ख़ास-मुलाक़ात
केवल लघु पत्रिकाओं से ही आशा शेष है: अनिल अनवर
जोधपुर के वरिष्ठ साहित्यकार अनिल अनवर इस शहर की लगभग हर साहित्यिक गतिविधि में और हर मंच पर देखे जाते हैं। चेह्रे पर शालीनता, सहजता के भाव और मुस्कराहट लिए वे हर किसी से बहुत आत्मीयता से मिलते हैं। ख़ास तौर से युवा रचनाकारों का भरपूर हौसला बढ़ाते हैं। मैं भी उन युवाओं में से एक हूँ जिन्हें अनवर साहब ने ख़ूब उत्साह दिया है। वर्ष 2014 में जोधपुर आकर इनका सानिध्य प्राप्त करने से बहुत पहले ‘मरु गुलशन’ और अनवर साहब के नाम व काम से बा-ख़ूबी वाक़िफ़ हो गया था और इसी वजह से बड़ी चाह थी इनसे मुलाक़ात की। यहाँ आकर जैसा सुना था, उससे कई गुणा ज़्यादा पाया इन्हें। और तभी से आप एक आदर्श की तरह मन में बैठ गए थे। आज साहित्य के क्षेत्र में जो थोड़ा-बहुत कर रहा हूँ उसके लिए शुरूआती प्रेरणाओं में हैं अनिल अनवर साहब।
इनकी सबसे बड़ी ख़ासियत इनकी विनम्रता है। एक लम्बे अरसे तक विभिन्न संस्थाओं और ‘मरु गुलशन’ पत्रिका के ज़रिये जोधपुर शह्र में साहित्यिक मशाल लिए उजाला बाँट रहे अनवर साहब से हुई ख़ास-मुलाक़ात लेकर प्रस्तुत हूँ आप सबके लिए। उम्मीद करता हूँ यह बातचीत हम सबके लिए प्रेरक होगी।
– के. पी. अनमोल
अनमोल- अपने शुरूआती निजी एवं साहित्यिक जीवन के बारे में कुछ बताएँ।
अनवर साहब- मेरा जन्म ननिहाल (सीतापुर, उ.प्र.) में 27 सितम्बर, 1952 को हुआ। यद्यपि आधिकारिक जन्मतिथि 20 फरवरी, 1953 अंकित है। पूर्वज ग्राम मुंशी दरियाव लाल का पुरवा, ज़िला सुल्तानपुर, उ.प्र. के रहने वाले थे पर दादाजी कराची व पिताजी कानपुर में नौकरी करते थे, अतः गाँव छूट गया था। मेरी परवरिश तथा शिक्षा (बी.एस सी. तक) कानपुर नगर में हुई।
1971 के भारत-पाक युद्ध के समय मैं देशभक्ति के प्रवाह में वायुसेना में भर्ती हो गया। यद्यपि मेरे पिता जी मुझे कॉलेज में विज्ञान का प्रोफेसर बनाना चाहते थे इसीलिये मुझे विज्ञान के विषय पढ़ने पड़े जबकि मेरा रुझान साहित्य में था। मैं बचपन से साहित्य का अच्छा पाठक रहा तथा आठवीं कक्षा में आने तक हिन्दी गद्य के तमाम लेखकों की कृतियाँ पढ़ चुका था। दसवीं कक्षा तक अन्य भारतीय भाषाओं- बांग्ला, कन्नड़, मराठी, पंजाबी आदि के लेखकों की हिन्दी में अनूदित कृतियाँ ख़ूब पढ़ीं। इण्टर में अंग्रेज़ी व अन्य यूरोपीय भाषाओं के लेखकों को पढ़ना शुरू कर दिया।
लगभग इसी समय जब मेरी आयु 15-16 वर्ष की रही होगी, मेरा मन गद्य से उचट गया और कविता में अधिक रमने लगा। तब मैंने ढूंढ-ढूंढ़ कर हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के कवियों की पुस्तकें पढ़ीं। इन्हीं किशोरावस्था के पलों में मेरी माँ के देहान्त के बाद जीवन में विमाता का आगमन हुआ और मन में वैराग्य का। घर अच्छा न लगने से बाहर प्रेम की तलाश भी शुरू हुई। जीवन में दुःख के पदार्पण के साथ ही अनुभूतियाँ स्वतः काव्य में ढलने लगीं। यह मेरा शुरुआती साहित्यिक जीवन था, जो 13-14 वर्ष की उम्र से 19-20 वर्ष की उम्र तक रहा।
इस दौरान थोड़ा गद्य-पद्य रचा गया, छपा भी। एक लघुपत्रिका- ‘अभिलाषा’ मासिक का सह सम्पादक भी बना, जो कानपुर से श्री शान्ति स्वरूप शर्मा ‘हेमन्त’ निकालते थे। वे मेरे मोहल्ले के प्रतिष्ठित साहित्यकार थे। इस पत्रिका के प्रवेशांक के लोकार्पण पर एक भव्य कवि सम्मेलन भी हमने आयोजित किया, जिसकी अध्यक्षता सुप्रसिद्ध गीतकार प्रो. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’ ने की तथा जिसमें राधेश्याम ‘बन्धु’, सोम ठाकुर, सूर्यनारायण पाण्डेय जैसे दिग्गज कवियों के साथ मैंने पहली बार मंच पर काव्यपाठ किया तथा भरपूर प्रशंसा पाई। ‘अभिलाषा’ पत्रिका के कुछ ही अंक निकल पाये और फिर वह आर्थिक संसाधनों के अभाव में दम तोड़ गई मगर तभी मेरे युवा मन ने संकल्प ले लिया था कि कभी मैं भी कोई पत्रिका अवश्य निकालूँगा और उसे आर्थिक कारणों से बन्द नहीं होने दूँगा।
अनमोल- आपके नव रचनाकार को किस तरह का साहित्यिक परिवेश मिला? किस साहित्यकार ने सर्वाधिक प्रभावित किया।
अनवर साहब- मुझे नव रचनाकार के रूप में युवावस्था में अच्छे पुस्तकालयों व साहित्यिक मित्रों का साथ मिला। अपने विद्यालय की पत्रिका तथा हिन्दी के अध्यापकों का मैं विज्ञान का विद्यार्थी होते हुए भी प्रिय पात्र था। कानपुर की दो-एक संस्थाओं- ‘देवदूत’ तथा ‘अभिलाषा’ का मैं सक्रिय सदस्य था। टीन एजर्स लीग नाम की संस्था मैंने स्वयं अपने मित्रों के साथ इसी हेतु से गठित की थी, जिसमें 13-19 वर्ष के बालक-बालिकाएं मिलकर साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन किया करते थे। अन्त्याक्षरी (फिल्मी नहीं, साहित्यिक) आयोजन, वाद-विवाद, नाटक, संगीत व कविता के कार्यक्रम हम लोग अपने स्तर पर बचपन में ही करने लगे थे।
तत्कालीन साहित्यिक परिवेश बहुत अच्छा था। भारतीय गद्य साहित्यकारों में उन दिनों मुझे प्रेमचन्द, देवकीनन्दन खत्री, शरतचन्द्र, एस एल भैरप्पा, शिवानी, सआदत हसन मण्टो, इब्ने सफी, कुशवाहा कान्त, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, वृन्दावन लाल वर्मा आदि अनेक लेखकों ने बहुत प्रभावित किया। कविता में गोपाल सिंह नेपाली, महादेवी वर्मा, जोश मलीहाबादी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, साहिर लुधियानवी, रवीन्द्र नाथ ठाकुर, सुब्रम्हण्यम, शिव बटालवी, गया प्रसाद शुक्ल सनेही, दिनकर, मैथिली शरण गुप्त आदि आदि। नाम सैकड़ों हैं। अच्छी कविता जिसकी भी पढ़ी भाव विभोर हो गया।
अनमोल- अपनी अब तक प्रकाशित कृतियों के बारे में कुछ जानकारी दीजिए।
अनवर साहब- मेरी अब तक तीन ही कृतियाँ छपी हैं। क्योंकि मैं स्वयं अपनी कृति छपवाता हूँ, किसी प्रकाशक से नहीं। साधन सीमित हैं और पत्रिका- ‘मरु गुलशन’ भी मैं स्वयं ही प्रकाशित करता रहा, जिसके एक-एक अंक के प्रकाशन पर मेरा उतना समय, श्रम व धन तो व्यय हुआ ही जितना एक पुस्तक प्रकाशित करने में होता, अतः अब तक प्रकाशित पुस्तकें तीन ही हैं।
1- आस्था के गीत (1995)
2- गुलशन: मजमूआ-ए-नज़्म (2011)
3- विमल करो मन मेरा (2014)
इनमें से एक नज़्म संग्रह व दो आध्यात्मिक काव्य संग्रह हैं।
अनमोल- कवि, गीतकार, ग़ज़लकार और संपादक….इन सबका तो मैं गवाह रहा हूँ। और भी किसी रूप में साहित्य सेवा कर रहे हैं? किस रूप को अपने सबसे नज़दीक पाते हैं और क्यूँ?
अनवर साहब- कवि, गीतकार, ग़ज़लकार, सम्पादक के अतिरिक्त मैं सर्वप्रथम साहित्य का पाठक व श्रोता रहा हूँ। एक रूप साहित्य के आयोजनकर्ता का भी मान सकते हैं। जोधपुर की कुछ साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ कर यह काम भी मैं ख़ुशी के साथ करता रहा हूँ। मैंने अपनी साहित्यिक ऊर्जा को अनेक दिशाओं में स्वेच्छा से बिखरने दिया है किसी एक विधा या कार्य पर केन्द्रित नहीं किया क्योंकि साहित्य को मैंने आनन्द प्राप्त करने के लिये अभिरुचि के रूप में चुना, कोई मुक़ाम हासिल करने का उद्देश्य नहीं रक्खा। किसी विधा का विशेषज्ञ, किसी प्रकार की अथॉरिटी बनने को मैंने कभी भी अपना लक्ष्य नहीं माना।
जहाँ तक आपके इस सवाल का ताल्लुक है कि किस रूप को अपने सबसे नज़दीक पाता हूँ और क्यों? तो इसके जवाब में मैं यही कहना चाहूँगा कि मुझे अध्यात्म में ही सर्वाधिक आनन्द मिलता है जबकि आज के अनेक साहित्यिक आलोचक भक्ति साहित्य को सिरे से ही ख़ारिज़ करते हैं।
अनमोल- आपने बहुत अच्छी ग़ज़लें कही हैं। ग़ज़ल की किन ख़ूबियों ने अपनी ओर मुतास्सिर किया?
अनवर साहब- शुक्रिया, कि आपको मेरी ग़ज़लें अच्छी लगी हैं। ग़ज़ल की सबसे बड़ी ख़ूबी मुझे यही लगती है कि इस विधा में श्रोता/पाठक से सम्प्रेषण की अद्भुत क्षमता है। जो बात आप आधे घण्टे के व्याख्यान से नहीं समझा पाते, शे’र के दो मिसरे वही बात झट से समझा जाते हैं। मिर्ज़ा ग़ालिब को इस काम में महारत हासिल थी। भारत में ग़ज़लें उनके कारण बहुत लोकप्रिय हुईं। ग़ज़ल की बहरें घोट कर चाट जाना और अरूज़ी शाइर का तमग़ा हासिल कर लेना उतनी बड़ी बात नहीं, जितनी ग़ालिब का अंदाज़े-बयां अर्थात श्रोता/पाठक को अपनी शाइरी से प्रभावित करना है और यह काम सादगी, सलीसगी से हो सकता है, पेचीदगी और चमत्कार दिखाने से नहीं। मेरी कोशिश भी सादा ज़बान में शे’र कहने की ही रहती है। उस्तादे-मोहतरम आली जनाब प्रेमशंकर श्रीवास्तव ‘शंकर’ साहब ने भी यही दर्स दिया था।
अनमोल- आज की ग़ज़ल के सामने क्या चुनौतियाँ हैं और किन-किन बातों का ख़याल रखे जाने की ज़रूरत है?
अनवर साहब- दौरे-हाज़िर की ग़ज़ल रिवायती शाइरी से थोड़ी-सी मुख़्तलिफ़ है। ग़ज़ल के पुराने प्रतिमान आज के पेचीदा सवालात के साथ इंसाफ़ नहीं कर सकते हैं। मगर रिवायतों का पूरी तरह से बहिष्कार भी ग़लत माना जायेगा। ग़ज़लकार को उर्दू ग़ज़ल के शिल्प के अध्ययन की आज भी उतनी ही ज़रूरत है जितनी मीर के वक़्त में थी। फिर भले ही वह प्रयोग करता रहे और नये-नये मौजूआत पर क़लम चलाये। हिन्दी ग़ज़लकार हो या बांग्ला ग़ज़लकार, ग़ज़ल कहना है तो ग़ज़ल के उर्दू छन्दों का अध्ययन अवश्य करे, यह मेरी सोच है। आज के कई ग़ज़लकार मुझसे असहमत भी हैं। हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में ग़ज़ल कहने/सिखाने के विशेषज्ञ पैदा हो गये हैं। छन्दशास्त्र रचे जा रहे हैं। मगर फिर भी मेरा मानना है कि ग़ज़ल को जानने/समझने व कहने के लिये उर्दू भाषा के किसी उस्ताद शाइर से मदद/इस्लाह ज़रूर लेनी चाहिये। हाँ, अश्आर समकालीन विषयों पर अवश्य रचे जायें। तभी ग़ज़ल वर्तमान समय की चुनौतियों पर खरी उतर सकेगी। सिर्फ काफ़िया मिलाने के लिये ही शे’र कहने से बचना चाहिये। शे’र कम हों मगर अच्छे होने चाहिये।
अनमोल- गीत आपको बेहद प्रिय हैं, कोई ख़ास वजह? गीतों के वर्तमान से कितना संतुष्ट हैं?
अनवर साहब- जी, आपने सही फ़रमाया, गीत मुझे बेहद प्रिय हैं। मूलतः आप मुझे गीतकार भी मान सकते हैं। मेरे काव्य सृजन का आरम्भ ही गीतों से हुआ था। साठ-सत्तर के दशक में गीत ही पद्य साहित्य के केन्द्र में आ चुके थे। वरिष्ठ हिन्दी, बृजभाषा व अवधी के छंदकार गीतों की ओर मुड़ चुके थे। मैं भी तब युवा था। गीतों के सम्मोहन से बच न पाया। धीरे-धीरे एक साहित्यिक षड़यंत्र के तहत गीतों को काव्य की मुख्यधारा से दूर करके छंदमुक्त कविता को स्थापित करने का खेल चला, जो आज भी जारी है मगर गीत की मौत नहीं हो सकी। केवल आलोचकों/समीक्षकों की कोपदृष्टि इसे जनता से दूर नहीं कर सकी। आज भी लाखों-करोड़ों लोग गीत को काव्य की सर्वोत्कृष्ट विधा मानते हैं। इसे कोई मिटा नहीं सकता। गीत-नवगीत, लोकगीत, जनगीत, फिल्मी गीत- किसी भी नाम से पुकारा जाये, प्रथमतः और अंततः गीत ही रहेगा। मैं गीतों के वर्तमान से संतुष्ट हूँ और भविष्य के प्रति आश्वस्त भी।
अनमोल- जी, सहमत हूँ आपसे। अब तो गीत विधा भी अपनी ऊंचाइयों पर है और वर्तमान में हिन्दी के पास अनेक उत्कृष्ट गीतकार मौजूद हैं।
अनमोल- ‘मरू गुलशन’ का सालों तक सफल संपादन करने के बाद हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता पर क्या कहेंगे?
अनवर साहब- हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के सम्मुख अनेक संकट विद्यमान हैं, जिनमें सबसे प्रमुख है- ‘हिन्दीभाषी लोगों का अपनी भाषा और साहित्य से कट जाना।’ यह बहुत बड़ी विडम्बना ही कही जायेगी कि वर्तमान समय में पत्र-पत्रिकाओं के रचनाकार ही इनके पाठक के रूप में नज़र आ रहे हैं। सामान्य जन का पढ़ने के प्रति रुझान घटता चला जा रहा है। यही नहीं, हिन्दी पढ़ाने वाले अध्यापकगण भी अब भाषा के प्रति अपने कर्तव्य का पालन पहले जैसा नहीं कर रहे हैं और साहित्य के प्रति युवा पीढ़ी में अभिरुचि जगाने में नाकाम हो रहे हैं। हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता में अब केवल लघु पत्रिकाओं से ही आशा शेष है क्योंकि व्यावसायिक घरानों ने साहित्यिक पत्रकारिता से अपना हाथ पूरी तरह से पीछे खींच लिया है तथा अकादमियों अौर सरकारी विभागों की पत्रिकाएं अयोग्य हाथों द्वारा (अपवाद छाेड़ कर) सम्पादित की जा रही हैं। अनेक युवा साहित्यिक पत्रकार प्रकाशन की कठिनाइयों व प्रकाशनोपरान्त पत्रिका को पाठक तक पहुँचा पाने में आ रही समस्याओं से त्रस्त होकर पत्रिका बन्द करने को विवश हुए हैं। यह हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के लिये सुखद स्थिति नहीं है।
अनमोल- आपने बहुत संघर्ष करते हुए सालों तक एक लघु पत्रिका ‘मरू गुलशन’ का संपादन किया। लेकिन इन दिनों इस पत्रिका का प्रकाशन रोक दिया गया है। ‘मरू गुलशन’ से जुड़ी कुछ यादें साँझा करना चाहेंगे?
अनवर साहब- ‘मरु गुलशन’ पत्रिका युवावस्था में बंद हुई ‘अभिलाषा’ पत्रिका से प्रेरित थी। 1995 में जब मैंने अपने काव्यगुरु ‘शंकर’ साहब से पत्रिका निकालने की इच्छा प्रकट करते हुए इजाज़त माँगी तो उन्होंने कहा था कि, “अनिल जी! पत्रिका निकालना आसान है, चलाना मुश्किल। हिन्दी भाषी लोग ख़रीद कर पत्रिकाएं बहुत कम पढ़ते हैं।” मैंने कहा, “कोई ख़रीदेगा नहीं, तो मैं बेचूँगा ही नहीं।” जिस पर उन्होंने पूछा कि, “फिर ख़र्चा कैसे निकलेगा?” मैंने निवेदन किया कि, “आप तो बस मुझे आशीर्वाद दीजिये।” उन्होंने आशीर्वाद दिया और वह ख़ूब फला। 1995 में 14 पृष्ठों की पत्रिका की पहली प्रति की 200 प्रतियों से लेकर 2015 में मेरा स्वास्थ्य बिगड़ने तक इसके अन्तिम प्रकाशित 79 वें अंक तक यह 64 पृष्ठों की 5000 प्रतियों वाली पत्रिका बन चुकी थी, वह भी बिना किसी विज्ञापन, अकादमी के या औद्योगिक घराने के आर्थिक सहयोग के। पाठकों के सहयोग मात्र ने इसे उस मुक़ाम तक पहुँचाया था। हाँ, 100 अंक तक पत्रिका निकालने का मेरा संकल्प अभी भी ज़िन्दा है। मैं स्वस्थ व जीवित रहा तो यह संकल्प भी पूरा होगा।
पत्रिका से जुड़ी यादें तो अनगिनत हैं। क्या कहूँ, बस यही मान लें कि मरु गुलशन को पाठकों व रचनाकारों का जो अपार स्नेह व सहयोग मिला, वह मेरे स्वस्थ होने का भी कारण बन गया क्योंकि मशहूर शाइर- ‘नवाब’ शाहाबादी (मरहूम) जो मेरी धर्मपत्नी मृदुला जी के बड़े भाई साहब तथा देश के सुविख्यात मधुमेह रोग विशेषज्ञ थे, ने मेरा इलाज़ इसी शर्त पर किया था कि ठीक हो गये तो ‘मरु गुलशन’ फिर से निकालोगे। दैवयोग देखिये कि मुझे शफ़ा देकर वह ख़ुद ईश्वर के पास चले गये।
अनमोल- जोधपुर कब आना हुआ और कैसे यहाँ बस जाने का निर्णय कैसे हुआ?
अनवर साहब- मैं साढ़े उन्नीस साल की उम्र में वायु सेना में भर्ती हुआ, तब से देश के विभिन्न प्रदेशों में घूमता ही रहा। 1987 में मैंने विवाह किया और जोधपुर स्थानान्तरण पर आया। मृदुला जी तब चितौड़गढ़ जिले के बेगूं कस्बे में व्याख्याता थीं। हमारी शादी (कोर्ट मैरिज) भी चित्तौड़गढ़ में ही हुई। तभी हमने जोधपुर में स्थायी रूप से बसने का निर्णय ले लिया। 1993 में मैंने वायु सेना से 21 वर्षों की सेवा के बाद डिस्चार्ज ले लिया। बेटी अमृता (इकलौती सन्तान) का जन्म यहीं पर 1989 में हुआ था। उसके समुचित पालन-पोषण के लिये मैंने नौकरी छोड़ने का निर्णय लिया और पेंशन स्वीकार कर ली, जो मरु गुलशन पत्रिका को स्वाभिमान के साथ निकालने में मेरी मददगार रही।
अनमोल- जोधपुर का साहित्यिक माहौल बहुत अच्छा है। अब तक के जीवन में यहाँ के किस रचनाकार ने आपको सबसे ज़्यादा प्रभावित किया?
अनवर साहब- जोधपुर का साहित्यिक माहौल बहुत अच्छा तो नहीं कहूँगा। अन्य शहरों की तरह यहाँ के साहित्यकारों में भी आपसी मतभेद व मनमुटाव मुझे काफी दिखे, फिर भी यहाँ के लोग स्नेही व सहयोगपूर्ण प्रकृति के हैं तथा साहित्यकारों के प्रति सम्मान की भावना रखते हैं। मुझे मेरे उस्तादे-मोहतरम प्रेमशंकर श्रीवास्तव ‘शंकर’ (मरहूम) का भरपूर प्यार मिला। बेशक़ मुझे उन्होंने ही सबसे ज़्यादा प्रभावित किया। उनके अलावा जोधपुर के जिन अग्रज साहित्यकारों का मुझे स्नेह प्राप्त हुआ उनमें सर्वश्री- महिपाल, गणपति चन्द्र भण्डारी, जबरनाथ पुरोहित, मोहन लाल कौल, अमीन जोधपुरी, एम. ए. ग़फ़्फ़ार राज़, जतन राज जैन, मांगीलाल श्रीमाली ‘शेष’, मरुधर मृदुल व श्रीमाली श्रीवल्लभ घोष आदि प्रमुख व्यक्ति रहे हैं।
अनमोल- आप अपने उस्ताद से बेहद प्यार करते हैं। उनसे मिलना किस प्रकार हुआ और क्या कारण रहे कि आपने उनकी शागिर्दी अख्तियार कर ली!
अनवर साहब- उस्तादे-मोहतरम ‘शंकर’साहब से मेरी पहली मुलाक़ात 1990 में उनकी भतीजी स्व. उषा श्रीवास्तव के निवास पर हुई थी, जहाँ वे अपनी एक नज़्म पढ़ रहे थे। मैंने उन्हें बताया कि मैं भी टूटा-फूटा कुछ लिखता हूँ तो वे ख़ुश हुए और घर पर आने को कहा। फ़ौज की व्यस्तताओं के कारण मैं नहीं जा सका मगर 3-4 साल बाद वायु सेना छोड़ने पर फिर उनकी याद आई तो उषा जी से पता पूछ कर उनके घर मिलने गया। वे बहुत ख़ुश हुए। मेरी नज़्में भी सुनीं। हौसला बढ़ाया और हमारे मिलने-मिलाने का सिलसिला चल निकला। मैं ‘ख़ुशदिलान-ए-जोधपुर’ का भी मेम्बर बन गया, जिसके वे सद्र थे।
तंजो-मिज़ाह भी लिखने लगा ताकि मासिक गोष्ठी में सुना सकूँ। धीरे-धीरे इसी संस्था के माध्यम से शहर के अदीबों से रस्मो-राह बढ़ने लगी। इसी दौरान सिटीजन्स सोसाइटी फॉर एजुकेशन, जोधपुर ने प्रो. प्रेमशंकर श्रीवास्तव ‘शंकर’ साहब को उनकी उर्दू अदब की ख़िदमात के लिये सम्मानित करने और उनकी शाइरी व व्यक्तित्व पर स्मारिका निकालने का निर्णय लिया। इस स्मारिका के लिये ‘शंकर’ साहब का साक्षात्कार लेने का दायित्व मुझे सौंपा गया। यह इण्टरव्यू उनके साथ 2-2 घण्टे की चार मुलाक़ातों में रिकॉर्ड किया जा सका और फिर इसका सम्पादन करके मैंने इसे स्मारिका में छपने हेतु दिया। इन लम्बी मुलाक़ातों में मैं उनके काफ़ी क़रीब आ गया और उन्होंने भी मुझे इस्लाह देना स्वीकार कर लिया, हालांकि वे हमेशा यही कहते रहे कि अनिल जी मैं इसके क़ाबिल नहीं हूँ। मैं यही मानता हूँ कि मेरे किसी पूर्वजन्म के अच्छे कर्म के कारण मुझे ‘शंकर’ साहब का दस्ते-करम मिला।
अनमोल- ‘ख़ुशदिलान-ए-जोधपुर’ के बारे में भी कुछ बताइए।
अनवर साहब- ‘ख़ुशदिलान-ए-जोधपुर’ की स्थापना ‘शंकर’ साहब (उस्तादे-मोहतरम) ने 1985 में हैदराबाद में हुए All World Humour Meet से लौट कर की थी। वे वहाँ राजस्थान के प्रतिनिधि थे। मूलतः हास्य-व्यंग्य विधा को समर्पित इस संस्था की तब से ही नियमित मासिक गोष्ठियों सहित अनेक कार्यक्रम हर वर्ष होते हैं। इनमें मुशाइरे, कवि सम्मेलन, संगोष्ठियाँ, सेमिनार आदि शामिल हैं। ‘हास्यलोक बुलेटिन’ भी संस्था द्वारा प्रकाशित किया जाता है तथा साहित्यकारों को भी सम्मानित करने का आयोजन होता है। संस्था शहर की सबसे सक्रिय, सम्पन्न व समर्पित साहित्यिक संस्था है। पिछले लगभग 11-12 सालों से झ्सके महासचिव पद का दायित्व भी मेरे पास ही है। वर्तमान में लगभग 80 सदस्य इससे जुड़े हुए हैं।
अनमोल- ईश्वर की कृपा से आपका परिवार बेहद प्यारा है। ख़ासकर मृदुला जी का गायन! उनके ज़िक्र के बिना शायद हमारा बात करना अधूरा रहे।
अनवर साहब- आपका आभार, कि आपने मृदुला जी के मृदुल स्वरों की बात छेड़ी। ईश्वर ने उन्हें यह नैसर्गिक गुण दिया है। वे मेरी धर्मपत्नी तथा हमारी संस्था- ‘सर्जनात्मक सन्तुष्टि संस्थान’ की संरक्षक भी हैं, जो हम लोगों ने जनवरी 2001 में समस्त ललित कलाओं (काव्य समेत) के क्षेत्र में कुछ काम करने के लिये गठित की थी और अब भी हम लोग ये काम कर रहे हैं। हम लोगों को प्रेरणा व ऊर्जा मृदुला जी से ही प्राप्त होती है, जो राजकीय शिक्षा सेवा में रहते हुए भी सक्रियतापूर्वक सहयोग करती रहती हैं। मरु गुलशन पत्रिका की भी वे संरक्षक रही हैं। उनके सहयोग के बिना साहित्य के क्षेत्र में मैं शायद कुछ भी न कर पाता। सारा श्रेय उन्हें देना चाहूँगा।
अनमोल- वेब पत्रिकाओं की ज़रूरत और भविष्य पर आपकी राय जानना चाहूँगा।
अनवर साहब- वेब पत्रिकाओं की ज़रूरत शायद प्रकाशन की कठिनाइयों के कारण शुरुआत में प्रयोग के तौर पर पेश आई होगी मगर धीरे-धीरे इनका पाठक वर्ग तैयार होने लगा है। युवाओं में ई-रीडिंग का क्रेज़ है मगर पुरानी पीढ़ी आज भी हाथ में किताब या पत्रिका लेकर पन्ने पलटते हुए पढ़ना ही पसन्द करती है। काग़ज़ की महक नथुनों में घुसते ही पढ़ने के लिये मन मचलने लगता है। वैसे वेब पत्रिकाएं भविष्य की ज़रूरतों में भी शामिल हो सकती हैं, वक़्त ही इसका फ़ैसला करेगा।
अनमोल- ‘हस्ताक्षर’ अपने तीन वर्ष पूरे करने जा रही है। इसका उद्देश्य अच्छा लेखन कर रहे युवा रचनाकारों को मंच उपलब्ध करवाना रहा है। कोई सुझाव/सलाह जो हमारी कोशिशों में और निखार लाने में सहायक रहे?
अनवर साहब- ‘हस्ताक्षर’ के तीन वर्ष पूरे करने पर आपको व आपके सहयोगियों को मेरी अग्रिम आत्मीय शुभकामनायें। पत्रिका अपने उद्देश्य में सफल हो यह आशीर्वाद भी स्वीकार करें। सुझाव या सलाह के नाम पर बस यही कहूँगा कि पत्रिका का सम्पादन कार्य भी प्रेमचंद की पंच परमेश्वर कहानी के पंच की तरह ही निष्पक्ष रह कर करें। व्यक्ति को नहीं, अभिव्यक्ति को महत्व दें। पत्रिका स्वयमेव इतिहास रच देगी।
अनमोल- आपने अपनी लघु पत्रिका ‘मरू गुलशन’ के ज़रिये सालों तक युवा प्रतिभाओं को निखारने में बहुत योगदान किया। नव रचनाकारों के लिए कोई संदेश?
अनवर साहब- नव रचनाकारों से केवल यही कहना चाहूँगा कि पढ़ें बहुत अधिक, लिखें बहुत कम और छपवायें और भी कम। साथ ही छपे हुए का प्रचार या चर्चा तो किसी से कभी भूल कर भी न करें। सफलता का कोई शॉर्ट-कट न तलाशें।
अनमोल- आपको और क़रीब से जानकर बहुत अच्छा लगा, वैसे यह तलब बहुत समय से थी। हस्ताक्षर को अपना क़ीमती समय देने के लिए बेहद शुक्रिया। हम आपके अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते हैं और मरु-गुलशन के 100वें अंक के लिए दुआ करते हैं।
अनवर साहब- शुक्रिया।
– अनिल अनवर