आलेख
कृष्ण भक्त मीरां बाई- बेड़ियों से मुक्त गगन तक का सफर: सरोज बैरड़
तुलसी, सूर, कबीर जैसे महाकवियों के पर्याय के रूप में जाने जाना वाला भक्तिकाल, जिसमें नारी को नरक का द्वार माना गया। राजनीतिक और आर्थिक सहभागिता से पूर्णतः वंचित तत्कालीन स्त्री चार-दिवारी में बंद आरोपित सामाजिक भूमिका का निर्वहन करने के लिए मजबूर थी। वंश वृद्धि करने और तथाकथित कुल-मर्यादा को ढ़ोने के अलावा उसकी कोई सामाजिक सहभागिता नहीं थी। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों ने मध्ययुग की नारी की बेड़ियों को और अधिक मजबूत कर दिया। नारी की स्थिति पुरुष प्रधान समाज में अब धीरे-धीरे मात्र भोग की वस्तु के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रह गई थी। पुरुष ने मानो उस पर अपना जन्म सिद्ध अधिकार ही समझ लिया था। साहित्य के भक्तिकाल और इतिहास के मध्ययुग में जब मुग़ल शासन अपने चरम पर था, तब जन्म हुआ मीरां बाई का। जिन्होंने अपना जीवन जीने के लिए जिस रास्ते का चयन किया, उसने तत्कालीन पुरुष-प्रधान समाज की नींव को जड़ से हिलाकर रख दिया।
जन्म और विवाह दोनों राजघराने में होने के बावजूद भी मीरां बाई ने समाज के उन समस्त दकियानूसी विचारों का सिरे से विरोध किया, जो उनकी ‘स्व’ की सत्ता को मिटाना चाहते थे। मीरां काव्य के माध्यम से प्रतिबिंबित उनका जीवन तत्कालीन समाज में पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त गगन तक के उनके सफर को उद्घाटित करता है। विवाह, कुल-मर्यादा, सती-प्रथा आदि के रूप में परम्पराओं के नाम पर पहनाई गयीं बेड़ियों से आज़ादी की तरफ बढ़ते उनके कदम भक्तिकाल की नारी और आगे आने वाली नारी जाति के लिए पथ-प्रदर्शक बन कर उभरे हैं।
राजघराने में जन्म लेकर भी उसके वैभव से पूर्णतः मुक्त मीरां अपना रास्ता स्वयं बनाती है, चाहे उस पर कितनी ही कठिनाइयाँ क्यों न हों। मीरां के सम्बन्ध में विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा लिखित यह कथन कि– “तुलसी क्या, कबीर और सूर की अपेक्षा भी मीरां का रचना संसार सीमित है। किन्तु वह किसी की अपेक्षा कम विश्वसनीय नहीं। इसका कारण यह है कि मीरां ने नारी जीवन के वास्तविक अनुभवों को शब्दबद्ध किया है।1 उनके नारी जीवन की चुनौतियों को उद्घाटित करता है। मीरां को स्त्री होने के कारण, चितौड़ के राजवंश की कुलवधु होने के कारण तथा अकाल में विधवा हो जाने के कारण अपने समाज तथा वातावरण से जितना विरोध सहना पड़ा, उतना कदाचित ही किसी अन्य भक्त को सहना पड़ा हो। उन्होंने अपने काव्य में इस पारिवारिक संघर्ष के आत्मचरित-मूलक उल्लेख कई स्थानों पर किए हैं।
स्त्री के सतीत्व व पति-निष्ठा से जोड़कर देखी जाने वाली सतीप्रथा स्त्री के प्रति तत्कालीन समाज की अमानवीयता की द्योतक थी। मीरां ने अपनी बेबाक वाणी में पति की मृत्यु के बाद सती-प्रथा की क्रूर व्यवस्था को अपनाने से मना कर दिया। वे विधवा होने के बाद भी कुल की रीति को मानने से इन्कार कर देती है-
गिरधर गास्यां, सती न होस्यां
मन मोह्यो धन नामी।2
इसी के साथ मीरां का समाज से प्रत्यक्ष संघर्ष छिड़ता है। पति के साथ सती न होकर भक्ति का मार्ग चुनने व स्वयं को कृष्ण की सुहागिन मानने से तत्कालीन पुरुष प्रधान समाज मीरां के खिलाफ खड़ा हो गया। स्वयं को भगवान कृष्ण की सुहागिन मानती हुई मीरां कहती है कि–
काजल टीकी हम सब त्यागा, त्यागो से बांधन जुड़ो
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, बर पायो छै पुरो। 3
पितृ सत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था, जिसमें स्त्री का अस्तित्व पुरुष रूपी खूंटे से बंधा होने पर ही स्वीकार किया जाता था। पिता, पति और पुत्र के खूंटों से बंधी स्त्री जब इस खूंटे को तोड़ना चाहती है तो यह समाज उस पर कलंकों की बौछार कर देता है। लेकिन मीरां ने सामन्ती समाज द्वारा अपने ऊपर लगे समस्त कलंकों का आभूषणों की तरह वरण किया और समाज में स्त्री व पुरुष की बराबरी की मांग की। पुरुषों की तरह स्त्री को भी अपने निर्णय स्वयं लेने की मांग की। समाज द्वारा निर्मित तथाकथित कुल-मर्यादा को परे करती हुई मीरां अपने निन्दकों से कहती है कि–
राणाजी म्हाने या बदनामी लगे मीठी
कोई नींदों कोई बिन्दो, मैं चलूंगी चाल अपूठी
मीरां रो प्रभु गिरधर नागर, दुर्जन जलो जा अंगीठी। 4
मीरां अपने प्रति बोले जाने वाले विरोधियों के कटु वचनों का खुला विरोध करती है और किसी भी कीमत पर अपनी स्वतन्त्रता को खोना नहीं चाहती है। लोक-लाज, कुल-मर्यादा जैसे समस्त मिथ्या तत्वों का विरोध करती हुई मीरां कहती है कि–
लोकलाज कुल काण जगत की, दइ भय जस पाणी
अपने घर का परदा करले, मैं अबला बौराणी। 5
मीरां पितृ सत्तात्मक समाज को खुली चुनौती देती हुई कहती है कि जिन लोगों से मेरी आज़ादी सहन नहीं होती, वे भले अपनी आँखें बंद कर ले लेकिन मैंने तो श्री कृष्ण को पति के रूप में वरण कर लिया है, जिसे मैं नहीं त्याग सकती।
परम्पराओं के नाम पर रुढ़ियों और जड़ मूल्यों को ढोकर चलने वाला तत्कालीन समाज मीरां को तरह-तरह की यातनाओं से प्रताड़ित करता है। उनका परिवार उन्हें अपने घर की चार-दिवारी में कैद करके अपनी तथाकथित मान-मर्यादा को सहेज कर रखना चाहता है। जिसका सारा भार महिलाओं को ही ढ़ोना पड़ता है लेकिन मीरां इन समस्त मर्यादाओं को दायरे पर रखकर अपने सांवरिया कृष्ण के प्रति पूरी तरह से समर्पित है। सास और ननद द्वारा दी गई प्रताड़नाओं का वर्णन करती हुईं मीरां कहती है कि–
हेली म्हासूं हरि बिन रह्यो न जाये
सास लड़ै मेरी ननद खिजावै, राणा रह्या रिसाय
पहरे भी राख्यो चैकी बिठार्यो, तालो दियो जड़ाय। 6
परिवार द्वारा प्रताड़ित मीरां समाज में भी हँसी की पात्र बनती है। समाज उनके हरिभजन व सत्संग करने का मखौल उड़ाता है, उनके चरित्र पर निशाना साधता है। लोगों द्वारा उनकी हँसी उड़ाने का वर्णन करती हुईं मीरां कहती है कि–
कड़वा बोल लोग जग बोल्या
करस्यां म्हारी हांसी
आंबां की डालि कोयल एक बोले
मेरे मरण अरु जग केरी हांसी। 7
अंहकारी, विलासी और क्रूर स्वभाव के उनके देवर राणा विक्रमादित्य अपने राजपरिवार की मान-मर्यादा और कुल-वैभव के मद में डूबे मीरां के प्रत्येक कदम को अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध मानते हैं। राणा ने मीरां के साहसी कदमों को रोकने के लिए कई बार उन्हें प्रताड़ित किया। उन्हें जहर देकर मारने का षड्यंत्र भी रचा गया, जहरीले सांप से कटवाने का प्रयास भी किया गया। लेकिन मीरां ने अपने राजपूत रमणी के साहस व अपने गिरधर गोपाल के प्रति अटूट निष्ठा का परिचय देते हुए हर तरह के षड्यंत्रों और बाधाओं का सामना धैर्य और साहस के साथ किया और हर कठिनाई को झेलती हुई भक्ति रूपी सागर में डूबती चली गई। राणा द्वारा विष का प्याला और जहरीले सर्प की पिटारी भिजवाने की घटनाओं का उल्लेख मीरां के अनेक पदों में हुआ है–
सांप पिटारा राणा भेज्यो, मीरां हाथ दियो जाय
न्हाय-धोय कर देखण लागी, सालिगराम गई पाय
जहर का प्याला राणा भेज्या, अमृत दीन बनाय
न्हाय धोय कर पीवण लागी, हो अमृत अन्चाय
सूल सेज राणा ने भेजी, दीज्यो मीरां सुलाय
सांझ भई मीरां सोवण लागी, मानो फूल बिछाय। 8
मैनेजर पाण्डेय के अनुसार– “कबीर, जायसी और सूर के सामने चुनौतियां भाव जगत की थीं। मीरां के सामने भाव जगत से अधिक भौतिक जगत की थी, सीधे पारिवारिक और समाजिक जीवन की चुनौतियाँ तथा कठिनाइयाँ थीं। उस पुरुष प्रधान सामन्ती समाज में एक स्त्री, वह भी मेड़ता के राठोड़ राजपूत कुल की बेटी और मेवाड़ के महाराणा परिवार की बहू, ऊपर से विधवा। यही था मीरां का अपना लोक। उसके धर्म और उसमें स्त्री की स्थिति का अनुमान किया जा सकता है। लेकिन उसके विरूद्ध विद्रोह की कल्पना भी कठिन है। फिर भी मीरां ने उस आतंककारी लोक और उसके भयावह धर्म के विरुद्ध खुला विद्रोह किया।”9 घरेलू हिंसा की शिकार, समाज से तिरस्कृत और उत्पीड़ित मीरां राजसत्ता, पितृसत्ता, लोकलाज और कुलकानि को पानी की तरह बहा देने की क्षमता रखती है–
राणाजी तेन जहर दियो में जाणी
जैसे कंचन दहत अगिन में, निकसत बाराबाणी।
लोकलाज कुलकाण जगत की, दी बहाय ज्यूँ पाणी
अपने घर का परदा कर लौं, मैं अबला बौराणी।
तरकस तीर लग्यो मेरे हियरे, गरक गयो सरकाणी। 10
मीरां के कृष्ण के प्रति पूर्ण निष्ठा भाव के समक्ष पुरुष वर्चस्ववादी पितृ सत्ता के सारे अंकुश बेमानी लगते हैं। मीरां खुले आम गोविन्द का गुणगान करती हुई कहती है कि–
गोविन्द का गुण गास्यां।
राणोंजी रुसैसा तो गांम राखैला, हरि रूठ्यां कुम्लास्याँ।
राम नाम की जहाज चलास्यां, भव सागर तिर जास्यां। 11
मीरां द्वारा श्री कृष्ण को वरण करना सिर्फ उन्हीं तक सीमित नहीं था बल्कि वे पूरे समाज के सामने ढिंढोरा पीटकर श्री कृष्ण को अपना पति स्वीकार करती है। रोहिणी अग्रवाल के अनुसार– “मीरा आरोपित विवाह सम्बन्ध को अस्वीकार कर स्त्री द्वारा स्वयं पति रूप में पुरुष का वरण करने की पक्षधर है। विवाह संस्था स्त्री की देह पर की जाने वाली द्विपक्षीय संधि नहीं, न ही प्रतिशोध और प्रतिकार की अमानुषिकता। विवाह सम्बन्ध देह का कामुक खेल या कुल-वृद्धि का शुष्क दायित्व नहीं, जीवन सहचर पाने की अनुराग भरी प्रक्रिया है। फलतः सम्बन्ध न आनन-फानन में तय हों, न बाहरी दबाव से। ठगे जाने की प्रतीति ही न रहे, इसलिए ठोक बजा कर साथी ढूँढने का अवसर और अधिकार पाना चाहती है मीरा।”12 स्वयं द्वारा चयनित जीवन साथी का वर्णन करती हुई मीरां कहती है कि–
माई मैं तो लियो है सांवरिया मोल।
कोई कहै छाने कोई कहै बोडे, मैं तो लियो री बाजता ढ़ोल।
कोई कहै घटतौ कोई कहै बढतो, मैं तो लियो है बराबर तौल।
कोई कहै कालो कोई कहै गोरो, मैं तो देख्यो है घुंघट पट खोल। 13
निंदा और प्रशंसा से परे किसी की भी परवाह किए बगैर मीरां ने जो क्रान्तिकारी कदम उठाया, वह आगे आने वाली समस्त नारी जाति के लिए प्रेरणास्पद है। अपने पथ पर अडिग रहकर तत्कालीन समाज में व्याप्त नारी विरोधी मानसिकता की चुनौतियां, राजपरिवार की मर्यादाएं, राणा विक्रमादित्य के अत्याचार आदि सभी तरह की कठिनाइयाँ सहकर मीरां ने भारतीय नारियों की जागृति एवम् स्वतन्त्रता की पथ-प्रदर्शिका की भूमिका का निर्वहन किया है। वर्तमान समाज में नारी मुक्ति के लिए किए गए अनेक प्रयासों के बावजूद भी नारी की स्थिति लगभग वैसी ही है जैसी मीरां के समय थी। स्वयं का उद्धार स्वयं द्वारा ही हो सकता है- उक्ति को चरितार्थ करता मीरां का चरित्र वर्तमान में उन समस्त नारियों के लिए उदाहरणीय है जो अपने उद्धार के लिए दूसरों पर निर्भर रहती हैं। वास्तव में मीरां का सम्पूर्ण जीवन ‘बेड़ियों से मुक्त गगन तक का सफर’ रहा है।
सन्दर्भ-
1. विश्वनाथ त्रिपाठी, ‘मीरा का काव्य’, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 1989, पृ.सं. 69
2. सुदर्शन चोपड़ा (सम्पा.), ‘भक्त कवयित्री : मीरा,’ हिंदी पॉकेट बुक्स दिल्ली, संस्करण 2002, पृ.सं. 112
3. विश्वनाथ त्रिपाठी, ‘मीरा का काव्य’, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 1989, पृ.सं. 104
4. वही, पृ.सं. 104
5. वही, पृ.सं. 105
6. सुदर्शन चोपड़ा (सम्पा.), ‘भक्त कवयित्री : मीरा,’ हिंदी पॉकेट बुक्स दिल्ली, संस्करण 2002, पृ.सं. 115
7. विश्वनाथ त्रिपाठी, ‘मीरा का काव्य’, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 1989, पृ.सं. 106, 108
8. सुदर्शन चोपड़ा (सम्पा.), ‘भक्त कवयित्री : मीरा,’ हिंदी पॉकेट बुक्स दिल्ली, संस्करण 2002, पृ.सं. 63
9. मैनेजर पाण्डेय, ‘भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य’, वाणी प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 1993, पृ.सं. 27
10. मीरा बृहत पदावली भाग 1, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, पद 395
11. वही, पद 438
12. रोहिणी अग्रवाल, मीराबाई: हिंदी की पहली स्त्री – विमर्शकार, स्त्री लेखन स्वप्न और संकल्प, राजकमल प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2011, पृ.सं. 25
13. मीरा बृहत पदावली भाग 1, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, पद 55
– सरोज बैरड़