व उनके वंशजों के पुलिंदे खंगालने जरूरी होते हैं ।
‘उथले का अनुमान ही हम में गहरे की उत्सुकता जगाता है।’
“ग्वालियर का किला” अपने इतिहास के उदर में अनगिनत कहानियों को हज़म कर के बैठा आज भी मुस्कुरा रहा है ।
तो सर्वप्रथम इसके दर्शन से पहले कुछ प्राचीन अपितु महत्वपूर्ण जानकारियों से आपको परिचित करवाती हूँ । यकीनन इसके तहख़ानों में शासकों की एक भूल-भुलैया छिपी है ,,,पहेली सुलझाकर ही …इसकी दीवारों को छूकर इसके आलीशान इतिहास को महसूस कर सकेंगे आप ।
ग्वालियर किले के निर्माण को लेकर इतिहासकार एक मत नहीं रहे ,इसे कब और किसने बनवाया ? इसका ठोस साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं।
स्थानीय लोगों बातों पर अमल किया जाये तो इस किले की प्राचीनता के सम्बन्ध में एक कहानी यह है कि – यहाँ से हूण शासक ‘तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल’ के शासन काल के 15वें वर्ष अर्थात् 525 ई0 का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है ! जिसमें ‘मातृचेत’ नामक व्यक्ति द्वारा गोपाद्रि या गोप नाम की एक पहाडी पर स्थित एक दुर्ग पर “सूर्य मन्दिर” बनवाये जाने का उल्लेख है। इस बात को यदि आँका जाये तो स्पष्ट है इस पहाड़ी का प्राचीन नाम ‘गोपाद्रि’ रहा होगा जो विविध उच्चारणों के रूपान्तर से ‘गोपांचल या गोपगिरि’ हो गया होगा । स्पष्ट है कि- इस पर गुप्त काल में भी कोई बस्ती थी।
इतिहासकारों के कहन के अनुसार इस किले का निर्माण तत्कालीन स्थानीय सरदार ‘सूरजसेन’ ने 727 ई0 में करवाया था जो कि- ‘सिंहोनिया गांव’ का रहने वाला था,इस पुरातन व्यापारिक केन्द्र का जिक्र मैं मेरे ‘भूतिया धरोहर नहीं हूँ- ककनमठ’ में आपसे पहले ही कर चुकी हूँ ।
कहते हैं कि- सरदार सूरजसेन कुष्ठ रोग से पीड़ित थे ‘ग्वालिपा’ नामक साधु के नाम पर धन्यवाद स्वरूप बनवाया था । साधु ने तालाब के पवित्र जल को पिलाकर उन्हें रोगमुक्त किया था और संग ही ग्वालिपा साधु ने उन्हें ‘पाल’ की उपाधि से भी नव़ाज़ा और यही इतिहास में पाल (बघेल) शासकों के रूप में इंगित किये गए
।
कहते हैं कि फिर सरदार से राजा बने सूरजसेन पाल की 83 पीढ़ी तक के वंशजों ने यहाँ अनवरत 989 सालों तक शासन किया परन्तु 84 वीं पीढ़ी के वंशज अजेय परंपरा का वहन नहीं कर सके ,,किंचित इसे हार गये । गुर्जर प्रतिहार राजवंश जिसकी स्थापना नागभट्ट नाम के सामन्त ने 725ई.में की थी यहाँ उनका आधिपत्य हो गया । इस राजवंश के लोग स्वयं को राम के अनुज लक्ष्मण के वंशज मानते थे, जिसने अपने भाई राम को एक विशेष अवसर पर प्रतिहार की भाँति सेवा की। इस राजवंश की उत्पत्ति, प्राचीन कालीन ग्वालियर प्रशस्तिअभिलेख से ज्ञात होती है।
इनके मार्फ़त ही प्रतिहार राजवंश के आधिपत्य में रहने वाले चंदेल वंश के दीवानों ‘कच्छपघात’ के पास दसवीं शताब्दी में इस किले का नियंत्रण था ।
कहते हैं ‘ग़ज़नवी’के शासक ‘महमूद गज़नी’ ने ग्वालियर शासकों की संधि द्वारा अपने 17बड़े आक्रमणों में से 1018 में बारहवें आक्रमण और 1021 में अपने चौदहवें आक्रमण को अंजाम दिया । और 1023 ई. में उसने ग्वालियर शाशकों भी छल किया पर वो हार गया ।
पुनः 11वीं शताब्दी में दिल्ली के मुगल शासकों ने इस किले पर आक्रमण कर दिया और किला अपने कब़्जे में ले लिया । उसने चालीस हाथियों के एवज़ में इसे वापिस लौटाया ।
1196 ई. कुतुबुद्दीन ऐबक ने भी एक लम्बे घेराबंदी युद्ध के बाद इस किले को जीत कर आधीन बनाया ,लेकिन 1211 ई. में मुगल शासक फिर इससे हार गये । 1232 में गुलाम वंश के संस्थापक ‘इल्तुतमिश’ ने इस किले को दोबारा फतह किया । मुगलों की जीत होती देखकर राजपूत रानियों ने जौहर प्रथा को अपनाया । राजसी गुसलखाने को जौहर कुंड में तब्दील किया गया ,तब स्वेच्छा से आत्मदाह किया सबने ।
इस तरह इस किले पर अनेकों राजपूत वंशों का शासन रहा ।
तदुपरान्त 1398 ई. में महाराज ‘देववरम’ ने ग्वालियर पर ‘तोमर’ वंश को स्थापित किया और किला तोमर राजपूत राजाओं के नियंत्रण में चला गया। इस किले पर राज करने वाले तोमर वंशजों में सबसे ज्यादा प्रसिद्धि पाने वाले राजा हुये “मानसिंह तोमर” ।
1505 में दिल्ली के सुल्तान ‘सिकन्दर लोदी’ ने किले पर हमला किया लेकिन वो सफल नहीं हुआ। 1516 में सिकन्दर लोदी के बेटे ‘इब्राहिम लोदी’ ने किले पर हमला किया जिसमें तोमर राजा मानसिंह तोमर अपनी जान गंवाँ बैठे । एक साल तक संघर्षरत तोमर वंश ने अंततः हथियार डाल दिये और दुर्ग मुगलों के अधीन हो गया ।
इस तरह मानसिंह ने इस पर 1486-1516 ई. तक शासन किया और इन्होंने ही वर्तमान स्वरूप को पुनः निर्मित किया । इतिहासकार मानसिंह के शासनकाल को ग्वालियर का स्वर्ण-काल मानते हैं ।
लोदी की मृत्यु के बाद मानसिंह और उनकी नौंवी रानी के बेटे ‘विक्रमादित्य'(विक्रम) को ‘हुमायूँ’ ने दिल्ली बुलवा भेजा ,परंतु वो नहीं पहुँचा तो… बाबर ने ग्वालियर पर हमला कर के कब्ज़ा जमा लिया ।
फिर बाद में ‘शेरशाह सूरी’ ने हुमायूँ को हराकर ‘सूरी’ वंश को यहाँ स्थापित किया । 1540-42 में शेरशाह के गुज़र जाने के बाद उसके बेटे ‘इस्लाम शाह’ ने दिल्ली की जगह ग्वालियर को अपनी राजधानी बनाकर इस किले से गतिविधियों को अंजाम दिया । इस्लाम की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी ‘आदिल शाह सूरी’ ने किले की रक्षा का कार्यभार हेमचन्द्र विक्रमादित्य ‘हेमू’ को सौंप दिया ।
हेमू ने 1553-56 के बीच की अवधि में बाईस लडाईयों को जीतकर विद्रोहों का दमन किया ।
1556 में हेमू ने ही “पानीपत की दूसरी लड़ाई” में ‘अकबर ‘को हराकर आगरा और दिल्ली में हिन्दू-राज स्थापित किया । तदुपरान्त हेमू ने पुनः दिल्ली को बतौर राजधानी इस्तेमाल किया ।
फिर 1558 में अकबर ने पुनः आक्रमण करके मुगलों के लिए इस किले को जीता और अपने राजनीतिक कैदियों के लिए इस किले को कारागार में तब्दील कर दिया।
अकबर के चचेरे भार्इ ‘कामरान’ को यहीं बंदी बनाकर रखा गया था और बाद में मौत की सजा दे दी गयी। औरंगजेब के भाई मुराद और दारा के पुत्र सुलेमान शिकोह को भी इसी किले में मौत की सजा दी गयी । “मान मंदिर महल” इन सभी हत्याओं की आज भी गवाही देता है ।
1736 में जाट शासक ‘महाराजा भीम सिंह राणा’ ने इस पर शासन किया तथा 1756 तक इसे अपने अधीन रखा ।
इनके बाद इस किले पर और ग्वालियर पर महाराष्ट्र के सिंधिया कुल के मराठा सरदार ने शासन किया । दिल्ली–आगरा के आस–पास के प्रदेशों में अपना आधिपत्य स्थापित करते हुये ग्वालियर का किला भी उनके कब्जे में आ गया ।किले को सैनिक छावनी में बदल दिया गया ।
इस दौरान बीच–बीच में इस किले का आधिपत्य सिंधिया राजवंश ,जाट (महाराजा भीमसिंह राणा) शासकों ,,,,गौंड़ (राणा छत्तर सिंह) शासकों एवं अंग्रेजों के बीच स्थानान्तरित होता रहा।
1780 में कैप्टन ‘पोफान और ब्रूश’ के जरिये अंग्रेजों का कब़्जा रहा । उसी वर्ष में गवर्नर ‘ वारेन हास्टिंग्स’ने किले को गौंण राणा को इसे वापिस कर दिया ।
ठीक चार साल बाद 1784 में ‘महादजी सिंधिया’ ने इसे वापिस हासिल किया । तदुपरान्त इस किले पर सिंधिया और ब्रिटिशों (1804-1844)का नियंत्रण रहा ।
अंततः ‘महाराजपुर की लड़ाई’के बाद यह किला पूर्णतः सिंधिया वंशजों के कब्जे में आ गया।
जनवरी 1844 को अंग्रेजों ने मराठा सिंधिया वंश को अपना दीवान नियुक्त कर कर दिया।
1857 की क्रान्ति के समय ग्वालियर में उपस्थित 7000 सैनिकों ने अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया लेकिन इस समय भी ग्वालियर के सिंधिया शासक अंग्रेजों के दीवान बनकर वफादार रहे।
1858 में झाँसी की रानी “लक्ष्मीबाई” ने मराठा विद्रोहियों के संग मिलकर इस किले पर कब़्जा कर लिया ।
लेकिन ये जीत का जश्न देर तक ना चल सका सोलहवें दिन ही ‘ईस्ट इंडिया कंपनी ‘के ‘जनरल ह्यूज’ के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने हमला बोल दिया । इस दौरान हुई लड़ाई को ही इतिहास में “ग्वालियर की लड़ाई” के नाम से जाना जाता है ।
इस लड़ाई के दौरान रानी लक्ष्मीबाई को गोली लग गई लेकिन उन्होंने इस पर अंग्रेजों का कब़्जा नहीं होने दिया । लेकिन इस लड़ाई में महान रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु हो गई ।
तत्पश्चात तीन दिन के भीतर यहाँ अंग्रेजों ने कब़्जा जमा लिया ।
बाद में इसे ब्रिटिशों द्वारा सिंधिया घराने को दे दिया गया जो कि…भारत की स्वतंत्रता तक उनके पास रहा।
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इस इतिहास को बताने के बाद आगे के लेख में आप सबको इसके भीतर संग ले चलूँगी,,और मिलाऊँगी गूजरी रानी “मृगनयनी” से भी ,,तैयार रहियेगा तनिक सुस्ताकर ।
क्रमशः…….
बने रहियेगा संग।
– प्रीति राघव प्रीत