ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल
महँगा लिबास कार पे माला गुलाब की
सेवक दिखा रहा है नज़ाकत नवाब की
भारत के नौनिहाल की तस्वीर देखिए
काँधे पे हुस्न हाथ में बोतल शराब की
इस कोट पर दिखा कभी उस कोट पर दिखा
क्या ख़ूबियाँ बयान करूँ उस गुलाब की
वो इक किरन भी देने के क़ाबिल नहीँ हैं जो
दुनिया दिखा रहे थे हमे आफ़ताब की
ये मोहतरम तो बोल के दिखते हैं इस तरह
जैसे के खा के आये थे गोली जुलाब की
बातें बता रही हैं मुहब्बत ही धर्म है
तेरी किताब की हों या मेरी किताब की
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ग़ज़ल
देखकर मौसम पुराना आज भी बाहर पुन:
ज़िन्दगी ने ओढ़ ली है सब्र की चादर पुन:
अवसरों पर चूकना भी हार का पर्याय है
लौटकर आता है मुश्किल से वही अवसर पुन:
क्या बँटेगा क्या पता इस बार की खैरात में
आज गूँजा है सियासी द्वार पर सोहर पुन:
बस यही मर्दानगी है इस तरह रक्खो इसे
ये अहिल्या हो न पाए अब कभी पत्थर पुन:
फ़ीस, कपड़ा, दूध, राशन, ख़र्च पूरे माह का
याद आया है सवेरे इसलिए दफ़्तर पुन:
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ग़ज़ल
उन्हें खुद आ के अपनी रोशनी दिनमान देता है
हमें उतनी ही मिलती है जो रोशनदान देता है
मजूरी सौ दिनों की भेंट चढ़ती है व्यवस्था की
ग़रीबी की सनद तब गाँव का परधान देता है
भला क्यूँ मापते हैं आप इन कल-कारख़ानों से
हक़ीक़त मे तरक्की मुल्क को खलिहान देता है
इजाज़त आदमी को आदमी से बैर रखने की
न चारों वेद देते हैं न तो क़ुरआन देता है
बता ऐ वक्त! मेरी दुर्दशा का कौन है दोषी
ये सुनते ही वो मेरी ओर उँगली तान देता है
हमारी चिर समस्याओं का हल कोई नहीं देता
ये हमको आश्वासन वो हमें अनुदान देता है
यही इक बात कहकर लोग चादर ओढ़ लेते हैं
जिसे कोई नहीं देता उसे भगवान देता है
– हरीश दरवेश