ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
रंग सारे रू-ब-रू हैं आज फिर
लो वही किस्सा शुरू है आज फिर
है वही फिर चाँद भी देखो हसीं
चाँदनी से गुफ़्तगू है आज फिर
हैं बिखेरी रात ने शबनम यहाँ
शबनमों-सी आरज़ू है आज फिर
सोचती हूँ बिन तेरे भी कुछ लिखूँ
पर करूँ क्या तू ही तू है आज फिर
क्या कहूँ अब क्या सुनूँ मैं तो ‘सुमन’
बस तेरी ही जुस्तजू है आज फिर
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ग़ज़ल-
मेरे दर्द की तुम दवा बनके आओ
जो माँगी थी मैंने दुआ बनके आओ
मैं तनहा बहुत ही तड़पती हूँ अक्सर
हैं विरानियाँ तुम सदा बनके आओ
घुटन हो रही है न चलती हैं साँसें
मेरे पहलुओं में हवा बनके आओ
बहुत बेबसी की मैं मारी हुई हूँ
सुनो तुम मेरे हमनवा बनके आओ
नहीं लग रहा है मुहब्बत में अब दिल
मेरी ज़िन्दगी में वफ़ा बनके आओ
नहीं कोई ख़्वाहिश मुझे ज़िन्दगी से
मुनासिब अगर हो, रज़ा बनके आओ
‘सुमन’ की थी चाहत बनो ज़िन्दगी तुम
अग़र हो न मुमकिन कज़ा बनके आओ
– सुमन मिश्रा