ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
सरो सामाँ उठाकर मैं निकल पड़ता हूँ यारो
यूँ अपने आप को बहलाने चल पड़ता हूँ यारो
फ़सुर्दा रूह तड़पे है मेरी अब क्या बताऊँ
अचानक बेइरादा क्यों मचल पड़ता हूँ यारो
अँधेरों की यूँ आदत हो गई मुझको जहाँ में
कि जुगनू भी दिखे तो आँखें मल पड़ता हूँ यारो
नहीं रखना तअल्लुक रिश्ते नातों से कोई अब
न दो मुझको दुहाई इनकी जल पड़ता हूँ यारो
हूँ ऐसे मह्वे-तन्हाई कि सबसे बेख़बर हूँ
इक आहट भी जो आये तो उछल पड़ता हूँ यारो
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ग़ज़ल-
तमाम उम्र गु़ज़रने के बाद मिलता है
ग़ज़ल का फ़न तो निखरने के बाद मिलता है
कभी-कभी हमें मिलती है रुकने से रफ़्तार
कभी मुक़ाम ठहरने के बाद मिलता है
तराशते हैं जिसे पत्थरों में हम अक़्सर
वो नाम तो हमें मरने के बाद मिलता है
निशाने-शहर नहीं रहता पहले-सा ऐ दोस्त!
जो आँधियों के गुज़रने के बाद मिलता है
है उसमें जीने का इक हौसला वग़रना कौन
बलन्दियो से उतरने के बाद मिलता है
किसी ने देखा कहाँ उसके अस्ल चेहरे को
वो सबसे सजने-सँवरने के बाद मिलता है
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ग़ज़ल-
शायरी के फ़न से दिल को मेरे इक ताक़त मिली
ये न थी पहले मगर अब लड़ने की हिम्मत मिली
दौर-ए-ग़ुरबत ने ये मौका दे दिया वरना कहाँ
दो घड़ी भी बात करने की हमें फ़ुर्सत मिली
क़र्ब का ये तज़्रबा भी मुख़्तलिफ़ है ऐ खुदा
धूप, शोले, खार की यकसाँ यहाँ सुहबत मिली
एक सफ़ में सबके सब आँखों को मून्दे जाते हैं
हर किसी के दिल से गुज़रा तो फ़क़त वहशत मिली
ज़िन्दगी जी लें अभी किसको पता हो बाद में
कौन दोजख़ में गया आखिर किसे जन्नत मिली
चंद लम्हों को मुनव्वर कर गुज़रती तो है पर
शम्अ को कब चाँद-सूरज सी यहाँ अज़्मत मिली
ये न समझें ज़िंदगी खाली हुई मेरी शकूर
सोचने को यूँ मुझे माक़ूल इक मुहलत मिली
– शिज्जू शकूर