ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
मुझे सच बोलने का हौसला दे
ख़ुदा, वरना मेरी हस्ती मिटा दे
हवा-पानी का तू मज़हब बता दे
या मज़हब की हर इक दिवार ढा दे
ग़रीबी भूख से कब तक लड़ेगी
अमीरे-शहर बस इतना बता दे
कभी मंदिर कभी मस्जिद पे बैठें
परिंदों-सी सिफ़त सबको ख़ुदा दे
हो जिसमें दर्द आज़र इस जहाँ का
ग़ज़ल ऐसी कोई मुझको सुना दे
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ग़ज़ल-
कभी जब फ़न-ए-आज़र बोलता है
गुमाँ होता है पत्थर बोलता है
हुआ है क़त्ल फिर मेरे यकीं का
तेरे लफ़्ज़ों का ख़ंजर बोलता है
गुनाहों में वो डूबा है मुकम्मल
मगर उन्वाने-हक़ पर बोलता है
न जाने कौन है, अहसास बनकर
हमारे दिल के अंदर बोलता है
जो सच्ची बात कल तक बोलता था
वही नेज़े पे अब सर बोलता है
ग़ज़ल में मीर दोहे में कबीरा
तो अफ़्साने में चन्दर बोलता है
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ग़ज़ल-
मेरे मालिक मुझे घर बार देना
मुहब्बत से भरा संसार देना
बचाये मुल्क की जो शानो-शौकत
हमें ऐसी कोई सरकार देना
बवाले-जाँ भी बन जाता है अक्सर
ज़रूरत से ज़ियादा प्यार देना
ख़लल डाले जो नेकी में तुम्हारी
तुम ऐसे धन को ठोकर मार देना
छपी क़ातिल की हो तस्वीर शायद
ज़रा देखूँ मुझे अख़बार देना
मैं शायर हूँ मेरा है काम आज़र
ज़माने को नये अश’आर देना
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ग़ज़ल-
क्या कहूँ है ज़मीं तंग मुझ पर बहुत
अहले-दुनिया ने फेंके हैं पत्थर बहुत
चाँद के रथ पे चढ़ के न इतराओ तुम
और भी हैं जहां इससे ऊपर बहुत
क्या मैं अपनी कहूँ, क्या मैं उनकी सुनूँ
इन दिनों तंग है मेरी चादर बहुत
मेरी रुस्वाई की उनको परवा नहीं
जिनकी बदनामी का है मुझे डर बहुत
ये दिया ज़िंदगी भर सलामत रहे
इसके दम से है रौशन मेरा घर बहुत
मेरी तख्लीक मरने न देगी मुझे
मर के भी याद आऊँगा आज़र बहुत
– रंजन आज़र