ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल
ख्वाहिशें बेहिसाब होने दो
ज़िन्दगी को सराब होने दो
उलझे रहने दो कुछ सवालों को
खुद ब खुद ही जवाब होने दो
तुम रहो दरिया की रवानी तक
मेरी हस्ती हुबाब होने दो
जागना खुद ही सीख जाओगे
अपनी आँखों में ख़्वाब होने दो
हार का लुत्फ़ भी उठा लेंगे
इक दफ़ा कामयाब होने दो
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ग़ज़ल
ख़ुद को साहिर समझने लगते हैं
हमको नाज़िर समझने लगते हैं
इतना ज़्यादा है मेरा सादापन
लोग शातिर समझने लगते हैं
थोड़ी-सी दिल में क्या जगह मांगी
वो मुहाज़िर समझने लगते हैं
हम सुनाते हैं अपनी ताबीरें
आप शाइर समझने लगते हैं
इक ज़रा से किसी क़सीदे पर
ख़ुद को माहिर समझने लगते हैं
जो समझने में उम्र गुज़री है
उसको फिर-फिर समझने लगते हैं
– संजू शब्दिता