आलेख
गुमानी पंत और उनकी कुमाउनी कविताएँ- डाॅ. पवनेश ठकुराठी
(27 फरवरी जयंती पर विशेष)
प्रसिद्ध कवि पं. गुमानी पन्त का जन्म 27 फरवरी, 1790 को काशीपुर में हुआ था। इनका पैतृक निवास स्थान पिथौरागढ़ जिले के गंगोलीहाट का उपराड़ा गाँव था। इनके पिता का नाम देवनिधि पंत और माता का नाम मंजरी देवी था। गुमानी पंत का मूल नाम लोकरत्न पन्त था। कहा जाता है कि काशीपुर के महाराजा गुमान सिंह की सभा में राजकवि रहने के कारण इनका नाम लोकरत्न ‘गुमानी’ पड़ा और बाद में ये इसी नाम से प्रसिद्ध हुये। ये टिहरी नरेश सुदर्शन शाह के दरबार में मुरक कवि के नाम से भी प्रसिद्ध रहे। गुमानी जी ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अपने चाचा श्री राधाकृष्ण पन्त से और बाद में धौलछीना, अल्मोड़ा के सुप्रसिद्ध ज्योतिषी पण्डित हरिदत्त पन्त से ग्रहण की। इसके आगे की शिक्षा हेतु आप इलाहाबाद चले आए। इसके पश्चात आप ज्ञान की खोज में हिमालयी क्षेत्रों में भ्रमण करते रहे। कहा जाता है कि देवप्रयाग क्षेत्र की किसी गुफा में साधनारत गुमानी पंत को भगवान राम के दर्शन हो गये और भगवान राम ने गुमानी पंत से प्रसन्न होकर सात पीढि़यों तक का आध्यात्मिक ज्ञान और विद्या का वरदान दिया। गुमानी पंत को हिंदी, नेपाली, उर्दू, कुमाउनी, अंग्रेजी, फारसी, ब्रजभाषा, संस्कृत आदि कई भाषाओं का ज्ञान था।
गुमानी जी खड़ी बोली के पहले कवि हैं। वैसे भारतेंदु हरिशचन्द्र को हिंदी साहित्य जगत में खडी बोली का पहला कवि होने का सम्मान प्राप्त है, किंतु हरिश्चंद्र का जन्म गुमानी के निधन (1846) के चार वर्ष बाद हुआ था। इस प्रकार गुमानी भारतेंदु हरिश्चंद्र के पहले के कवि हैं, जिन्होंने खड़ी बोली में रचनाएं लिखीं। अतः गुमानी कवि को ही खड़ी बोली का पहला कवि माना जाना चाहिए। ऐसा कुछ आलोचकों का मानना है। गुमानी कवि खड़ी बोली के ही नहीं अपितु कुमाउनी और नेपाली भाषा के भी पहले कवि हैं। गुमानी पंत ने राम महिमा, गंगा-शतक, रामनामपंचाशिका, जगन्नाथष्टक, कृष्णाष्टक, रामसहस्त्रगणदण्डक, चित्रपछावली, कालिकाष्टक, तत्वविछोतिनी- पंचपंचाशिका, रामविनय, नीतिशतक, शतोपदेश, ज्ञानभैषज्यमंजरी आदि अनेक उच्च कोटि की कृतियाँ लिखीं। समस्यापूर्ति, लोकोक्ति अवधूत वर्णनम, अंग्रेजी राज्य वर्णनम, राजांगरेजस्य राज्य वर्णनम, रामाष्टपदी आदि इनकी प्रसिद्ध कविताएं हैं।
गुमानी कवि का हिंदी, कुमाउनी, नेपाली और संस्कृत पर जबरदस्त अधिकार था। इस बात को उद्घाटित करने वाली कविता की चार पंक्तियां देखिये, जिसमें प्रत्येक पंक्ति क्रमशः हिंदी, कुमाउनी, नेपाली और संस्कृत भाषा की है-
‘‘बाजे लोक त्रिलोक नाथ शिव की पूजा करें तो करें।
क्वे-क्वे भक्त गणेश का में बाजा हुनी तो हुनी।
राम्रो ध्यान भवानी का चरण मा गर्दन कसैले गरन।
धन्यात्मातुलधाम्नीह रमते रामे गुमानी कवि।‘‘1
गुमानी पंत ने अधिकांशतः संस्कृत में पुस्तकें लिखी हैं, किंतु उन्होंने अन्य भाषाओं में भी स्फुट रचनाएं लिखी हैं। भाषा विज्ञानी सर जार्ज ग्रियर्सन ने लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया नामक अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में गुमानी जी की दो पुस्तकों ‘गुमानीनीति‘ और ‘गुमानी काव्य-संग्रह‘ का उल्लेख किया है। ‘गुमानीनीति‘ का संपादन रेवादत्त उप्रेती ने 1814 में किया था और ‘गुमानी काव्य-संग्रह‘ का संकलन और संपादन देवीदत्त शर्मा ने 1837 में किया था। इधर उन पर केंद्रित एक और पुस्तक ‘कहै गुमानी‘ शीर्षक से भी प्रकाश में आई है।
गुमानी पंत की कुमाउनी कविताओं में अंग्रजों और गोरखा शासकों के जुल्मों का यथार्थ चित्रण हुआ है। गोरखा राज्य के अत्याचारों को चित्रित करने वाला एक उदाहरण दृष्टव्य है-
‘‘दिन दिन खजाना का भार बोकणा ले,
शिव! शिव! चुली में का बाल नै कैका।
तदपि मुलुक तेरो छाडि़ नै कोई भाजा,
इति वदति गुमानी धन्य गोर्खाली राजा।‘‘2
इसके अलावा इनकी कविताओं में कुमाऊं के जन जीवन, परिवेश, समाज और संस्कृति का भी बहुतायत में चित्रण हुआ है-
‘‘बने बने काफल किल्मोड़ो छ, बाड़ामुणी कोमल काकड़ो छ।
गोठन में गोरू लैन बाखड़ो छ, थातिन में है उत्तम उप्रड़ो छ।‘‘3
इनकी कविताओं में पहाड़ के लोकजीवन से जुड़ी वैचि़त्र्यपूर्ण उक्तियों के भी दर्शन होते हैं-
‘‘हिसांलु की बाण बड़ी रिसालु, जां-जां जांछै उधेडि़ खांछैै।
ये बात को कोई गटो नि मानो, दुदयाल की लात सौनी पड़छै।‘‘4
अतः हम कह सकते हैं कि कवि गुमानी पंत की कुमाउनी कविताओं में कुमाऊं की तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्थितियों का यथार्थ चित्रण हुआ है। कुमाऊं के जन-जीवन एवं परिवेश से संबद्ध उक्तियों, कहावतों आदि का प्रयोग भी इनकी कविताओं में हुआ है। लघु आकार की होने के बावजूद इनकी कविताएं प्रभाव छोड़ने में सक्षम हैं।
संदर्भ-
1. कुमाउनी, शेर सिंह बिष्ट, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2014, पृ0 सं0 102
2. कुमाउनी काव्य संचयन, सं0 प्रो0 चंद्रकला रावत, देवभूमि प्रकाशन, हल्द्वानी, 2014, पृ0 33
3. वही, पृ0 32
4. वही, पृ0 31
– डॉ. पवनेश ठकुराठी