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कृष्ण भक्ति काव्य में रसखान का योगदान: तरन्नुम सिद्दीकी
भारत में महान भक्त कवियों की एक लंबी परम्परा रही है। सूर, तुलसी, रहीम आदि की महानता के संवाहक कवि रसखान ने श्रीकृष्ण भक्ति से ओत-प्रोत, अलौलिक और अद्भुत कविताओं की रचना की। निश्चित ही वे रचनाएँ काल की सीमाओं में बाँधी नहीं जा सकती। यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि हिन्दी साहित्य के स्वर्ण युग भक्ति काल और उसकी सर्वाधिक विशिष्ट सगुण भक्ति शाखा में हिन्दुओं के समान ही मुसलमान कवियों ने भी प्रचुर मात्रा में भक्ति साहित्य का सृजन किया है। जिनमें रहीम, आलम और रसखान नजी़र अकबरावादी आदि का नाम उल्लेखनीय है। सच तो यह है कि प्रेम धर्म और सम्प्रदाय की सीमा में बँध नहीं सकता। इसलिए रसखान का काव्य काव्यगत दृिष्टकोण से पूर्णितया अनुशीलित है। जिसकी सराहना इतिहासकारों और आलोचकांे ने मुक्त कंठ से की है। अब्दुल्ला वट रसखान के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं कि-’’यह बहुत बड़े शायर हुए हैं। आपने खालिस ब्रजभाषा में शायरी की है। आज की हिन्दुओं की बड़ी संख्या उनके कवित्त को सुबह पूजा के वक्त पढ़ती है और इस मुसलमान के शब्द हर मंदिर और ठाकुरद्वारे में गूँजते हैं।’’1 रसखान की भक्ति श्रीकृष्ण के लिए प्रेमिका की अपने प्रेमी के प्रति प्रेम भाव की भक्ति है। रसखान के काव्य का आधार श्रीकृष्ण की निकटता है। रसखान के काव्य में यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि उन्होंने श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करते हुए किसी विशिष्ट परम्परा का अनुसरण नहीं किया है। रसखान श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करते हुए कहते हैं-
जाहु न कोऊ सखी जमुना जल रोके खड़ो मग नंद को लाला।
नैन नचाइ चितै रसखानि चलावत प्रेम को भाला।।
मैं जु गई बैरन मेरी करी गति टूटिगो माला।
होरी भई के हरी भए लाल के लाल गुलाल वगी ब्रज बाला।।’’2
रसखान की दृष्टि में प्रभु की सम्पूर्ण लीलाएँ रसमयी और आनन्दमयी है। उनके काव्य में श्री कृष्ण की अनेक लीलाओं के दर्शन होते हैं। रसखान ने अपनी कविताओं में बाल लीला, गौचर लीला, रासलीला आदि श्रीकृष्ण की समस्त अद्भुत लीलाओं के दर्शन करवाऐ हैं। रसखान ने कृष्ण के बालवर्णन के बड़े ही मनोरम एवं हृदय स्पर्शी चित्र प्रस्तुत किये हैं। रसखान ने कृष्ण के बाल रूप का वर्णन एक दो सवैयों में ही किया है परन्तु उनका एक ही सवैया बहुत महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध है-
धूरि भरे अति शोभित श्याम जू तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरै अंगना पग पैंजनी बाजति पीरी कछोटी।।
व छवि को रसखानि विलोकत, वारत काम कलानिधि कोटी।
काग सुभाग कहा कहिये हरि हाथ सों ले गयौ माखन रोटी।3
रसखान ने कृष्ण के सौन्दर्य की व्यंजना भी प्रभावोत्पादक रूप में की है। श्रीकृष्ण का सौन्दर्य अनुपम एवं अद्वितीय है। रसखान ने श्रीकृष्ण की मुसकान को कोमल, दाडि़म एवं नाना प्रकार की मणियों से भी श्रेष्ठतर सिद्ध किया है। कृष्ण के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए उन्होंने उनके कान के कुण्डलों की तुलना इंद्रधनुष से इस प्रकार की है-
मोर किराट नवीन लसै मकराकृत लोल की डोरनि।
ज्यों रसखान घने घन में दमकै बिबि दामिनि चापके छोरनि।।
मरि है जीव तो जीव बलाय बिलोकि बलाय लौंनन की कोरनि।
कौन सुभाय सों आवत स्याम बजावत बैनु नचावत मौरनि।4
रसखान की रूचि लीलागान में अधिक नहीं रही। उन्होंने अपनी सभी कविताओं में श्रीकृष्ण के श्रँगारी पुरूष के रूप को अधिक देखा है। वे सूरदास की भाँति श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भाव से समर्पण नहीं करते। सूरदास ने जिस भक्ति भावना से हरि-लीला का गान किया रसखान के काव्य में उसका अभाव है, इसकी बजाय उनकी कविताओं में एक प्रेमी की मुनहार है जैसे-
बाँकी धरैं कलगी सिर ऊपर बाँसुरी-तान करै रसबीर के।
कुंडल कान लसै़ रसखानि विलोकन तीर अनंग तुनीर के।।
गरि ठगौरी गयौ चित चोरि लिये हे सबै सुख सोखि सरीर के ।
जात चलावत मो अबला यह कौन कला है भला वे अहीर के।।5
रसखान का वास्तविक नाम सैयद इब्राहीम था और खान उनकी परम्परागत उपाधि थी। रसखान नाम उनका काव्य-रचना आरम्भ करने के बाद ही प्रचलित हुआ। रसखान का जन्म हरदोई जि़ले के पिहानी गाँव में संवत् 1615 में हुआ था। जहाँ अनेक उत्तम कोटि के कवियों ने जन्म लिया है। रसखान सम्पन्न परिवार में जन्में थे। उनके पिता सम्भवतः जमीदार थे। उनका लालन-पालन बहुत लाड़-प्यार से हुआ। बचपन से ही रसखान का जीवन सरस और माधुर्य से परिपूर्ण रहा। सम्पन्न परिवार में जन्म लेने के कारण परिवार ने उनकी शिक्षा पर बहुत ध्यान दिया और थोड़े ही समय में ही वे हिन्दी, संस्कृत एवं फारसी के अच्छे ज्ञाता बन गये। उनकी विद्वानता के दर्शन उनके काव्य से स्पष्ट हो जाते हैं। यद्यपि रसखान के विद्यालय जाकर शिक्षा ग्रहण करने का उल्लेख नहीं मिलता। शायद समृद्धि होने के कारण उनके पिता ने उनकी शिक्षा के लिए पंडित एवं मौलवी की व्यवस्था घर पर ही कर दी थी। सैयद रसखान बचपन से ही कविताओं में ऐसे डूबे रहते थे। बार-बार घर वालों के मना करने पर भी इब्राहीम अपने दोस्तों के साथ रचना संसार में लगे रहते थे। काव्य के प्रति उनकी निष्ठा ने ही उन्हें आकाश रूपी साहित्य में ध्रुव तारे के समान प्रदीप्त किया है।
डाॅ. श्यामसुन्दर दास ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में लिखा है कि’’ कृष्ण-भक्त कवियों के इस अभ्युत्थान काल में हम अत्यंत सरस पदों के रचयिता सच्चे प्रेम-मग्न कवि रसखान को नहीं भूल सकते, जो विधर्मी होते हुए भी ब्रज की अनुपम मधुरता और कृष्ण की लीलाओं पर लट्टू थे। जाति-पाँति के बहुत ऊपर शुद्ध प्रेम का जो सात्विक बंधन है, उसी में रसखान बँधे थे। हिंदी के मुसलमान कवियों में रसखान का स्थान ऊपर है।’’6 युवा होने पर रसखान दिल्ली चले आये। परन्तु आरम्भ में उन्हें वहाँ अच्छा लगा। फिर धीरे-धीरे उनका हृदय दिल्ली से उचट गया। भाग्य उन्हें मथुरा की ओर ले जाने को व्याकुल था। उस समय का समाज भौतिक प्रेम तथा वासना से भरा हुआ था। रसखान भी धीर-धीरे दिल्ली के रजवाड़ों के समाज में उतरकर भौतिक प्रेम की ओर बढ़ते गये। परन्तु ईश्वर तो उनके अन्दर कुछ और तलाश कर रहा था। इसलिए कविता-रचना और संगीत के प्रति उनके प्रेम ने उन्हें सांसारिक प्रेम से बाहर निकलकर अन्य संगतियों को जानने के लिए प्रेरित किया। अपनी इसी व्याकुलता में वे एक वैष्णव मंडली में जा पहुँचे और धीरे-धीरे उस संगति से उनकी अच्छी जन-पहचान हो गयी। उस वैष्णव मंडली में भी रसखान के इस भौतिक प्रेम और चरम आसक्ति का वर्णन होने लगा। एक दिन वैष्णवों ने हँसते हुए रसखान से कहा-’’इब्राहीम जितना प्रेम तुम हाड़-माँस के इस भौतिक शरीर से करते हो,यदि तुम इतना ही प्रेम उस चरमानंद भगवान श्रीकृष्ण से करो तो तुम्हारी मुक्ति हो जाएगी।’’7 अब रसखान की एक ही तमन्ना अपने कृष्ण के दर्शन। अपने कृष्ण की तलाश में गलियों-गलियों, मंदिर-मंदिर घूमते रसखान अंत में गोविंद कुंड पर जा बैठे। लेकिन मन में एक ही लगन थी कैसे भी कृष्ण के दर्शन हो जाये। रसखान बस श्रीकृष्ण के आस-पास ही रहना चाहते हैं। उसकी भक्ति में अपने को लीन करना चाहते थे। इसका वर्णन वे इस प्रकार करते हैं-
बैन वही उनको गुन गाई औ कान वही उन बैन सौ सानी।
हाथ वही उन गात सरै अरू पाई वही ज उही अनुजानी ।।
जान वही उन प्रान के संग औ मान वही ज करै मनमानी।
त्यों रसखान वही रसखानि जु है रसखानि सो है रसखानि।।8
अब रसखान के पास श्रीकृष्ण की भक्ति थी और उनकी दीवानगी। ब्रज में रहते हुए उन्होंने ’श्रीरामचरित मानस’ के मूल पाठ का श्रवण किया। धीरे-धीरे वे श्रीकृष्ण पर लिखने लगे। संवत् 1686 के आस-पास इस महान साहित्यकार, प्रेमी-भक्त और एक श्रेष्ठतम मनुष्य का देहान्त गोवर्द्धनधाम के निकट हुआ। उनकी मृत्यु के बाद महावन में ही उनकी समाधि बनायी गयी। जो आज भी ’रसखान की छतरी’ के नाम से जानी जाती है। भक्त कवियों की परम्परा में कृष्ण-भक्त रसखान का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। रसखान मूलतः भक्त कवि थे। उनकी पुकार मात्र अपने आराध्य श्रीकृष्ण के प्रति थी। भारतेन्दु जी रसखान की कविता के अनन्य भक्त थे। उन्होंने ’उत्तर भक्तमाल में रसखान को एक महान भक्त-कवि की संज्ञा दी है। भारतेन्दु जी रसखान के योगदान और महत्व को देखते हुए कहते हैं-
इन मुसलमान हरिजन पै कोटिन हिंदुन वारिये।
अलीखान पठान जुता सह ब्रज रसखारे
सेखनवी रसखान मीर अहमद हरि प्यारे।
निरमल दास कबीर ताज खा बेगम वारी।
तानसेन कृष्णदास विजापुर नृपति दुलारी।
पिरजादि बीवी हरिजन पै कोटिन हिंदुन वारिये।9
इस प्रकार अन्त में कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्य में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है। मुसलमान होकर भी जिस तन्मयता से रसखान ने कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति और कृष्ण की समस्त लीलाओं का वर्णन किया है वह अन्यत्र दुर्लभ है। रसखान की भक्ति ही इनके हृदय की स्वच्छंद भावना है। इनका प्रेम भी इनकी व्यक्तिगत अनुभूति है। रसखान का लौकिक प्रेम अलौकिक प्रेम में परिणित हुआ। रसखान ने प्रबन्ध रचना में कोई रूचि नहीं दिखाई और केवल ब्रज भषा को ही काव्य का माध्यम बनाया। हिन्दी साहित्य में अनेक महान कवि हुए है जिन्होंने अपनी मौलिक प्रतिभा के बल पर अपना स्थान बनाया और बाद के कवियों का पथ प्रदर्शन किया। रसखान ने भी अपने गुणों और श्रीकृष्ण के प्रति अपनी अनन्य भक्ति से एक नए मार्ग का अन्वेषण किया और अपना विशिष्ट स्थान बनाया। रसखान का नाम हिन्दी साहित्य में सदा स्मरर्णीय रहेगा।
मानुष हौं तो वही रसखानि, बसौंब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बसु मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मँझारन।।
जो पशु हौ तो कहा बस मेरो चरौ नित नंद की धेनु मंझारन।
पाहनहों तो वही गिरि को जो कियो हरि छत्र पुरन्दर धारन।
जो खग हौ तो बसेरो करौ मिलि कालिन्ही फूल कदम्ब की डारन।।0
संदर्भ-
1. राघव रघु: रसखान रत्नावली, ग्रंथ अकादमी नई दिल्ली, संस्करण-2011, पृ. 19
2. वही, पृ. 112
3. चन्द्रकला गुप्त: हिन्दी कृष्णकाव्य में स्वछन्दतामूलक प्रवृत्तियाँ, आर्य बुक डिपो, नयी दिल्ली, संस्करण-1974, पृ. 95
4. वही, पृ. 49
5. राघव रघु: रसखान रत्नावली, ग्रंथ अकादमी नई दिल्ली, संस्करण-2011, पृ. 10
6. वही, पृ. 19
7. वही, पृ. 15
8. वही, पृ. 115
9. हेमन्त शर्मा: भारतेन्दु समग्र, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, तृतीय संस्करण-1989, पृ. 79
10. आचार्य चन्द्रवली पाण्डेय: हिन्दी कवि चर्चा, सरस्वती मंदिर काशी, संस्करण-1938, पृ. 282
– तरन्नुम सिद्दीकी