आलेख
कृष्ण-भक्ति काव्य में भ्रमरगीत परंपरा: के. सुवर्णा
श्रीकृष्ण भारतीय संस्कृति का एक ऐसा नाम, एक ऐसा व्यक्तित्व जिसकी चर्चा शात्रों से लेकर ग्रामीण जीवन की विथियों तक फैली सदियों से चलती आ रही है । भारत के पौराणिक साहित्य एंव लोक साहित्य का एक ऐसा पात्र जो समाज के सभी वर्गों को सदियों से समान रूप में प्रभावित और आकर्षित करता रहा है । हिन्दी काव्य का मध्ययुग विशेषत: , पूर्व मध्यकाल, जिसे भक्ति काल के नाम से अभिहित किया जाता है, अपनी तरल-सरल भावों एंव सौंदर्य-शिव क सत्य साधना के कारण हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग कहलाता भी संदेह नही। भक्तिकाल की सगुण युग भक्तिधारा के अंतर्गत चलनेवाली कृष्ण-काव्य पारम्परा में ही भ्रमरगीत काव्य देखने-पढ़ने को मिलता है। कृष्ण काव्य में वर्गित इन ‘भ्रमरगीतों’ में उध्दाव एक प्रमुख पात्र है। उध्दव और भ्रमर में वर्ग-साम्य तो है ही, भ्रमर का प्रेम-व्यवहार हरजाईपन एंव निठुरता का परिचारिक भी स्वीकारा जाता है। अतः कृष्ण के प्रेम में दीवानी ब्रज-ललनाएँ जब प्रेम-संदेश के बदले उध्दाव के मुख से योग-मार्ग और निरगुनवाद का संदेश सुनती है गो उन्हे वह रसलोभी और हरजाई भ्रमर की गुनगुनाहट से अधिक कुछ भी प्रतीत नाही होता और न कुछ समझ में ही आ पाता। अतः गोपियों भ्रमर को लक्ष्य करके, व्यक्त करती है, इसी कारण विरह-काव्यों में भ्रमर उपालम्भ का प्रतीक वन गया है।
हिन्दी काव्यों में वर्गित इस प्रकार के काव्य-प्रसंग ‘भ्रमरगीत’ कहलाने लगे। गोपीयों, मधुप, मधुकर आदि संबंदों से भी उध्दाव को संबोधित करके विरह-गाथा और अपने प्रिय कृष्ण की निष्ठुरता स्थापित करती हैं। अतः इस प्रकार का नामकरण बुद्धि और भाव को दोनों स्तरों पर युक्ति-संगत प्रतीत होता है। श्रीमदभगवतकार ने भ्रमर या मधुकर के माध्यम से गूपियों के द्वारा कृष्ण को प्रेम को एकनिष्ठ कृष्ण के पक्ष में न बता कर स्वेछासार या स्वछंदतवादी प्रेम के रूप में रूपायित किया है। वहाँ गोपियों के व्यवहार में निराशा एवं ईर्ष्याजन्य उपालंभ का भाव अधिक प्रमुख हैं। भागवत के समूचे वर्णन पर एक तरह ताओ दार्शनिकता का प्रभाव छा रहा है, जब की दूसरी ओर अलौकिक आध्यात्मिकिता की छाया सर्वत्र परिव्याप्त है। धार्मिकता, आध्यात्मिकिता आदि की सघनता ने भागवन के प्रसंग को कवित्व की कसौटी पर खरा नहीं उतारने दिया। वह निर्गुणवादियों केलिए तो ग्राह्य हो सकता है, पर सगुणवादियों, प्रेम या मधुरा-भक्ति को महत्व देनेवालों के लिए ग्राह्य नहीं हो सकता है।
मध्यकालीन कृष्णभक्त कवियों के भ्रमरगीत का उद्देश्य भी भागवतकार सर्वदा भिन्न एवेम नव्य है। ज्ञान पर प्रेम की विजय दिखाना और निर्गुण की तुलना मैं सगुण या अवतारवादी को प्रतिष्ठित करना ही इनका प्रमुख उद्देश्य है। इस परंपरा में कविवर सूरदास, परमानंद दास, नन्दा दास, अक्षरअनन्य – ये सभी भक्तिकाल में आते हैं। इसके बाद रीतिकाल में रसनायक, रसिकरासी, ग्वाल कवि, ब्रजनिधि आदि नाम उल्लेखनीय हैं। आधुनिक काल में आयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔंध, जगननाद दास रत्नाकर, मैथिलीशरण गुप्त, सत्यनारायाण कविरत्न, और डॉ रसाल आदि उल्लेखनीय हैं। भ्रमरगीत परंपरा का निर्वाह करनेवाले अन्य कवियों में प्रमुख हैं — गोस्वामी तुलसीदास, रहीम, मतिराम, देव, घनानन्द, सेनापती, पद्माकर, भारतेन्दु हरिश्चंद्र और प्रेमघन आदि। इनके अतिरिक्त एकाध पद या पध्य की बात करनी हो तो रीतिकाल के प्रायः सभी कवियों की रचनाओं में कोई-न-कोई ऐसा पध्य अवश्य मिल जाएगा जहाँ की भ्रमर को माध्यम से उपालम्भ का भाव व्यक्त किया गया है।
प्रेम भजन न नैकु याचे क्यों समुझाय ।
सुर प्रभु मन याहे आनी, ब्रजहीं देहु पाठय ॥
और सर्वज्ञानी श्रीकृष्ण से प्रेरित हो, ज्ञान की गठरी अपने मस्तक पर लादे हुए उद्धव ब्रज में आ पहुंचेते है।सूरदास के उद्धव अपना रथ तो नन्द को द्वार पर ही खड़ा करती हैं, पर उनकी बातचीत पहले गापियों से ही होती हैं। जिस सरलता से गोपियों सगुण-प्रेम-भक्ति का महत्व प्रतिपादित करती हैं, वह उद्दव जैसे ज्ञानी को भी पूर्णतया अविभूत कर लेता है। डा.रामकुमार वर्मा के अनुसार – “ भ्रमरगीत में मनोवैज्ञानिकता के साथ रस का पूर्ण सामंजस्य भी है।” भ्रमरगीत में राधा और उसका चारित्रिक विकास भी सूरदास की अपनी ही मौलिक कल्पना है, क्योंकि भागवत पुराण में राधा का नामोल्लेखित नहीं मिलता। सुर के भ्रमरगीत में ‘गीत काव्य का चरम उत्कर्ष भी देखा जा सकता हैं। वहाँ तीव्र संवेदनाओं के भाव-चित्र बड़े ही मनोरम रूप में संपादित हुए है । सुर के भ्रमरगीत में तर्क-वितर्क, व्यंग्य, हास्य और उपालंब का भी कमी नहीं है। यह भाव और कला का अपूर्व समन्वय भी देखा जा सकता है। सूरदास ने अपने भ्रमरगीत-प्रसंग में अभूतपूर्व कार्य कर दिखाया — “ सगुण ने निर्गुण पर सरसता, ने शुष्कता पर, प्रेम ने दर्शन पर, राग ने विराग पर, आसक्ति ने अनासक्ति पर संयोग ने वियोग पर विजय पायी। भ्रमरगीत के माध्यम से ही यह सब युग में संभव हो सका।
आधुनिक काल में आकार भ्रमरगीत-परंपरा को एक बार फिर उत्कर्ष प्राप्त हुआ,पर वह भारतेन्दु के बाद ही संभव हो सका। भारतेन्दु आधुनिक समस्त साहित्यिक विधात्मक चिंताओं के प्रवर्तक है। इनके भ्रमरगीत के प्रसंगों में युगीन विचारधारा की छाप स्पष्टतः परिलक्षित होती है। भारतेन्दु के बाद ‘सत्यनारायन कविरत्न’ ने भ्रमरगीत-परंपरा का निर्वाह एक अन्य रूप में ही किया है। वह रूप राष्ट्रीयता का प्रतीक है। ऐसा करके कवि ने इस परंपरा को एक नवीन एवं मौलिक गरिमा प्रदान कर दी है। हरिऔंध ने अपने महाकाव्य ‘प्रियप्रवास’ में कृष्ण-उद्धव के ज्ञान घमंड को तोड़ने के लिए उसे ब्रज नहीं भेजते, बल्कि विरह-पीड़ित ब्रजवासियों के हृदय को रससिक्त करने के लिए भेजते। मैथिलीशरण गुप्त ‘द्वापर’ में हृदय पक्ष की प्रधानता दी। बौद्धिक विश्लेषण नहीं । कविवर रत्नाकर जी ने परंपरागत भ्रमरगीत को अपने मौलिक प्रतिभा और कविरत्न शक्ति को बल पर नया आयान एवं परिवेश प्रदान किया है। आधुनिक कल के अन्य कवियों में से डा.रसाल “कृष्णायन’ महाकाव्य में भ्रमरगीत-परंपरा का निर्वाह किया।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि हिन्दी काव्य में ‘भ्रमरगीत परंपरा’ का आरंभ भक्तिकाल में सूरदास के काव्य से हुआ और आधुनिक काल के द्विवेदी युग तक यह परंपरा निरंतर चली रही। पर इसके मान और मूल्य स्थापित करनेवाले कवि हैं – सूरदास, नंददास और जगननाध कविरत्नकार । दुसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि मात्र भावुकता के युग में आरंभ हो कर इस परंपरा के बौद्धिकता-संयत युग का विकास मुख्यतः उपर्युक्त तीन कवि तो ‘भ्रमरगीत-परंपरा’ के आधार-स्तम्भ हैं ही, अन्यों की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। “भ्रमरगीत-परंपरा” निश्चय ही अपने-आप में हिन्दी काव्य की एक महत्तम उपलब्धि कही जा सकती है।
सन्दर्भ-
1. हिन्दी साहित्य का इतिहास- हजारी प्रसाद द्वीवेदी, लोक भारती प्रकाशन।
2. मध्यकालीन हिन्दी काव्य भाषा- ले.रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोक भारती प्रकाशन।
– के. सुवर्णा