क्या विचारों को अभिव्यक्ति की आवश्यकता है?
हर रोज एक नया विचार मेरे मन की देहरी पर राह तकता है।
कोई सोचे,कोई समझे,कोई सुने,कोई गुने,..उसे ये लगता है।
मैं चाहती हूं हर बार कि लाकर रख दूं सबके सामने उसको,
क्या आप सहमत हैं “विचारों को अभिव्यक्ति की आवश्यकता है?”
जब से होश सम्भाला है तब से एक आदत सी बन गई है अपने मन की डायरी के पन्नों पर लिखती रही हूँ मैं। अपनी सोच, अपना नजरिया, अपने अनुभव, अपनी अच्छी-बुरी यादें, अपनी गल्तियां…सब कुछ; क्योंकि शायद आत्मविश्वास की कमी के कारण मुझे अभिव्यक्त करने में हमेशा संकोच रहा। यही वो वजह भी है कि मैं कुछ भी कहने के पहले कहती हूं, “मुझे लगता है”… या.. “मैं ऐसा सोचती हूं”…..”शायद”… “अक़्सर”….क्योंकि मैं अपना नजरिया किसी पर थोपने या लादने की पक्षधर नही हूँ।
जब से सोशल मीडिया से जुड़ी हूँ, मैंने एक बात महसूस की है सुबह उठते ही सुप्रभात के साथ सुविचारों का सिलसिला शुरु होता है। साथ ही शुरु होता है कुछ खबरों और कुछ चुटकुलों के साथ कुछ गन्दे और भद्दे संवादों का सिलसिला..अब ये हम पर निर्भर करता है कि हम इनमें से क्या ग्रहण करते हैं… किसे अपनाते हैं, किस पर हंसते हैं किस पर दुखी होते हैं, किससे सहमत होते हैं, किससे असहमत होते हैं, किसे प्रचारित करते हैं, किसे प्रसारित करते हैं, किसे मिटाते हैं, किसे आत्मसात करते हैं!
हर सुबह कोई-न-कोई नया मुद्दा दे जाती है विचारों को। आज एक मित्र ने कहा, तुम अपने विचार सोशल मिडिया में क्यों नहीं लिखती? तो आज मैंने सोचा सही तो है अभिव्यक्ति से विचारधारा बनेगी, तब लोगों की पसंद-नापसंद से मनोबल तो बढ़ता ही है बल्कि सहमति और असहमति विचारधारा को दिशा देती है। एक सकारात्मक और प्रेरक सोच को सही तरीके से लोगों के सामने रखा जाए तो सकारात्मक परिवर्तन भी संभव है। कभी-कभी छोटी सी बात के बदलते ही नए विचारों का सृजन हो जाता है और कई बार वैचारिक क्रांति भी जन्म लेती है।
मेरी सोच हमेशा से यही कहती है कि विचारों को प्रभावित करते हैं- तन, मन, अन्न, धन और जन। अब सवाल ये है कि मुझे ऐसा क्यों लगता है? तो चलिए एक क्रम से बताती हूँ कि मैं ऐसा क्यों सोचती हूं पर एक बात बताती चलूँ कि मेरा मानना ये है कि कोई भी कहावत या मुहावरा बहुत-सी कसौटियों पर कसे जाने के बाद ही बनता है।
सबसे पहले बात करें ‘तन’ की तो पुरानी कहावत है “पहला सुख निरोगी काया”…. पहले के लोग योग-ध्यान-साधना और व्यवस्थित दिनचर्या का पालन करते थे…..चित्त शांत और व्यवस्थित रहता था। प्रेम, गुस्सा, विरोध, आक्रोश सभी भावों को व्यक्त करने के लिए एक व्यवस्थित तरीका होता था। आज भागमभाग की जीवनशैली में सब कुछ अनियमित, अव्यवस्थित होता जा रहा जिसका सबसे बड़ा परिणाम है ‘तनाव’ और तनाव के कारण बनती हैं विकृत मानसिकता, कई मत और मतभेद…. जो पूरी तरह विचारों को प्रभावित करते हैं।
फिर आता है मन..क्योंकि कहते हैं “मन के हारे हार है,मन के जीते जीत”… मन संतुलित हो तो सकारात्मक विचार जन्म लेते हैं अन्यथा नकारात्मक विचार।
कहा जाता है “जैसा खाए अन्न वैसा होए मन”…..पुराने ज़माने के लोग जो शुद्ध खाते थे तो विचारों पर तटस्थता भी कायम रहती थी। विचारो की कोमलता या कठोरता कायम रहती थी। आज हम मिलावट और रसायनों से पनपा हुआ अन्न खाते हैं और वैसा ही मिलावटी व्यवहार भी करते हैं, जिसे कह सकते हैं “मुंह देखी बात करना” क्योंकि हम आज ऐसी ही जीवनशैली जी रहे हैं जहाँ सब कुछ सिर्फ दिखावा है, न हम ठीक से हंस पाते न रो पाते!
धन की भूमिका तो और भी रोचक है क्योंकि “बाप बड़ा न भैय्या,सबसे बड़ा रुपैय्या” ऐसी दशा में विचारों की कीमत जेब के वजन के हिसाब से लगाई जाती है। यहां ये कह सकती हूँ कि विचारों का मोल आर्थिक स्तर पर निर्भर करता है क्योंकि छोटे लोगों के अच्छे विचारों का भी कोई बाज़ार मूल्य नहीं जबकि बड़े लोगों की जीवन शैली ही विचारधारा बन जाती है।
अब बचा ‘जन’ यानी लोग तो आज का “सबसे बड़ा रोग,क्या कहेंगे लोग” जो लोगों को सोचने पर मजबूर तो करता है पर कहने या करने से रोकता है। आसपास के जन समुदाय विचारों पर अवश्यमेव असर डालते हैं क्योंकि “संगत का असर” पड़ता ही है!
इस तरह मैं मानती हूँ मेरे विचारों को प्रभावित करने वाले कारकों यानि तन, मन, अन्न, धन और जन के संपर्क में रोज मेरे विचारों को एक नई सोच और नजरिया मिलता है।.मुझे लगता है ऐसे में ‘अभिव्यक्ति’ एक सशक्त माध्यम है जिससे शायद एक दिन वाकई किसी वैचारिक क्रांति की प्रणेता बन सकूँ!
क्या आप मुझसे सहमत हैं?
क्या विचारों को अभिव्यक्ति की आवश्यकता है??
– प्रीति सुराना