ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
उदासियों से भरी सुब्हो-शाम रक्खी है
हमारे काँधे पे दुनिया तमाम रक्खी है
था जिसमें तुमसे मुलाक़ात का हसीं वादा
हमारे ज़ेह्न में अब भी वो शाम रक्खी है
ज़रा भी शौक़ नहीं है मुझे तो जीने का
किसी ने ज़ीस्त की बस डोर थाम रक्खी है
ये दुनिया हो न सके बेलगाम इस ख़ातिर
किसी ने हाथ में इसकी लगाम रक्खी है
अज़ाब कैसे ख़ुदा का न हमपे नाज़िल हो
हरेक चीज़ घरों में हराम रक्खी है
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ग़ज़ल-
कितना नाशाद हो गया है वो
क्या मेरे बाद हो गया है वो
भूल कर भी उसे न भूल सकूँ
इस क़दर याद हो गया है वो
अब तो आँखें भी अश्क़बार नहीं
कितना बरबाद हो गया है वो
मेरी ग़ुरबत ने जो सिखाया है
क्या सबक याद हो गया है वो
जाये ऊंची उड़ान पर जाये
अब तो आज़ाद हो गया है वो
जिस भी पत्थर से चोट खाई है
मेरी बुनियाद हो गया है वो
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ग़ज़ल-
ऐसा मंज़र है कि देखा भी नहीं जा सकता
और तेरे शहर से लौटा भी नहीं जा सकता
कोई ऐसा भी नहीं जिसपे भरोसा कर लूँ
ख़ुद को तन्हाई में छोड़ा भी नहीं जा सकता
इक न इक दिन तो हक़ीक़त को अयां होना है
झूठ को देर तक ओढ़ा भी नहीं जा सकता
ऐसे लोगों से मिले हैं मुझे अक्सर धोखे
जिनके बारे में ये सोचा भी नहीं जा सकता
पहले तो माँ की हरेक बात बुरी लगती थी
अब उसे आँखों से ढूँढा भी नहीं जा सकता
ख़्वाब आते हैं मुझे रोज़ डराने वाले
दो घड़ी चैन से सोया भी नहीं जा सकता
हिजरते-अश्क़ है और सर पे नया ग़म भी है
अब तो आँखों को निचोड़ा भी नहीं जा सकता
उसको उस तरह से सच करके दिखाया मैंने
उसको जिस तरह से सोचा भी नहीं जा सकता
सर में भरमार मुनाफ़िक की है लेकिन यूसुफ़
इसको दीवार से फोड़ा भी नहीं जा सकता
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ग़ज़ल-
ख़्वाब आँखों को नये रोज़ दिखाने होंगे
दिल के क़िरतास पे कुछ नक़्श बनाने होंगे
रात भर तुमको भी मुस्तैद खड़े रहना है
इन चराग़ों पे हवाओं के निशाने होंगे
ख़ुश्क आँखों के भी रस्ते में समंदर हैं कई
जिनमें बिखरे हुए अश्क़ों के ख़ज़ाने होंगे
वो तुझे भूल गया छोड़ पुरानी बातें
उसकी यादों के तुझे नक़्श मिटाने होंगे
मुझको बस्ती में ज़रा और ठहर जाने दे
फिर ख़ुदा जाने कहाँ मेरे ठिकाने होंगे
कब तलक ग़ैर से मांगेंगे उजाले हम तुम
अपने सूरज भी हमें ख़ुद ही उगाने होंगे
अब भी इस मुल्क की तस्वीर बदल सकती है
हमको गुज़रे हुए कुछ दौर भुलाने होंगे
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ग़ज़ल-
किसी जादू किसी टोने का डर है
कहीं कुछ तो बुरा होने का डर है
पहन कर भी हंसी के नकली ज़ेवर
उदासी के बयां होने का डर है
उसी की जुस्तजू में रात-दिन हूँ
जिसे हर हाल में खोने का डर है
दरकती जा रही है नींव घर की
ख़ुदा! बरसात भी होने का डर है
हमें आपस में जो बांधे है अब तक
उसी एहसास के खोने का डर है
बयां कर दूँ उदासी का सबब भी
मुझे बस आपके रोने का डर है
कई चेहरों से है पहचान मेरी
जिन्हें अब भीड़ में खोने का डर है
– यूसुफ़ रईस