ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
कभी जब प्यार का सूरज उगा है
भभककर नफ़रतों का घर जला है
हमारे दरमियाँ जो फ़ासला है
वो ज्यादा पास आने की सज़ा है
क़सम खानी पड़ी है जब भी मुझको
मेरे विश्वास को धक्का लगा है
उछलकर गोद में बच्चे ने बोला
फ़लक छूने का मुझमें हौसला है
निभाना है इसे मुश्किल बहुत ही
मुहब्बत एक ऐसा क़ाफ़िया है
मुझे जब-जब मिली मंज़िल तो जाना
अभी आगे भी लम्बा रास्ता है
तुम्हीं समझे नहीं कोई इशारा
भला इसमें हमारी क्या ख़ता है
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ग़ज़ल-
आस्था की नींव कच्ची जबकि घर-घर देवता
मर न जाएँ एक दिन ईंटों में दबकर देवता
देखना तुम, ख़ुद से मिल जाएँगे इक दिन हम सभी
जिस्म होगा पहले खण्डर, फिर ये खण्डर, देवता
बस इसी ख़ातिर कभी उससे न मेरी निभ सकी
ढूँढता था वो हमेशा मेरे अंदर देवता
हो कहीं कुछ भी उसे महसूस क्यों होता नहीं
इस सदी में हो गया क्या सच में पत्थर देवता
ज़ुल्म कितना भी बढ़े पर तुम भरोसा ये रखो
कह गया है फिर से आयेगा पलटकर देवता
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ग़ज़ल-
कुछ तो हालात का आकलन कीजिए
हम कहाँ आ गये हैं मनन कीजिए
जीतने की गढ़ें फिर नई योजना
हार को प्रेम से अब सहन कीजिए
भावना जो उठे तो उठे प्रेम की
आपसी नफ़रतों का दमन कीजिए
कीजिए यत्न कुछ अपने उत्थान का
ग़ैर को देखकर मत जलन कीजिए
छोड़िये व्यर्थ में आईना देखना
आईने की तरह अपना मन कीजिए
जल रहीं बस्तियाँ है धुआँ ही धुआँ
तान चादर न घर में शयन कीजिए
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ग़जल-
जब मुलाक़ात ख़ुद से हमारी हुई
ज़िंदगी यूँ लगी जैसे हारी हुई
चोट इंसानियत के हृदय पर लगी
जब भी मजबूर बिकने को नारी हुई
दर्द जनता का जिसने न जाना कभी
कुर्सियों पर उसी की सवारी हुई
इस तरह से गले मिल के क्या फ़ायदा
गर दिलों में चमकती कटारी हुई
मेरे एह्सास को तुमने क्या छू दिया
जिस्म से रूह तक इक ख़ुमारी हुई
इसने तीखे सवालात सबसे किये
ज़िंदगी कब हमारी तुम्हारी हुई
– विकास प्रताप वर्मा