आलेख
कृष्ण-भक्ति काव्य परम्परा: रघुवीर शर्मा
कृष्ण भक्ति काव्य की परम्परा पर विचार करते हुए भारतीय धर्म और दर्शन में कृष्ण के उल्लेख का स्रोत ढूंढना उतना आवश्यक नहीं है पर संक्षेप में एक नजर डाल लेना गैर मुनासिब भी नहीं होगा। बडी स्पष्टता से कहा जा सकता है कि ऋग्वेद में इनका प्राचीनतम उल्लेख मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद, महाभारत के शांतिपर्व में वासुदेव कृष्ण की चर्चा ईश्वर रूप में है। हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण, महाभारत, ब्रहमवैवर्त आदि अनेक पुराणों में भी कृष्ण कथा का पर्याप्त उल्लेख है।
पुराणों में कृष्ण का उल्लेख धीरे-धीरे धार्मिक रूप की तरह होने लगा, जो कवियों की कल्पना में जीवन्त हो उठा।
कृष्णाख्यान पर आधारित कथाओं पर सरसरी तौर पर विचार करने से कृष्ण के तीन रूप हमारे समक्ष मौखिक और लिखित रूप में पेश होते है –
1ण् पहला रूप है योगी और धर्मात्मा का जिसकी चरम परिणति गीता के कृष्ण के रूप में है।
2ण् दूसरा रूप है ललित गोपाल का जो संस्कृत में रचित महाभारत और पुराणों में विविध प्रसंगों में वर्णित कथाओं में स्पष्ट है।
3ण् तीसरा रूप है वीर राजनयिक का जिसकी गौरवशाली प्रस्तुति महाभारत युद्ध के विविध प्रसंगों में और पुराणों में हुई है।
ज्ञान, राग और कर्म जैसी मानसिक वृत्रियों के प्रतीक ये तीनों रूप अत्यन्त प्राचीन है और भिन्नता के बावजूद इन तीनों रूपों की एकसूत्रता कृष्ण के व्यक्तित्व में देखी जा सकती है। ये तीनों रूप कृष्ण के उस देव रूप का संकेत देते है जिन्हें प्राचीन काल से इष्टदेव के रूप में लोकप्रियता मिली हुई है।
प्राचीन पुराणों में केवल भागवत पुराण ही ऐसा है, जहां गोपाल कृष्ण की कथा का वर्णन है पर उसमें भी राधा की चर्चा कहीं नहीं है। पर विष्णु पुराण और ब्रह्म वैवर्त पुराण में राधा कृष्ण के प्रेम की कथा की चर्चा विस्तार से है।
मध्यकाल में देसिल बयना में रचे गये काव्य में इस प्रसंग का उल्लेख देखकर यह अनुमान करना सहज है कि लोक जीवन में कहानियों और गीतों के रूप में इसकी पर्याप्त लोकप्रियता रही होगी।
राधा कृष्ण विषयक प्रथम काव्य रचना जयदेव रचित गीतगोविंद बारहवी शताब्दी है।
लोक परम्परा की इसी पद्वति के अगले चरण में चैदहवी पन्द्रहवी शताब्दी में महाकवि विद्यापति ने राधा कृष्ण विषयक पद मैथिली में रखे। उनकी इस पदावली को हिन्दी कृष्ण काव्य की पहली रचना के रूप में स्वीकार किया गया है।
विद्यापति के बाद कृष्ण काव्य के सबसे बडे उद्गाता सूरदास है, जिनकें यहाँ कृष्ण के कई कई रूपों का चित्रण दिखता है। सूरसागर में कृष्ण के गोकुल, मथुरा, वृन्दावन का सम्पूर्ण आख्यायिका को गीति प्रबन्ध के रूप में देखा जा सकता है। निश्चय ही उस आख्यान की रूपरेखा भागवत की है। सूरसागर के सम्बन्ध में यह सामान्य मान्यता है कि मुक्तक पदों का संकलन होने के बावजूद यहां एक प्रबंधात्मकता है।
यहां कृष्ण कथा के विभिन्न प्रसंगो के गीतिमय चित्रण किए गए है। कृष्ण के जन्म, शैशव, ग्वालों के साथ केलि क्रीडा छद्मवेष धारण कर असुरो का वध आदि प्रसंगों की मुक्तक रचनाएं उन लीलाओं को यहां जीवन्त करती प्रतीत होती है।
तथ्य है कि बल्लभाचार्य ने इनकी प्रतिभा का उपयोग अपने मत के प्रचार में किया। मान्यता है कि नन्ददास को छोडकर अष्टछाप के सारे कवि सूरदास के स्पष्ट अनुकरण में देखे जा सकते है। भक्तिकाल और सूरदास के अवदान को अंकित करना प्रसंगवष उद्यम से कदापि संभव नहीं हो सकता। सूर की काव्य शक्ति और गान विद्या की ख्याति सुनकर शंहशाह अकबर उनसे मिलने को उत्सुक थे गोस्वामी हरिराय जी द्वारा दी गई सूचना के अनुसार अकबर के दरबार के रत्न संगीतकार तानसेन के माध्यम से मथुरा में अकबर और सूरदास की भेंट हुई।
उनकी पद रचना सुनकर अकबर प्रसन्न हुए और सूरदास से अपने यशोगान में पद रचना करने को कहा। सूरदास ने ‘नांहिन ररहयो मन में ठौर पद गोकर‘ कहकर उन्हंे यह स्पष्ट कर दिया कि वे कृष्ण के अलावा किसी के यश का गान नहीं कर सकते। सूचना है कि सन् 1492 में गोवर्धन पर्वत पर श्रीनाथ जी प्रकट हुए उसी समय बल्लभाचार्य जी पहली बार ब्रज आए। उन्होने श्रीनाथ जी को गोवर्धन के निकट जमुनवतों गांव के निवासी कुम्भनदास उनकी शरण में आए। वल्लभाचार्य जी ने उन्हें भी दीक्षित किया और श्रीनाथ जी की सेवा पूजा हेतु नियुक्त किया। कुम्भनदास, पुष्टिमार्ग में दीक्षित अष्टछाप के पहले कवि है कहा जाता है कि एक बार बादशाह अकबर ने इन्हें फतेहपुर सीकरी बुलाया। वे वहां राजा द्वारा भेजी गई सवारी में न जाकर पैदल गए। वहां राजा ने पूछा की तुम्हे उपहारस्वरूप क्या चाहिये तो यह गीत गाया
भक्तन को कहा सीकरी सौ काम,
आबत जात पनहिया टूटी, बिसरि गयो हरिनाम।
जाले मुख देखे दुख उपजत
ताको करबौ परि परनाम
कुम्भनदास लाल गिरधर बिन
यह सब झूठों धाम।।
कुम्भनदास के सात पुत्र थे परन्तु एक बार गोस्वमी विटठ्लनाथ के पूछने पर उन्होने कहा कि उनके सिर्फ डेढ पुत्र है। एक चतुर्भुज दास जो भक्त है और आधे कृष्णदास जो श्रीनाथजी की गायों का सेवा करते है। बाकि पांच तो लोकासक्त है। भक्ति के प्रति यह कुम्भनदास की अटूट आस्था का ही संकेत है कि लोकासक्त पुत्रों को वे पुत्र का दर्जा नहीं देना चाहते थे।
बल्लभाचार्य जी जब दूसरी बार ब्रज आए तो अम्बाला के सेठ पूरनमल के दान बल पर सन् 1499 में श्रीनाथजी के बडे मंदिर की नींव पडी।
श्रीनाथजी मंदिर के ट्रस्ट का भार गुजराती भक्त कृष्णदास को सोंपा गया। कृष्णदास कुनबी जाति के शूद्र थे। और वे कृष्णदास अधिकारी के नाम से प्रसिद्ध हुए।
इनके अलावा परमानंददास ,छीतरस्वामी ,गोविंदेस्वामी, चतुर्भुजदास और नंददास अष्टछाप मै गिने जाते है।
अष्टछाप के कवियों के बीच नंददास का महत्वपूर्ण स्थान है। कवित्व और भक्ति भावना के अलावा सिद्धान्त और शास्त्रीयता में भी वे सर्वाधिक मुखर थे। रासपंचाध्यायी और भंवरगीत व नन्ददास की उत्कृष्ट रचनाएं है। अष्टछाप के कवि विभिन्न जातियों वर्गो और पारिवारिक परिवेश के थे। पुष्टिमार्ग में दीक्षित होने पूर्व के समय में इनमें से कुछेक कवियों का जीवन विचित्र किस्म का था। वे सांसारिक जीवन में निद्र्वन्द्व भाव से जीते थे। पर इस सम्प्रदाय में दीक्षित होते ही उनकी रसिकता भक्ति की प्रबल धारा और उपास्य के प्रति पूर्ण समर्पण में परिवर्तित हो गई।
कृष्ण भक्त परम्परा में सम्प्रदाय निरपेक्ष एक और महत्वपूर्ण कवि है रसखान। कृष्ण भक्त कवियों में उनकी बडी प्रतिष्ठा है इनके जीवन के संबंध में अनेक किवंदतियां है। दो सौ वैष्ठावन की वार्ता में उल्लेख है कि शुरू शुरू में वे एक बनिये के बेटे पर आसक्त थे। इसके पीछे फिरा करते थे एक बार इन्होने किसी को चर्चा करते हुए सुना की ईश्वर में ध्यान उस तरह लगाना चाहिये जैसे साहूकार के बेटे से रसखान ने लगाया। यह सुनकर रसखान चैंक उठे और इसके बाद ही श्रीनाथ जी दर्षन हेतु गोकुल पहुंॅंचे और वहांॅ गोस्वामी बिठ्ठलनाथ से दीक्षित हुए। गोस्वामी जी ने रसखान को 252 मुख्य शिष्यों उनको स्थान दिया।
सवैया छंद में लिखे उनकी पंक्तियों
मानुष हो तो वही रसखान
बसों ब्रज गोकुल गांव के ग्वालन
और
या लकुटि अरू कामरिया पर
राज तिहूँ पुर को तजि डारों।
प्रत्येक हिन्दी प्रेमी की जीभ पर आज भी नाचती है।
सच्चाई यह भी है कि भक्तिकालीन कृष्ण काव्य परम्परा में प्रेम और समर्पण का उत्कर्ष था पर राधा कृष्ण विषयक पदों में भक्ति के लिए प्रेम के जिस श्रृंगारिक व सत्संग को अपनाया गया था। कालान्तर में भक्तिकाल का वह आदर्श वातावरण रह न सका। भक्ति सम्प्रदाय रूढियों और कर्मकाण्डी प्रवृतियों से जकड गया। कहांॅं तो सूरदास ने शहंशाह अकबर तक को कह दिया था कि दुबारा मिलने की कौशिश न करना। कुम्भनदास ने अकबर के बुलावे पर फतेहपुर सीकरी जाने पर पश्चाताप किया और कहां बाद के सम्प्रदाय प्रचारकों ने धन वैभव की लिप्तता में अपना समस्त गौरव भूल गए। वे सांसारिक हो गए। उन सभी मूल्यों को परोक्ष किया जाने लगा जो भक्तिकाल की पहचान के रूप में विकसित हुए थे। भक्ति और धार्मिक परम्पराओं की गतिशीलता गायब होने लगी। कृष्ण काव्य का विषय करीब करीब वहीं रहा पर उसकी आत्मा बदल गई। विषय की प्रस्तुति में भावधारा संकुचित होने लगी। भक्त कवियों ने प्रेम की भावना को जो उत्कर्ष दिया था वह अपनी सूक्ष्मता और संाकेतिकता खोकर जड़ता और विलास की ओर बढने लगा। कुल मिलाकर पूरे भक्तिकाल का कृष्ण काव्य रीतिकाल में वैसे का वैसे रहने के बावजूद वह नहीं रहा। यहां कृष्ण और राधा बहाना मात्र रह गए समर्पण की उदात्त भावना की जगह यहां विलासिता का वातावरण छा गया और आध्यात्मिक पिपासा के स्थान पर वासना की अतृप्ति छा गई। रीतिकाल के प्रसिद्ध आचार्य भिखारीदास ने तो यहां तक कहा कि
आगे के कवि रीझहैं तो कविताई
नहीं तो राधा कन्हाई के
सुमिरन कौ बहानौ है।
सचमुच कृष्ण काव्य की लम्बी परम्परा आज की ग्रार्हस्थ जीवन को सहज, सरल, निश्चल नैतिक और गरिमामय रखने में हमें सहयोग देती है विचार तो इस पर लम्बा किया जा सकता है, खासकर आज के जटिल परिवेश में की उनकी समझ विकसित करने और उसकी मूल्यवत्ता ढूंढने की कितनी आवश्यकता है इस पर सोचने की आवश्यकता है।
– रघुवीर शर्मा