धरोहर
गौतम बोधिसत्व
पुरानी फिल्म के एक गीत की इन लाइनों में बड़ी निराली बात छुपी है।
‘घर से चले थे हम तो खुशी की तलाश में,
गम राह में खड़े थे, वही साथ हो गए।’
जी हां, कुछ इसी तरह राजकुमार सिद्धार्थ अपने महल से निकले थे खुशी की तलाश में और रास्ते में उन्होंने बूढ़े, बीमार और मुर्दे को देखा। ये दुख के ही रूप हैं। गम कुछ इसी तरह से राजकुमार सिद्धार्थ की राह में खड़े थे। फिर क्या था? उन्होंने महल और रथ को छोड़कर दुख दूर करने का उपाय ढूंढने निकल पड़े। महात्मा बुद्ध की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि किसी के दुख को देखकर दुखी होने से अच्छा है, उसके दुख को दूर करने के लिए उसे तैयार करना।
एक दिन बुद्ध भगवान भिक्षाटन करते हुए भारद्वाज ब्राह्मण के खेत में गये। वहाँ भारद्वाज ब्राह्मण अपने मजदूरों को भोजन दे रहा था। भगवान को भिक्षा के लिए खड़ा देखकर वह बोला, ” मेरी तरह तुम भी खेती में हल चलाओ, अनाज बोओ, फसल काटो और खाओ। तुम भीख क्यों माँगते हो? ” भगवान ने कहा, ” मैं भी किसान हूँ। मैं श्रद्धा का बीज बोता हूँ। उस पर तपश्चर्या (प्रयत्नों) की वृष्टि (वर्षा) होती है। प्रज्ञा मेरा हल है। पाप-लज्जा हल का मूठ है, चित्त रस्सियाँ हैं, स्मृति (जागृति) हल की फाल और चाबुक है। शरीर एवं वाणी से मैं संयम रखता हूँ। आहार में नियमित रहकर सत्य द्वारा मैं (मनदोषों की) गोड़ाई करता हूँ। संतोष मेरी छुट्टी है। उत्साह मेरे बैल हैं। मेरा वाहन ऐसी दिशा में जाता है जहाँ शोक नहीं करना पड़ता।”
भगवान् बुद्ध के बारे में हम जो कुछ भी पढ़ पाते हैं, वह अंग्रेजी लेखकों के लिखे हुए चरित्रों का कमोबेश सार-संकलन ही होता है। सर एडविन आरनोल्ड ने ‘ लाइट ऑफ एशिया ‘ नामक काव्य लिखा और उसमें भगवान् बुद्ध की पौराणिक कथा दुनिया के सामने पेश की। वह इतनी रोचक सिद्ध हुई कि उसका असर पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं के पढ़े-लिखे लोगों पर बहुत ही गहरा पड़ा। ‘ लाइट ऑफ एशिया ‘ में दिये हुए बुद्ध भगवान् के चित्र के लिए सारी दुनिया एडविन आरनोल्ड की चिर कृतज्ञ रहेगी। लेकिन वह था एक काव्यमय चित्र ही। पॉल कॅरस् ने भी ऐसा ही एक रोचक चित्र अंग्रेजी गद्य में दिया। इनके बाद कई विद्वानों ने बड़ी गवेषणा करके बुद्ध-चरित्र लिखे हैं।
गौतम बुद्ध की जन्म-तिथि के विषय में बहुत मतभेद है। दीवान बहादुर स्वामिकन्नू पिल्लै के मत से बुद्ध का परिनिर्वाण ईसा पूर्व 478वें वर्ष में हुआ है। परन्तु महावंस तथा दीपवंस के अनुसार बुद्ध का परिनिर्वाण ईसा पूर्व 543वें वर्ष में हुआ था। इस मान्यता के अनुसार बुद्ध का जन्म ईसा पूर्व 632वें वर्ष में हुआ था।
बोधि का अर्थ होता है मनुष्य के उद्धार का ज्ञान और उसके लिए प्रयत्न करने वाला प्राणी(सत्व) ही बोधिसत्व है। ‘सुत्तनिपात’ के अनुसार बुद्द्ध का जन्म लुम्बनी जनपद में हुआ था जहाँ एक शिला-स्तंभ मिली है जिसपर ‘लुमिनिगामे उबालिके कते’ पंक्ति खुदी हुई है। यह प्रमाणित करता है कि बोधिसत्व का जन्म लुम्बिनी में हुआ था। उस काल के बड़े-बड़े ज्योतिषाचार्यों ने उनकी जन्म-कुंडली में बत्तीस लक्षण देख कर एक ही भविष्यवाणी की थी कि यह बालक या तो चक्रवर्ती सम्राठ बनेगा या फिर सम्यक संबुद्द होगा। गौतम के जन्म- उत्सव की खबर जानकार असित ऋषि उस बालक को देखने रजा शुद्धोदन के महल पर आये और जब उन्होंने इस चमत्कारी बालक को देखा तो अनायास ही उनके मुख से एक वाक्य निकला, ‘यह मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ है।’ आगे चलकर यह कुमार सम्बुद्ध होने वाला है।
स्वयं बुद्ध ने अपने गृह-त्याग के कारण का वर्णन अत्तदण्डसुत् में किया है कि क्यूँ मुझमे वेराग्य उत्पन्न हुआ। अपर्याप्त पानी में जैसे मछलियाँ छटपटाती है वैसे ही एक-दूसरे से विरोध करके छटपटाने वालीप्रजा को देखकर मेरे अन्तकरण में भय उत्पन्न हुआ और चारो ओर का जगत असार दिखाई देने लगा, सब दिशायें काँप रही है ऐसा लगा और उसमे आश्रय का स्थान खोजने पर निर्भय स्थान नहीं मिला, क्यूंकि अंत तक सारी जनता को परस्पर विरुद्ध हुए देखकर मेरा जी उब गया।
बोधिसत्व का विवाह युवावस्था में हुआ था और गृह-त्याग करने से पहले उन्हें राहुल नाम का पुत्र हुआ था। राहुल के जन्म के बाद सातवें दिन बोधिसत्व ने गृह-त्याग दिया था। गृह-त्याग के पश्चात बोधिसत्व राजगृह( राजगीर, बिहार) चले गए, जहाँ उनकी मुलाकात बिम्बिसार से हुई और उन्होंने आलार कालाम से तत्वज्ञान की शिक्षा पायी। आलार कालाम को छोड बोधिसत्व उद्धक के पास चले गए। आलार कालाम और उद्धक राम्पुत्त दोनों एक ही समाधी-मार्ग सिखाते थे। अंतर सिर्फ दोनों में इतना ही था कि आलार कालाम समाधी की सात सीढियाँ बताता था और उद्धक रामपुत्त आठ।
बोधिसत्व सिर्फ हठयोग और तपश्चर्या में ही ज्यादातर समय व्यतीत करते थे। परन्तु शारीर को स्वस्थ एवं हृष्ट-पुष्ट रखने के लिए कभी-कभी अच्छा भोजन भी किया करते थे और शांत समाधी का भी अनुभव किया करते थे। उन्हें बाद में अनुभव हुआ कि तपस्या निरर्थक है और उसके बिना भी मुक्ति मिल सकती है। अतः उन्होंने तपस्या का त्याग कर पूर्णतया ध्यान मार्ग पर अपने को केंद्रित कर लिया।
बोधिसत्व को संबोधि-ज्ञान वैशाखी पूर्णिमा की रात को प्राप्त हुआ। उस दिन दोपहर को सुजाता नामक कुलीन युवती ने उन्हें अन्न की भिक्षा दी थी। सुजाता की दी हुई भिक्षा ग्रहण करके बोधिसत्व ने नैरंजना नदी के किनारे भोजन किया और उस रात को वे एक पीपल के पेड़ के नीचे जा बैठे। उस वैशाखी पूर्णिमा की रात को बोधिसत्व को तत्व-बोध हुआ और तब गौतम बोधिसत्व गौतम बुद्ध हो गए।
बुद्ध को जो तत्व-बोध हुआ है वह है चार आर्यसत्य एवं अष्टांगिक मार्ग। इस ज्ञान का प्रथम उपदेश उन्होंने अपने साथ रहने वाले पांच साथियों को दिया।
गौतम बुद्ध का जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण ये तीनों एक ही दिन अर्थात वैशाखी पूर्णिमा के ही दिन हुआ था। ऐसा अद्भुत संयोग किसी अन्य महापुरुष के साथ घटित नहीं हुआ।
सनातन धर्म और बोद्ध धर्म एन एक बड़ा फर्क यह है कि सनातन धर्म में ब्रह्मचर्य, गृहस्त, वानप्रस्थ और सन्यास का सिलसिला क्रमश रखा गया है। एक आश्रम से आगे बढ़कर दूसरे आश्रम में जाया जाता है और वापस लौटने की इजाजत नहीं होती है। परन्तु बौद्ध धर्म में अलग परंपरा है। यहाँ माता-पिता मानते हैं कि पुत्र के युवा होते ही उसे सर्वश्रेष्ठ भिक्खु-धर्म की दीक्षा देना उनका कर्तव्य है। बाद में यदि अगर पुत्र को अनुभव हो कि वह ऊँची चीज उसके अनुकूल नहीं है तो वह स्वेक्षा से नीचे उतर सकता है। बौद्ध-धर्म में रिवाज है कि भिक्षु-व्रत ग्रहण करने के बाद अगर किसी को गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की इच्छा हो तो वह अपने गुरु की आज्ञा लेकर वैसा कर सकता है।
बुद्ध ने धर्म को पहली दफे वैज्ञानिक प्रतिष्ठा दी। बुद्ध ने धर्म को पहली दफे विज्ञान के सिंहासन पर विराजमान किया। इसके पहले तक धर्म अंधविश्वास था। बुद्ध ने उसे बड़ी गरिमा दी। बुद्ध ने कहा, अंधविश्वास की जरूरत ही नहीं है। धर्म तो जीवन का परम सत्य है। एस धम्मो सनंतनो। यह धर्म तो शाश्वत और सनातन है। तुम जब आंख खोलोगे तब इसे देख लोगे।
बुद्ध ने तो कहा, यह धर्म तुम्हारा स्वभाव है। यह तुम्हारे भीतर बह रहा है, अहर्निश बह रहा है। इसे खोजने के लिए आकाश में आंखें उठाने की जरूरत नहीं है, इसे खोजने के लिए भीतर जरा सी तलाश करने की जरूरत है। यह तुम हो, तुम्हारी नियति है, यह तुम्हारा स्वभाव है। एक क्षण को भी तुमने इसे खोया नहीं, सिर्फ विस्मरण हुआ है।
बुद्ध ने वर्ण की व्यवस्था तोड़ दी और आश्रम की व्यवस्था भी तोड़ दी। बुद्ध ने युवकों को संन्यास दे दिया, बच्चों को संन्यास दे दिया और कहा कि लकीर के फकीर होकर चलने से कुछ भी न चलेगा। अगर किसी व्यक्ति को युवावस्था में भी परमात्मा को खोजने की, सत्य को खोजने की, जीवन के यथार्थ को खोजने की प्रबल आकांक्षा जगी है, तो अपनी आंकाक्षा को सुने। प्रत्येक व्यक्ति अपनी आकांक्षा से जीए। उन्होंनें सब सिद्धांत एक अर्थ में गौण कर दिए, मनुष्य प्रमुख हो गया।
दुख मन में होता है और कष्ट शरीर में। महात्मा बुद्ध का यह यूनिवर्सल विजन है कि सारे संसार में सबका दुख सदा-सदा के लिए कैसे दूर हो? निराला की कविता की एक लाइन है- ‘दुख ही जीवन की कथा रही।’ यह सच है कि दुख ही जीवन की कथा और परेशानी है। मगर इस परेशानी का अंत कैसे होगा? यही शिक्षा महात्मा बुद्ध ने दी है।
“आदमी नींद में सोया हुआ प्राणी है। वह जागता भी है तब भी वो भीतर से सोता है।” चलते-फिरते, बोलते, काम करते हुए भी एक गहरी नींद में डूबा रहता है। दुख का पहाड़ इंसान को नींद से जगा देता है। दुख जगाता है। यही दुख का प्रभाव है। यही उसकी प्रासंगिकता भी है। हर दुख और पीड़ा एक संदेश देती है। जीवन जीने का संदेश। हर दुख एक चिट्ठी है। हर पीड़ा एक संदेश है। मगर हमारी आंखों पर अज्ञान का पर्दा पड़ा हुआ है, इसलिए उस संदेश को हम पढ़ नहीं पाते हैं। हम न खुद को जानते हैं और न भविष्य को। हम दुख को भोगते हैं। खुद का कोसते हैं। दूसरों को दोष देते हैं। यहां तक कि भगवान को भी दोष देते हैं। गीत गाने लगते हैं
‘भगवान वो घड़ी जरा इंसान बन के देख, धरती पे चार दिन कभी मेहमान बन के देख।’ हिंदी फिल्मों के मंदिर में भगवान को दोष देते हुए कई सीन हमने-आपने देखे होंगे और ऐसे सीन आगे भी दिखाए जाएंगे। मगर दुख से संदेश ग्रहण करने का चलन हमारे यहां है ही नहीं। दुख से संदेश तो कोई बुद्धिमान ही लेता है। महात्मा बुद्ध का एक मूल सवाल है। जीवन का सत्य क्या है? यह प्रश्न हमारी पीड़ा से जुड़ा है। भविष्य को हम जानते नहीं है। अतीत पर या तो हम गर्व करते हैं या उसे याद करके पछताते हैं। भविष्य की चिंता में डूबे रहते हैं। दोनों दुखदायी है।
महात्मा बुद्ध ने वर्तमान का सदुपयोग करने की शिक्षा दी है। बुद्ध ने अतीत के खंडहरों और भविष्य के हवा महल से निकाल कर मनुष्य को वर्तमान में खड़ा रहने की शिक्षा दी है। बिहार के बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई। उनके ज्ञान की रोशनी पूरी दुनिया में फैली। चीन की कहावत है- बांस के जंगल में बैठो और निश्चिंत होकर चाय पीओ। जैसे कि चीन के प्राचीन साधु-संत किया करते थे। यानी कि जीवन की परेशानियों के बीच शांत होकर बैठना। यह ताओवाद है। जापान में बुद्धिज्म की एक शाखा है जिसका मतलब है शांति, स्थिरता और निश्छिलता। भगवान बुद्ध की प्रतिमा देखकर इसी का अहसास होता है।
– नीरज कृष्ण