ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
ये न समझो कि कोई फ़रिश्ता हूँ मैं
अपने किरदार में कितना अदना हूँ मैं
तू गया था मुझे छोड़ कर जिस जगह
आज तक बस उसी दर पे ठहरा हूँ मैं
लब पे तेरे हँसी आ सके इसलिए
हर सितम तेरा हँसकर ही सहता हूँ मैं
माँगना मेरी फ़ितरत में यूँ तो न था
अब हूँ बेबस तो झोली उठाता हूँ मैं
शम्स बनना न चाहूँ कभी दूसरा
बन के जुगनू ही बस टिमटिमाता हूँ मैं
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ग़ज़ल-
जब इश्क़ के दरिया में उतरकर नहीं देखा
सब देखा मगर ज़ीस्त का गौहर नहीं देखा
हम खोजते फिरते हैं जिसे दैर-ओ-हरम में
अफ़सोस उसे अपने ही अंदर नहीं देखा
थी कुव्वत-ए-परवाज़ भी, उड़ने का हुनर भी
पंछी ने ही पिंजरे से निकलकर नहीं देखा
दुनिया से जुदाई पे भी मुट्ठी न हो ख़ाली
ऐसा तो किसी ने भी सिकन्दर नहीं देखा
हम क़ैद रहे जिस्म की सरहद में हमेशा
क्यों रूह के अंदर भी उतरकर नहीं देखा
अरकान रदीफ़ और क़वाफ़ी तो सजाये
बस दर्द को लफ़्ज़ों में पिरोकर नहीं देखा
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ग़ज़ल-
दिल का दिल से रिश्ता है
ये ही एक छलावा है
बात तो कोई होगी ही
क्यों लगता वो अपना है
दिल के अंदर जाने क्यों
घाव सरीखा रिसता है
महफ़िल में हँस लेता हूँ
दिल में ग़म का दरिया है
अपना बनकर आया जो
उसने ही तो लूटा है
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ग़ज़ल-
इश्क़ गर हादिसा हुआ तो हुआ
दर्द का सिलसिला हुआ तो हुआ
हम तो वादा वफ़ा करेंगे ही
वो अगर बेवफ़ा हुआ तो हुआ
अक्स तो दिख ही जाएगा उसमें
छोटा जो आईना हुआ तो हुआ
अपनी मंज़िल तो खोज लेंगे हम
बंद एक रास्ता हुआ तो हुआ
अपना किरदार तो बड़ा रखिए
छोटा गर दायरा हुआ तो हुआ
– अशोक श्रीवास्तव