क्या रिश्तों में अपेक्षा अनपेक्षित है?
अक़्सर पढ़ा और सुना कि सुखी रहना चाहते हो तो किसी से अपेक्षा मत रखो पर क्या ये संभव है? मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जो एक दूसरे के विचारों, संस्कृति, भाषा, धर्म, दृष्टिकोण आदि में देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार सामन्जस्य रखते हुए साथ-साथ गुजर बसर करते हैं।देश के नागरिक अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग धर्म कर्म और धन के आधार पर समाज का निर्माण करते हैं जिसकी इकाई व्यक्ति होता है। एक व्यक्ति ईश्वर से भक्त का, जिससे जन्म लेता है उससे माता/पिता का, जिसे जन्म देता है उससे पुत्र/पुत्री का, जो माता पिता के आत्मज होते हैं उनसे भाई/बहन का, जिससे विवाह करता है उससे पति/पत्नी का, जिसके साथ काम करता है उससे सहकर्मी का, जिसका काम करता है उससे कर्मचारी का, जिससे अपने काम करवाता है उससे मालिक का, जिसके पड़ोस में रहता है उसके पडोसी का, जिससे सीखता है उससे शिष्य का, जिसे सिखाता है उससे गुरु का और इसी तरह हर पल, हर क्षण कोई न कोई रिश्ता जीता ही है।
अब कल्पना कीजिये इन रिश्तों में अपेक्षा के न होने की….ईश्वर से प्रार्थना की कि मेरा भला हो और उसी पल कोई हादसा हो जाए तब ईश्वर से प्रार्थना में बचाव की फरियाद या अपेक्षा नहीं होती? क्या ईश्वर को भी भक्तों से भक्ति की अपेक्षा नहीं होती? क्या माता/पिता शिशु को जन्म देकर उसकी परवरिश बिना किसी अपेक्षा के करते हैं? क्या संतान को माता-पिता से कोई अपेक्षा नहीं होती? क्या भाई -बहन का स्नेह भी सचमुच बिना अपेक्षा का होना चाहिए? क्या एक मालिक अपने कर्मचारी से वेतन के बदले काम की अपेक्षा न करे? क्या एक कर्मचारी अपने मालिक से वेतन के साथ उत्तम व्यवहार की अपेक्षा न करे? पडोसी या सहकर्मी से सुविधाजनक सहयोगात्मक व्यवहार न रखे? गुरु से आशीर्वाद और शिष्य से विनय की अपेक्षा न हो? देश के नेताओं से देश के विकास की अपेक्षा न हो? नागरिकों से संविधान के नियमों के पालन की अपेक्षा न हो?
मैंने नहीं देखा कोई भी रिश्ता जो अपेक्षाओं के बिना बना हो या निभा हो। प्यार-मनुहार, व्यापार-व्यवहार, उपकार-उपहार ज़रुर कोई न कोई अपेक्षा ही वजह होती है हर रिश्ते की। माना यह एक सच्चाई ही है कि “अपेक्षा ही उपेक्षा का मूल कारण है” पर कोई अपेक्षा न करना “उपेक्षा से बचने का तरीका” भले ही हो पर सच ये भी है कि अपेक्षा विहीन रिश्ते का कोई अर्थ ही नहीं बल्कि वो तो जिम्मेदारियों से भागने के बहाने होनेवाली रिश्तों से विरक्ति है क्योंकि ईश्वर की भक्ति फल की आशा से ही सार्थक है भले ही मोक्ष या मुक्ति हो पर भक्ति का भी उद्देश्य होता है। माता पिता, बच्चों की परवरिश के साथ सुरक्षित भविष्य की कामना करते ही हैं। बच्चे अपने अभिभावकों से स्नेह, सुरक्षा और मार्गदर्शन की उम्मीद करते हैं,.. किसी मित्र ने मुझसे कहा अपेक्षा और निर्भरता दो अलग चीजें हैं । मनुष्य सामजिक प्राणी होने के नाते निर्भर जरूर होता है किन्तु अपेक्षा किसी लालसा की पूर्णता या अपूर्णता को भी इंगित करती है और उपेक्षा ईर्ष्या क्रोध जन्म देती है।
मैं एक साधारण गृहिणी हूँ। मैं अपनी ही बात करती हूँ। मैं अपने पति पर निर्भर हूं, इस निर्भरता के चलते केवल भरण पोषण से मेरा काम चल सकता है। मैं अच्छा खाना बनाती हूं बच्चों और घर की जिम्मेदारी निभाती हूँ, एक रुटीन है जो चल रहा है। छुट्टी वाले दिन बच्चे डिमांड करते हैं कुछ स्पेशल बने.. कभी मेरा मन करता है पति मुझे घूमने लेकर जाए, कभी पति किसी आर्थिक समस्या में हो तो मुझसे चाहते हैं कि हाथ खींचकर खर्च करुं। अगर मैं बीमार हूं और पति मुझे हॉस्पिटल ले जाकर चेकअप करा दे, दवाइयां ला दे…पर मैं अपेक्षा करती हूँ कि दवाइयाँ वो खुद दे कुछ देर मेरे साथ बैठे। ये सब अपेक्षाएं ही तो हैं। केवल निर्भरता तो घर की कामवाली बाई भी नहीं चाहती, उसका भी काम में मन तब ज्यादा लगता है जब उसे अपनापन मिलता है। जबकि उससे तो हमारा सिर्फ वेतन और काम का रिश्ता है वो वेतन के लिए और हम काम के लिए निर्भर हैं।
मेरा मानना है, निर्भरता ही तो अपेक्षा की जननी है। ये छोटी-छोटी अपेक्षाएं ही तो रिश्तों में रस घोलती हैं। उपेक्षा, झगड़े,नोंकझोंक जीवन को खट्टे मीठे स्वाद देते हैं….अनुभव देते हैं। अपेक्षा हिंसात्मक रूप कभी नहीं लेती। अगर अपेक्षा प्रेम में हो, रिश्तों में हो, जब रिश्ते ही विकृत हों, सोच ही नकारात्मक हो तो बात और है अन्यथा जीवन को उत्साह से जीना हो तो जिन पर निर्भर हैं उसने ही तो हम प्रेम,सहयोग,परवाह और प्रशंसा की अपेक्षा रखेंगे।
ये मेरी व्यक्तिगत सोच है, जरुरी नहीं सभी सहमत हों। कुल मिलाकर मुझे तो यही लगता है कि इसी तरह सभी रिश्ते अपेक्षाओं के आधार पर ही बने हैं। हाँ, ये बात भी गौर करने योग्य है कि अति अपेक्षा न हो क्योंकि “अति सर्वत्र वर्जयेत्।”
देखिये न मैंने इतना कुछ लिखा। बहुत से शब्दों और आशयों की पुनरावृत्ति की। एक लेखक अपने पाठकों से अपेक्षा तो करेगा ही न कि उसका लिखा पढ़ा जाए। मुझे भी अपेक्षा है आप सबसे कि मेरा लिखा पढ़ें और प्रतिक्रिया भी दें। आप प्रतिक्रिया नहीं देते हैं तो हमारे बीच लेखक और पाठक का रिश्ता नहीं बनेगा। आप अच्छी प्रतिक्रिया देते हैं तो रिश्ता मधुर बनेगा। आप बुरी प्रतिक्रिया देते हैं तो भी लेखक और पाठक का रिश्ता तो बनेगा ही, भले ही भाव उपेक्षा के हों क्योंकि मैंने आप सबसे प्रतिक्रिया की अपेक्षा की।और अपेक्षा ही उपेक्षा का कारण होता है… 🙂
ख़ैर!! आपसे जो भी मिलेगा सिर आंखों पर क्यूंकि आप और हम एक समाज में रहते हैं और इस नाते हमारा इंसानियत और अपनेपन का रिश्ता तो है ही और
अपनों से रिश्ता है तभी अपनों से अपेक्षा है,
उपेक्षा होती ही इसीलिए है क्यूंकि अपेक्षा है,
नहीं जीना मुझे रिश्तों को विरक्ति वाले भावों से,
क्यूंकि रिश्ते तभी जीवित हैं जब रिश्तों से अपेक्षा है.
– प्रीति सुराना