रचना-समीक्षा
गिव एंड टेक के जाल में फंसे अलेखों पंखों को ‘उड़ान’ का आह्वान: के.डी. चारण
नई कहानी ने शिल्प को लेकर आमूल चूल परिवर्तन किये, अपनी पहचान मुखर की लेकिन कई कहानियों की भाषा पर अश्लीलता या स्तरहीनता का साया रहा। शायद इसी का परिणाम था कि पाठकों ने कहानियों को कथ्य के साथ-साथ भाषा के आधार पर भी छांटकर पढ़ना शुरू किया। पाठक वर्ग का एक बड़ा हिस्सा ऐसा रहा जिसने सभ्य और श्लील भाषा वाली कहानियों का खुले दिल से स्वागत किया। धीरे-धीरे इस वर्ग में भी कमी आती गयी लेकिन आज भी अधिसंख्य कहानीकार ऐसे हैं, जो यथार्थ के निम्न स्तरीय कथ्यों को स्तरीय भाषा में ढालकर पेश करते रहे हैं। कानपुर (उत्तर प्रदेश) के मृदुल पाण्डेय ऐसे ही कहानीकार हैं जिन्होंने समसामयिक मुद्दों पर दर्जनों कहानियां लिखीं।
हस्ताक्षर के पिछले संयुक्तांक में उनकी कहानी ‘उड़ान’ छपी थी। स्त्री-स्वतंत्रता और विमर्श पर अनेकों कहानियां प्रकाश में आ चुकी हैं, ‘उड़ान’ भी उन्हीं का हिस्सा है लेकिन इस कहानी में एक बारीक सा अंतर नज़र आता है। मानवीय रिश्तों की दृष्टी से महानगरीय जीवन के बंजर में ये कहानी आशा जल की बूंद के समान है, जहाँ रिश्तें और मानवीय खुद्दारी की कोपल फूटती दिखती है।
‘गिव एंड टेक’ का सिद्धांत आदम सभ्यता से आदमी का वजूद हटाकर वहशीपन में कैसे तब्दील हो जाता है ,इसे कहानी में कथ्य के रूप में अपनाया गया है।
एक मध्यमवर्गीय परिवार की युवती पारुल के चरित्र को कहानीकार ने केंद्रीय पात्र बनाकर आज के समय में महानगरीय ऑफिस लाइफ का जहरीला और भयानक सच उजागर करने की कोशिश की है, जिसने कई किशोर जिंदगियों को तबाह किया होगा। यही ‘गिव एंड टेक’ कहानी में श्लेष बनकर उसके शिल्प में चार चाँद लगाता है। पांच हजार वाली नौकरी के बदले किसी को बीस हज़ार प्रति महीना मिलते हैं, क्योंकि वह इक्कीस वर्ष की सुन्दर युवती है और ये पैसे उसे ऑफिस में आठ घंटे माथापच्ची करने के बदले नहीं मिलते हैं बल्कि सेलेरी डे के बाद वाले सन्डे के लिए मिलते हैं क्योंकि बॉस की बीवी मायके गयी हुई है और उसे मनोरंजन करने के लिए लड़की चाहिए। ये ‘गिव’ इसलिए जरुरी है क्योंकि पारुल से वापिस ‘टेक’ की उम्मीद भी ज्यादा है। यही बात जब पारुल के लिए ‘गिव’ बन जाती है तो उसका ‘टेक’ ही कहानी का मूल आधार बन पड़ता है, जब वह कहानी के अंत में बॉस के मुंह पर थूककर इस्तीफा थमाती है।
संवेदना के स्तर पर भी यह कहानी कम शब्दों में घटना को बड़े केनवास पर फैला देती है। पारुल के मन में अपने बॉस का अलग चरित्र है जिसकी तुलना वह भावातिरेक में भाई जैसे चरित्र से करती है लेकिन यही चरित्र इतना खोखला निकल जाता है तो उसके पैरों तले की जमीन खिसक जाती है।
कहानीकार कम शब्दों का इस्तेमाल करते हुए महानगरीय ऑफिस की जीवनशैली के जहरीले सच को दर्शाया है, जिससे हर कोई वाकिफ है लेकिन कोई भी इसका प्रतिरोध नहीं करता है क्योंकि सब मजबूर है और नौकरी खोने का भय हरेक में है। मेनेजर रितिका की बात ही पूरे मुद्दे को उधेड़कर रख देती है जब वो पारुल में खुद का दो साल पहले का चेहरा देखती है और स्वगत कथन में कहती है कि मेनेजर की पोस्ट तक पहुँचने में उसने खुद की आत्मा को कितनी बार कुचला है।
कहानी का अंत नई आशा का संचार करने के साथ-साथ मर्मस्पर्शी भी है। कुछ वैसा ही आभास होता है जब लक्ष्मण मूर्छा के कारण राम विलाप कर रहे हैं और अनायास हनुमान संजीवनी लेकर आ धमकते हैं। पारुल अपनी लाचार और बेबस माँ के बारे में सोचते हुए अपना इस्तीफा टाइप कर रही है और स्वयं को हौसला देते हुए कह रही है, “जरूरतें कम कर के भी जिंदगी जी जा सकती है। ये बात मुश्किल है लेकिन नामुमकिन नहीं। वो और ज्यादा मेहनत करेगी फिर से तैयारी करेगी। अब वो वह जॉब करेगी जहाँ उसे काबीलियत के लिए लिया जाएगा न कि जिस्म के लिए….”
नए हौसलों के पंख समेटे पारुल बॉस के मुंह पर थूककर इस्तीफा थमा देती है और शुरुआत होती है एक ऐसी उड़ान की जो यह साबित करती है कि पंख भले ही कुचल दिए गए हों, मगर उनमें हौसला है तो उड़ान संभव है।
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– के.डी. चारण