आलेख
कृष्ण भक्ति काव्य परम्परा के सिरमौर अष्टछाप कवि सूरदास: डाॅ. राजश्री रावत कृष्ण
भक्ति काव्य परम्परा के सिरमौर सूरदास जी का अष्टछाप के कवियों में प्रमुख स्थान है। सूरदास जी की काव्यात्मक विषिष्टता और उत्कृष्टता का आधार है- (1) संगीत का कलात्मक उपयोग (2) ब्रजभूमि की लोकसंस्कृति का आत्मसप्तीकरण (3) वात्सल्य चित्रण (4) स्त्री- पुरूष संबंधों की स्वच्छंद विचरण सूर भक्त कवि और कृष्ण के उपासक हैं पुष्टिमार्गी होने के कारण सूर की भक्ति प्रेमाभक्ति थी। इसमें समर्पण को ही सब कुछ माना गया है सूर ने अपने काव्य में उपास्य कृष्ण के प्रति प्रेम प्रकट करने के लिए उनके रूप, व्यक्तित्व, परिवेष क्रियाकलाप, लीला आदि का चित्रण सहज मानवीय रूप में किया है। सूरदास जी ब्रजभाषा में कविता रचने वाले पहले प्रमुख कवि हैं। उन्होंने ब्रज -प्रदेश को लोक संस्कृति और वाचिक परम्परा की उत्कृष्टता प्रदान की और उसे कलात्मक उत्कर्ष प्रदान किया। संगीतात्मकता उनके काव्य का अप्रतिम गुण है। इसमें एक कथा है पर यह प्रबंध काव्य नहीं है। हिन्दी कृष्ण ़भक्ति काव्य को सबसे अधिक प्रेरणा देने वाले महाप्रभु बल्लाभाचार्य (1478ई-1530ई.) पुष्टिमार्ग के संस्थापक और संस्थापक थे। उनकी मृत्यु के बाद उनके दूसरे पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ (1515 ई-1585ई) पुष्टि सम्प्रदाय के आचार्य पद पर आसीन हुए। गोस्वामी विट्ठलनाथ की पहल पर अष्टछाप का संगठन किया गया था। उनके पिता के चार षिष्य – कुंभनदास, सूरदास, परमानन्ददास और कृष्णदास पहले से तैयार थे। अब स्वयं गोस्वामी विट्ठलनाथ के चार षिष्य -चतुर्भुज, गोविन्द स्वामी, छीत स्वामी और नन्ददास भी हो गये इन आठों को लेकर अष्टछाप का गठन किया गया। वस्तुतः ये आठ भक्त श्रीकृष्ण के अष्ठसखा के नाम से प्रसिद्ध हुए। सूरदास जी पहले दैत्य और विनय के पद ही, गाते थे वल्लभाचार्य जी ने उनसे कहा – छिछियाते क्यों हो? भगवान की लीला का गान करो। इसके बाद से सूरदास के भक्तिगीतों में दास्य भाव और आत्मदीनता की प्रवृत्ति समाप्त हो गई और वे सख्यभाव से प्रेम भक्ति के गीत गाने लगे। वल्लभाचार्य जी की प्रेरणा से ही सूरदास जी श्रीमद्भागवत में वर्णित कृष्ण कथा को गीत-संगीत में रूपान्तरित करने लगे और सूरसागर की रचना की। श्रीकृष्ण के लोकमंगलकारी और लोकरक्षक व्यक्तित्व की छवियों और छटाओं के साथ-साथ राधाकृष्ण, गोप-गोपियों, नंद-यषोदा और ब्रज की हरी भरी प्रकृति की जीवन्त क्रियाओं के चित्रण को सूरदास जी ने बखूबी किया। सूर की चित्रण शैली में ब्रज की लोकसंस्कृति लिपटी चली आती है। उनके स्वर संगीत में जनभाषा के रूप में ब्रजभाषा की मृदुता और मधुरता की कलकल ध्वनि सुनाई देती है।
हिन्दी भक्ति काव्य में कृष्ण भक्ति से संबंधित पुष्टि मार्गीय, गौड़ीय, राधावल्लभी और हरिदासी सम्प्रदायों के योगदान की चर्चा भी की जाती है। कृष्णाश्रयी भक्ति की अनेकानेक शाखा-प्रषाखा के आचार्यों और भक्त कवियों द्वारा रचित साहित्य परिमाण में विपुल है। अगर साहित्यिक और कलात्मक दृष्टि से चयन करना पड़े तो राधावल्लभी सम्प्रदाय के हरिवंश गोस्वामी की पदावली रागात्मक संवेदना और माधुर्य की दृष्टि से अवष्य ही उल्लेखनीय है। इनके साथ ही हरिराम व्यास, चतुर्भुष दास, ध्रुवदास, हित ,वृंदावनदास आदि की भी चर्चा की जाती है। कृष्ण भक्ति काव्य में नन्ददास, रसखान और मीरा के उल्लेखों के बिना परिपूर्णता नहीं होती सूरदास समेत सभी कृष्ण भक्त कवियों का एक ही लक्ष्य था – रस, आनन्द और प्रेम की मुगलमूर्ति राधा कृष्ण की लीला का गायन! आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास ग्रंथ में कृष्ण शाखा के विवेचन के अंतर्गत यह मान्यता रखी गई है कि – कृष्णभक्ति परम्परा में श्रीकृष्ण की प्रेममयी मूर्ति को ही लेकर प्रेम तत्व की बड़े विस्तार के साथ व्यंजना हुई है। उनके लोकपक्ष रूप का समावेष नहीं है। आचार्य शुक्ल ने इन काव्यधारियों में लोक संग्रह, लोक कल्याण और लोक चिंता के अभाव को बार-बार रेखांकित किया है। सूर काव्य में सगुण-निर्गुण द्वंन्द भक्ति काव्य में सगुण-निर्गुण द्वंन्द बहुत तीखा हो गया था। सगुण लीला का गान ब्रजभाषा में ही नहीं भारत के अन्य अंचलों में भी लोकप्रिय होने लगा था। सूरदास जी का काव्य एक ओर जहाॅं स्त्री पुरूष संबंधों की स्वच्छंदता और उन्मुक्त प्रेम भावना का समर्थन करता है वहीं उस जमाने के शास्त्रीय और दार्षनिक विवादों में भी हस्तक्षेप करता है।
भ्रमरगीत के उद्धव-गोपी संवाद में ज्ञान बनाम भक्ति, सगुण बनाम निर्गुण, बहस प्रखर रूप में व्यक्त हुई है। उन्होंने अपने पदों में नामपंथियों, सिद्धों और संतों की दलीलों काखूब खंडन किया है। उद्धव-गोपी संवाद वस्तुतः निर्गुण मन से सूर की मुठभेड़ है। उद्धव ज्ञानमार्गी के ब्रम्ह की निर्गुण निराकार सत्ता में विषश्वास रखते थे। कृष्ण उनके गर्व को चूर करने के लिए गोपियों के पास भेजते हैं। कृष्ण के सगुण लीला रूप के प्रेम में पगी गोपियाॅं पूछती हैं – ‘‘निर्गुण कौन देश को वासी। मधुकर हसि समझाय सौंह दे बूझति सोच न हांसी। को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि को दासाी? कैसो बरन भेस है कैसो, केहि रस में अभिलासी? पावैगो पुनि कियो अपनो जो रे कहैगो गासी। सुनत मौन है रह्यो ठग्यौ सौं सूर सर्वे मनि नासी गोपियाॅं पूछती हैं – ‘‘रूप न रेख बरन जोग नहि‘‘ उससे तुम प्रेम करने का उपदेष देते हो। अपनी बात बताओ -‘‘अपनी कहौ, दरस ऐसो को तुम कबहुॅं हो पावत’’ भ्रमरगीत को सूरसागर का सबसे मर्मस्पर्षी अंश माना जाता है। यह एक तरह का उपालंभ काव्य है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस विवाद के बारे में कहा है -‘‘भक्त शिरोमणि सूर ने इसमें सगुणोपासना का निरूपण बहुत ही मार्मिक ढंग से – हृदय की अनुभूति के आधार पर, वर्क पद्धति पर नहीं किया है। सूर काव्य में प्रेमाभक्ति प्रेमाभक्ति, पुष्टिभक्ति, रागानुगाभक्ति या रागात्मिका भक्ति ये सभी एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। वल्लभ मत के अंतर्गत यह मान्यता प्रचलित है कि जीवों पर अनुग्रह करने के लिए भगवान अवतार ग्रहण करते हैं उनके अवतार का प्रयोजन लीला करना है। चूंकि भक्त की भक्ति भावना भगवान के अनुग्रह पर निर्भर है इसलिए यह वैष्णवों की नवधा भक्ति से भिन्न है। इस पद्धति में भजन-पूजन नहीं होता बल्कि भगवान की लीला के प्रति रागात्मक लगाव होता है, गहरी अनुरक्ति होती है, सच्ची प्रेमभावना होती है। इसे ही प्रेमाभक्ति कहा जाता है। सूरसागर में इस प्रेमाभक्ति का सांगोपांग चित्रण हुआ है। प्रेम के प्रारंभ, विकास और उसकी चरम परिणति – सभी भावदषायें सूर सागर मे भरी पड़ी हैं। रागानुगा भक्ति को प्रेम के चरम परिणति के रूप में माना गया है। सूर सागर में स्त्री पुरूष संबंधों के बीच, सामाजिक मर्यादाओं के बीच बंधा बंधन का संस्कार कहीं भी परिलक्षित नहीं होता। स्वकीया, परकीया की नायक-नायिका भेद वाली शास्त्रीय दृष्टि से मुक्त यह प्रेमाभक्ति है। डाॅ. मैनेजर पाण्डेय ने ठीक ही कहा है – ‘‘कि राधा और कृष्ण परम चैतन्य के ही दो रूप हैं। उनका प्रेम पुरातन है। वे सनातन है और उनका यह लौकिक रूप लीला रूप है। सूर का काव्य भाषा और रूप ब्रजभाषा में काव्य पंरपरा का सूत्रपात सूरदास जी ने ही किया था। डाॅ. षिवप्रसाद सिंह के शोधग्रंथ ‘‘सूरपूर्व ब्रजभाषा’’ से भी यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है। डाॅ. मैनेजर पाण्डेय के सूरदास संबंधी शोधग्रंथ से यह पता चलता है – वे कहते हैं – ‘‘सूरदास कवियों के कवि इसलिए भी हैं कि उन्होंने ब्रजभाषा काव्य की जो परम्परा निर्मित की वह बाद के लगभग चार सौ वर्षों तक चलती रही । सूर को समाज और साहित्य से जो ब्रजभाषा मिली थी उसे पहले से अधिक विकसित, परिष्कृत और अभिरंजक बनाकर उन्होंने बाद के कवियों को सौंपा।’’ सूरकाव्य की सर्जनात्म्क बनावट और कलात्मकता के निर्माण में भाषा सौष्ठव का अपूर्व योगदान है। उनकी काव्य भाषा के सौंदर्य, नादतत्व और व्यंजकता अद्भुत है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी मूलतः दो कसौटियों पर सूर साहित्य को रखते हैं। शब्दों की मितव्ययिता और चित्रमयता । सूर की कला की दृष्टि से समृद्ध काव्य भाषा में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिष्योक्ति, आदि अलंकार भरे हुए हैं। सूरसागर के पदों में जहाॅं कथा की प्रमुखता है वहीं दोहा, रोला के मिश्रित रूप के साथ-साथ दोहा-चैपाई के मिश्रण से नवीन छंद रूपों के प्रयोग मिलते हैं। यह प्रयोग प्रगीतात्मकता अथवा गेयता के अनुरोध से आये हैं। इस तरह गीति काव्य में नये-नये प्रयोगों के साथ छंदों की विविधता है।
– डाॅ. राजश्री रावत