उभरते-स्वर
क्या लिखूँ, कैसे लिखूँ
कविता लिखना चाहती हूँ
पर हर बार मेरी खुद की द्वन्दात्मक भावनाएँ
लड़ बैठती है आपस में
जीवन के किस रंग को उड़ेलूं कागज पर
यही सोच
कागज को कोरा छोड़ देती हूँ
सुख लिखूँ तो
दुख अछूता रह जाता है
दुख लिखूँ तो
कागज़ थोड़ा लगता है
किसको छोडूँ, किसको पकड़ूँ!
दोनों ही तो जीवन के पहलू हैं
सुख की अभिलाषा
दुख का परिताप
इन भावों से परे अपने अंतर्द्वंद
कारण
कैसे लिखूँ कविता और
अगर लिखूँ भी तो लिखूँ क्या
क्या उसमें समा पाएँगे
सारे के सारे जीवनगत यथार्थ?
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अरमानों का सपना
औरतों को पूरी खुशी
बड़ी किस्मत से मिलती है
ये वो फूल है
जो कभी-कभी ही खिलती हैं
अजनबी व्यक्ति की सोहबत
क्या लेकर आएगी
प्यार मिल जाए तो सबकुछ
वरना दर्द ही देकर जाएगी
वो दौर कुछ और था
जब उम्र होने पर अर्थी उठती थी
अब तो डोली पहुँची नहीं कि
अर्थी सज जाती है
बाबुल के अरमानों का सपना
चूर-चूर हो जाता है
जब बेटी की दहेज-हत्या
आत्महत्या बन जाती है।
– राधा शैलेन्द्र