ज़रा सोचिए
क्या हमारे भावों की दुनिया इतनी मृत हो गई है
– प्रगति गुप्ता
कहते हैं जब बुढ़ापा आता है तो व्यवहार बच्चों जैसा हो जाता है। कुछ हद तक यह कथन सच जान पड़ता है क्योंकि बुढ़ापे की ज़िद कुछ-कुछ बच्चों जैसी हो जाती है। जिसकी वजह से कई बार व्यवहार बच्चों जैसा प्रतीत होता है। बढ़ती उम्र के बच्चे शरीर और मस्तिष्क से सबल हो रहे होते हैं और बुजुर्ग इन दोनों ही दृष्टि से निर्बल। इसलिए उन दोनों के व्यवहार का सिर्फ कुछ प्रतिशत ही एक-सा होना माना जा सकता है। जिस तरह बच्चे ज़िद करते हुए, कभी अच्छे लगते हैं तो कभी परेशान करते हैं, उसी तरह बुजुर्गों का व्यवहार भी हो जाता है पर क्या हम अपने बुजुर्गों को बच्चों की ही तरह सोच पाते है? जिस दिन से हम ऐसा करना शुरू करेंगे, बच्चों के जैसे बुजुर्ग भी प्यारे लगने शुरू हो जाएंगे और कुछ इस तरह इस बुढ़ापे से जुड़ी समस्याओं के हल भी स्वतः ही निकलने शुरू हो जायेंगे। सोचकर देखिये तो!
आज सुबह-सुबह घर के कामों से जल्दी फ़ारिग होते ही मन में जब विचार आया कि आज क्लीनिक दस बजे की बजाय आठ बजे ही चला जाये। मन में विचार तो यह था कि समय से पहले पहुँच कर देखना था कि स्टाफ मेरे क्लिनिक पहुँचने से पहले क्या करता है? इसलिए बग़ैर फ़ोन किये, मैं क्लिनिक पहुँच गई। स्टाफ अपनी-अपनी ड्यूटीज के मुताबिक़ अपनी तैयारियों में लगा था। कुछ मरीज़ अपनी जांचों के लिए सैंपल दे चुके थे और कुछ अपनी बारी आने की राह देख रहे थे। स्टाफ को अपने-अपने कामों में लगा देख मन को अच्छा लगा और मुस्कुराकर मैंने उनका अभिवादन स्वीकार किया। फिर पूजा करके अपने चेम्बर में बैठ चाय बनाने को बोलकर, गत दिनों में आये मरीजों की रिपोर्ट्स को देख ही रही थी कि एक बहुत ही बुजुर्ग मरीज पर अनायास ही मेरी नज़र गई। उम्र क़रीब-क़रीब सत्तर-पिचहत्तर के आसपास लग रही थी मुझे। हाथ में कसकर पकड़ी हुई छड़ी और उसी छड़ी के साथ चिपका हुआ उनका वृद्ध शरीर , संबल लेकर खड़ा हुआ मुझे दिखा। क्लिनिक की पहली सीढ़ी पर पैर जमाने में छड़ी का सहारा होने पर भी, जब मैंने उनका संतुलन बिगड़ते देखा तो ,झटके से अपनी टेबल से उठकर मैं उनके पास जा पहुँची। इस काम के लिए मैं स्टाफ को भी आवाज़ लगा सकती थी पर इन सबके बीच उनका गिरना मुमकिन भी था। तुरन्त ही मैंने उस वृद्ध मरीज को संभाला और उनको अंदर लेकर आई। संतुलन बिगड़ने की वजह से बहुत घबरा गए थे वो। उनको संयत करने के लिए तथा उनके मन को विमुख करने के लिए मैंने उनसे उनका नाम पूछा। मेरे नाम पूछते ही उनकी आँखों में उतर आया पानी मेरी आँखों से अनभिज्ञ नहीं रह पाया।
“बेटा! दीनदयाल नाम है मेरा। शुगर की जाँच के लिए आया था, भूखे पेट वाली और बी. पी. भी नापना था। कुछ दिन पहले ही सब टेस्ट करवाये थे पर कल रात, बहुत बैचैनी थी सो सोचा आज जाँच करवा ही लेता हूँ।”
स्टाफ को ब्लड लेने को बोलकर, मैंने बी.पी. लिया। उनका बी. पी.काफी बढ़ा हुआ देख, मैंने उनसे यूँ ही पूछ लिया- “अकेले आये हैं आप? आपके बच्चे या कोई और रिश्तेदार नहीं आया आपके साथ?”
मेरे अचानक से पूछे गए प्रश्न को सुनकर बहुत ही सूनी-सी आँखों को मेरी आँखों में डालकर बोले- “आजकल समय कहाँ है बेटा! किसी के पास। सभी की अपनी-अपनी प्राथमिकताएं हैं। इतनी ज़िन्दगी निकल गई है, बाक़ी भी जैसे-तैसे निकल ही जाएगी। अब आदत हो गई है सब अकेले करने और चलने की। बेटा पैसे की कमी नहीं है मेरे पास, बस हाथ पकड़कर सहारा देने वाले नहीं हैं। जिस भाव के तहत तुम मुझे सीढ़ियों से गिरने से बचाकर अंदर लेकर आई, वो भाव अब मुझे इंसानों की आँखों में नज़र नहीं आते। बहुत मजबूत बनकर तुम्हारे क्लिनिक में घुसा था, पर तुम्हारा हाथ पकड़ना बहुत कमज़ोर कर, मुझे रुला गया बेटा। बहुत ख़ुश रहो हमेशा, ईश्वर तुम्हें खुशियां दे।” उनकी बातें मेरे अंदर स्वतः ही उतरती गयीं और मैं निःशब्द सोचने पर मजबूर होती गई।
क्यों कोई भी निशक्त बुजुर्ग तबियत ख़राब होने पर डॉक्टर के पास या अपनी जाँचों के लिए अकेला जाता है?
बेशक़ हम सभी के बच्चे हो या रिश्तेदार पर अगर इनमें से कोई भी आने में असमर्थ है या आना नहीं चाहता तो क्या हमारे भावों की दुनिया इतनी मृत हो गई है कि हम उस वृद्ध का पड़ोसी होकर भी नहीं सोच सकते! सोचिए ज़रूर।
हम सभी किसी न किसी के पड़ोसी हैं। तो फिर ऐसी स्थिति क्यों आये किसी बुजुर्ग के लिए। अगर हम सबल होकर किसी का सहारा नहीं बन सकते तो हमसे दुर्बल तो कोई भी नहीं। ज़रा सोचिए!
किसी भी निर्बल का इलाज़ न हो पाना सिर्फ हमारे भावविहीन होने का परिचायक है। अपने इंसान होने की परिभाषा को मत बदलने दीजिये। भाव हैं तो ही हम इंसान हैं। यही है सच की सबलता। सोचकर देखिये तो!
– प्रगति गुप्ता