उभरते स्वर
गुरु कृपा
चाँद, मंगल, बृहस्पति क्या,
कृपा हो गुरुवर आपकी,
तो सूरज को भी मापें हम।
धागों-से उलझे,
दुनिया के तानों-बानों में,
कृपा बरसे गुरुवर आपकी,
तो खुद को पहचानें हम।
नव उत्साह से,नव-संकल्प कर,
चल पड़ें नव डगर पर,
पथ-प्रदर्शक गुरुवर हमारे,
नव-विहान ले आयें हम।
आपकी गुरुता के हम,
आभारी हैं, आभारी रहेंगे,
कृपा हो गुरुवर आपकी,
तो धन्य-धन्य हो जायें हम।
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परिधान
दया, प्रेम, करुणा , ममता का भाव नहीं,
न भले – बुरे की पहचान।
ऐसे व्यक्तित्व का कोई मोल नहीं,
चाहे सुंदर पहने परिधान।
मीठी न जिसकी वाणी,
जिह्वा उसकी कटार।
भाई-बंधु,सखा-मित्र सब,
साथ छोड़ेंगे बीच मझधार।
धन -दौलत के मद में चूर,
दिखलाते झूठी शान।
व्यर्थ वह मानव जीवन,
जो किया न सुपात्र को दान।
तन की बाहरी साज-सज्जा,
देती पल भर की मुस्कान।
जीवन को मुखरित करें,
पहन इंसानियत का परिधान।
– रानी कुमारी