ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल
ज़ब्त कर ग़म को कि जीने का हुनर आयेगा
बाद पतझड़ के बहारों का सफ़र आयेगा
राह सहरा की चला है तो ये भी सुन ले तू
सोचना छोड़ दे रस्ते में शजर आयेगा
इतना ख़ुश भी न हो तूफ़ान गुज़र जाने पर
ये समुन्दर है यहां फिर से भंवर आयेगा
जिस पे हर सिम्त से ही आते रहे हों पत्थर
कैसे उस पेड़ पे फिर कोई समर आयेगा
आइना होना ही काफ़ी नहीं है कमरे में
साफ़ होगा वो तभी अक्स नज़र आयेगा
लेके इमदाद का झूठा-सा बहाना कोई
मुझको औक़ात बताने वो इधर आयेगा
अपने आगोश में ले लूंगा ज़िया मैं उसको
रात को चांद जो दरिया में उतर आयेगा
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ग़ज़ल
बढ़ा जो दर्द-ए-जिगर ग़म से दोस्ती कर ली
लहू जो आंख से टपका तो शायरी कर ली
किसी चराग़ से शिकवा नहीं किया मैंने
जलाया ख़ून-ए-जिगर और रोशनी कर ली
मैं नाज़ क्यूं न करूं अपने टूटे ख़्वाबों पर
कि ख़ुदकुशी भी इन्होंने ख़ुशी ख़ुशी कर ली
वो इक ख़ता हमें बर्बाद कर दिया जिसने
मज़ा ये देखो कि फिर से ख़ता वही कर ली
न तुम मिले न तुम्हारी कोई ख़बर आई
तुम्हारे शहर में दिन गुज़रा रात भी कर ली
है प्यार से ही ज़िया ज़िन्दगानी में रौनक़
तो ये न कहिये कि बर्बाद ज़िन्दगी कर ली
– सुभाष पाठक ज़िया