ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
ज़रा-सी बात पे अक़्सर बवाल होता है
सवाल है भी नहीं, पर सवाल होता है
महज़ चराग़ जलाने से कुछ नहीं होता
जलाओ आग जो दिल में, कमाल होता है
उमर बढी है मगर है कहाँ जवां अब तो
जवान वो है जो अस्मत की ढाल होता है
पुराने दर्द कुरेदो न आज यूँ यारो
अभी भी दिल में ज़रा-सा मलाल होता है
ग़ज़ल की बात चली जब कभी भी महफ़िल में
क़रीब दिल के तुम्हारा ख़याल होता है
ख़ुदा करे कि कटे ज़िंदगी इबादत में
कहाँ किसी का मुकम्मल जमाल होता है
किसी दुआ की तरह वो जहाँ बरस जाए
‘सतीश’ सिर्फ़ वही मालामाल होता है
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ग़ज़ल-
ख़्वाबों में आज आना, कुछ पल ज़रा बिताना
मैं तुमको आजमाऊँ, तुम मुझको आजमाना
मजबूरियाँ हैं लेकिन, कुछ तो क़रीब आओ
आँखों में क़ैद कर लूँ, फिर दिल में तुम समाना
पहले-पहल ही मैंने, दिल की क़िताब खोली
इक़ फूल गुल्सितां का, पन्नों में तुम छिपाना
उम्मीद है कि मेरी, क़िस्मत सँवर ही जाए
हाथों की इन लकीरों, में क़ैद है ज़माना
गुस्ताख़ियाँ तुम्हारी, शायद हसीनतर हैं
पलकें कभी उठाना, पलकें कभी झुकाना
माना कि मेरी ज़ानिब, तुम हो नहीं मुख़ातिब
फ़िर भी है इल्तिज़ा ये, इक बार मुस्कुराना
आओ ‘सतीश’ मैं भी, कोई गुनाह कर लूँ
फिर फ़ैसला तुम्हारा, फिर तुम सज़ा सुनाना
– सतीश द्विवेदी