ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
धूप, गर्मी, घुटन, पसीना है
ज़िन्दगी जून का महीना है
आरज़ू का बदन है पर्दे में
और हवस का लिबास झीना है
फिर वही आबे-जू है दूर तलक
फिर वही काग़ज़ी सफ़ीना है
छोड़ता क्यूँ नहीं मुझे माज़ी
तू भी क्या बदचलन हसीना है?
नींद आंखों में क्यों नहीं आती
रात क्या तुझ से मैंने छीना है
मुझ को फ़ानी के जैसा होने तक
क्या पता कितना ज़हर पीना है
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ग़ज़ल-
तमाम रिश्ते भुलाने के बाद आया था
वो एक शख़्स जो अरसे के बाद आया था
मेरी ही लाश पे रोने लगा मेरा क़ातिल
ये जज़्बा कौनसे जज़्बे के बाद आया था
लिखा था जिसमें मेरी पारसाई का क़िस्सा
वो फ़ैसला मेरे मरने के बाद आया था
मेरी शिनाख़्त के काँधों पे मेरा ही चेहरा
कई दुकानों पे बिकने के बाद आया था
दिखा रहा था जो बस्ती में रात अम्नो-अमान
वो कैमरा भी तो बलवे के बाद आया था
हमें भी आया हुनर जोड़-तोड़ का फ़ानी
मगर हिसाब के पर्चे के बाद आया था
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ग़ज़ल-
वो दिल जो प्यार निभाने के काम आता है
तो टूट कर भी ज़माने के काम आता है
किसी की आह का होता नहीं असर जिस पर
वो लहजा शोर मचाने के काम आता है
संवार कर भी इसे होगा मुझ को क्या हासिल
बदन तो रूह छिपाने के काम आता है
सुकूनबख़्श था कल तक जो नाम मज़हब का
अभी वो शहर जलाने के काम आता है
तेरे सवाल पे इन्कार मेरे जैसों का
तुझे ही होश में लाने के काम आता है
अजीब बात है फ़ानी कि अब मेरा काँधा
मेरी ही लाश उठाने के काम आता है
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ग़ज़ल-
लिए अपना कोई मख़सूस लहजा बात करता था
मेरी आँखों में अक्सर एक सपना बात करता था
मेरी आंखों में पलते ख़्वाब पढ़ लेता था जब भी वो
तो लब ख़ामोश हो जाते थे, झुमका बात करता था
किसी की ख़ुश्बू कॉलर पे जो मैं घर ले के आता था
मुझ ही से रात भर मेरा ही कमरा बात करता था
किरन कोई कई किरनों के जैसी जगमगाती थी
कभी जब जोधपुर का एक लड़का बात करता था
नसीहत ख़ूब करता था मुझे अख़बार टेबल से
मैं आईने से जब सजता सँवरता बात करता था
किसी ने आँख पे ऱख कर ज़बां दे दी उसे फ़ानी
चटख़ने तक तो वो रंगीन चश्मा बात करता था
– फ़ानी जोधपुरी