जो दिल कहे
खुशी की कोई चाबी नहीं होती!
26 मार्च को प्रधानमंत्री मोदी ने मन की बात में बड़े ही सरल शब्दों में बड़ी अच्छी बात कही कि ‘डिप्रेशन को सप्रेशन के बजाय एक्सप्रेशन की आवश्यकता है।’ इस वर्ष 7 अप्रैल को विश्व स्वास्थ्य संगठन(WHO) ने विश्व स्वास्थ्य दिवस को अवसाद (Depression) दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया है। इस समय पूरी दुनिया में 35 करोड़ लोग इस रोग से ग्रसित हैं अर्थात अर्ध विक्षिप्त अवस्था में। जो न स्वस्थ ही हैं ओर न ही रोगी।
तनाव या स्ट्रेस आजकल बहुत प्रचलित शब्द है। आजकल के माहौल में तनाव की अहमियत इतनी है कि कई लोग दूसरों को तनाव बाँटकर सफल और अमीर हो गए और उनसे ज्यादा लोग तनाव कम करने की दवा बेचकर धनी हो गए। तनाव पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि तनाव तो खतरनाक है ही, उसका ख्याल भी कम खतरनाक नहीं है। उनका कहना है कि तनाव का विचार भी इंसान को गंभीर रूप से बीमार कर सकता है।
चिकित्सा विज्ञान का भी कहना है कि जितना जरुरी यह है कि कोई भी व्यक्ति स्वस्थ हो, उतना ही जरुरी यह भी है कि वह व्यक्ति महसूस भी करे कि वह स्वस्थ है। शोध से पता चलता है कि अगर कोई इंसान यह सोचता है कि उसे कोई स्वास्थ्य से जुडी समस्या है, तो फिर सचमुच उसके उस समस्या का शिकार बनने की आशंका काफी बढ़ जाती है। बीमार होना या स्वस्थ होना इंसान के अपने सोचने के तरीके पर भी निर्भर करता है।
मनुष्य इस पृथ्वी का सबसे संवेदनशील प्राणी है जो न केवल भौतिक कारणों से अपितु मानसिक और सामाजिक कारणों से भी दुखी होने के अवसर ढूंढ ही लेता है। प्रकट में सभी मनुष्य सुख की तलाश करते प्रतीत होते हैं किन्तु अन्तत: सभी सुख, दुख का द्वार बन जाते हैं। दुख के दो स्वरूप हैं- एक शारीरिक और दूसरा मानसिक। यदि हम शारीरिक रूप से स्वस्थ नहीं हैं तो हमें शारीरिक दुख और यदि मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं हैं तो मानसिक दुख प्राप्त होता है।
एक स्वस्थ शरीर में ही एक स्वस्थ मन निवास करता है। यह पारस्परिक निर्भरता का मामला है। मन शरीर पर और शरीर मन पर निर्भर है। स्वस्थ होने का अर्थ है- स्वयं में स्थित होना। क्या हमने स्वयं को पहचाना है? यदि नहीं तो स्वयं को न जानना ही स्वस्थ न होने का प्रथम कारण है। जो स्वयं को जान जाता है, वह सरलता से स्वस्थ रह सकता है।
दुख न हो इसके लिये हमें स्वस्थ रहना होगा। स्वयं को जानने के लिये हमें अपने शरीर और मन दोनों को जानना होगा। शरीर को जानने से तात्पर्य है कि हमें शरीर की आवश्यकताओं और क्षमताओं को जानना चाहिये। तनाव हावी न हो, इसके लिए सबसे ज्यादा जरुरी है कि व्यक्ति अपनी महत्वकांक्षाओं और इक्षाओं को नियंत्रित करे। सबसे ज्यादा तनाव आगे बढ़ने, ज्यादा से ज्यादा पाने और सफल होने कि दौड़ में पैदा होता है। तनाव को सोचते रहने से यह घटेगा नहीं, इसलिए उसे ज्यादा नुकसान क्यूँ करने दिया जाये।
आज की भाग दौड़ की जिंदगी में अक्सर इस बात का एहसास ही नहीं हो पता है कि जिन अपनों के लिए हम इतनी भागदौड कर रहे हैं, तनाव में हैं, क्या वास्तव में उन्हें उसकी जरुरत है? क्या उन्हें वही चाहिए जो हम सोच रहे हैं? या इसके अतिरिक्त भी उन अपनों को कुछ चाहिए होता है, जो जाने अनजाने हम नहीं दे पा रहे हैं और जो दे रहे हैं कल जब वो भी देने की स्थिति में नहीं रह जाते, तो उन्ही अपनों से सीधा सा जवाब मिलता है कि आज तक आपने मेरे लिए क्या किया? फिर हमें वो सारी भागदौड याद आने लगती है कि इन्ही अपनों के लिए हमने क्या-क्या दुःख नहीं झेले? किस-किस से झगडा मोल लिया है? कितनों को दुःख पहुँचाया है? कहाँ-कहाँ झूठ बोले हैं। लेकिन तब हमारे हाथ कुछ भी नहीं लगता और संतोष के लिए हम नये ज़माने पर सारा दोष मढ देते हैं।
दोहरी मानसिकता के साथ जीते हुए हम सुख की तलाश में जिंदगी भर भटकते रहते हैं, लेकिन वह सुख हमें कभी हासिल नहीं हो पाता है। आखिर क्या वजह है कि पहले एक किसान का बेटा किसान रह कर अपने माँ-बाप को अधिक सुखी रख पता था। लेकिन आज एक किसान को बेटा अधिकारी हो, या एक अधिकारी का बेटा चतुर्थ वर्ग कर्मचारी। बेटे और माँ-बाप के बीच की दूरी घटने के बजाय, बढती जा रही है। ऐसा अकारण नहीं हो रहा है। आज एक बाप सुबह नौ बजे घर से निकलता है और दफ्तर हो या दुकान, रात के नौ–दस बजे तक अपने घर वापस लौटता है। तब तक बच्चे सो चुके होते हैं। उनकी सुबह गुड मोर्निंग से शुरू होती है। इसी दिनचर्या में बच्चे बड़े होते हैं। माँ-बाप अपनी क्षमता से विपरीत अपनी खुशियों को त्याग कर बच्चों को अच्छी और उच्च शिक्षा के लिए बाहर भेज देते हैं। फिर बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर, या ऑफिसर बन कर घर वापस लौटता है और इस बच्चे से हम उम्मीद करते हैं कि बुढापे में वो मेरे साथ रहे या मुझे साथ रखे। हम यह भूल जाते हैं कि बचपन में मैंने भी उसे अपने साथ नहीं रखा है या रखा भी है तो उस बच्चे को साथ रहने का एहसास नहीं हो पाया। हमने उसके भविष्य की चिंता कर अपनी जिम्मेवारी पूरी की। जब-जब उस खाने, पढ़ने, पहनने के लिए जितने पैसे की आवश्यकता हुई, हमने उसे दिया। आज वही बेटा, वही कर रहा है तो हमें तकलीफ क्यों होती है? एक मध्यमवर्गीय परिवार में सारी सुविधाएँ होने के बाद भी वृद्ध व्यक्ति दुखी है। वह कभी किसी से नहीं कहता कि उसके दुःख का कारण संसाधनों की कमी है, उसका एकमात्र दुःख है उससे कोई संवाद करने वाला नहीं है, उसके पास किसी को बैठने की फुरसत नहीं है।
आज का जीवन इतना एकाकी हो चुका है कि रिश्ते भी स्वार्थी हो गए हैं। रिश्ते और रिश्तेदारों के आपसी संबंधों में इतनी दूरी आ गयी है कि उसे पाटना अब आसान नहीं है। रिश्तों की खटास किसी खास रिश्ते तक सीमित नहीं है। पति-पत्नी के बीच बढती दूरी ने रिश्तों को स्वार्थ के चरम तक पहुँचा दिया है।
यह भी एक विडम्बना ही है कि जहाँ सारे विश्व के लोगों के बीच की दूरियों को आज के टेकनोलौजी ने घटा दिया है, वहीं पारिवारिक सामाजिक रिश्तों की दूरी बढती जा रही है और हम इन सबका समाधान खोजने के बजाय अवसाद की ओर बढते जा रहे हैं। इन दूरियों के पीछे जो अहम कारण है वह है हमारी संवादहीनता। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए किसी भी समस्या का समाधान बातचीत से ही निकलता है न की संवादहीनता से। संवाद है तो जीवन है। बोलना सीखे तो तालमेल बढ़ा, लिखना जाने तो दुनिया और करीब आयी। वे घर ही सबसे ज्यादा फले-फुले जहाँ आपसी संवाद अच्छी थी। दरअसल कई बार समस्या को देखने का जरिया ही हमारी समस्या बन जाती है। अंत में कहना चाहूँगा कि ‘अच्छा आदमी भी अगर हीनता की ग्रंथि से पीड़ित हो तो उस बुरे आदमी से भी बदतर होता है, जो हीनता की ग्रंथि से पीड़ित नहीं है। अप्रसन्न रहने की भांति प्रसन्न रहना भी एक क्रियाशील चुनाव है। खुशी की कोई चाबी नहीं होती है। वह अपने आप पनपता है। उसके लिए अवसर तो देना ही होगा न !!
– नीरज कृष्ण