आलेख
कृष्ण भक्ति काव्य और स्त्री विमर्श: सरिता देवी
भक्तिकालीन कृष्ण भक्ति काव्य लोकरंजनकारी प्रवृत्ति को लेकर हिन्दी काव्य में प्रवाहित होता है। कृष्ण का यही विलक्षण व्यक्तित्व एवं अद्वितीय रूप भारतीय धर्म साधना, संस्कृति, साहित्य और कला को सदैव से ही प्रभावित करता रहा है। कृष्ण के लीला और आनंदकारी रूप का प्रभाव ईसा की पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में हिन्दी भाषा के भक्त कवियों पर इतना गहरा एवं व्यापक है कि उनके द्वारा रचित साहित्य में सरसता माधुर्य, तल्लीनता और काव्य सुधा अनुपम है, जिसने नैराश्य जनता के जीवन में अपनी माधुरी का रसमय स्रोत प्रवाहित कर दिया है। भक्त कवियों के उपास्य देव कृष्ण का यह रूप हमारी प्राचीन धर्म भावना की देन है।
कृष्ण भक्ति धारा का सूत्रपात हिन्दी में पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में हुआ। इसका प्रारंभ पुष्टिमार्ग के आचार्य बल्लभाचार्य जी के शिष्य सूरदास जी ने किया। इन्होंने अपने उपास्यदेव रामेश्वर लोकरंजन कृष्ण को लेकर काव्य रचना की थी। कृष्ण के अनेक नामों में नारायण, विष्णु तथा वासुदेव आदि भी प्रचलित थे। इन्हीं नामों से कभी कृष्ण को महापुरूष रूप में और कभी उनमें देवत्व भावना का प्रतिपादन करके ईश्वर के रूप में मानते हैं। यह भी निश्चित है कि भागवत पुराण तथा जयदेव के गीतगोविन्द की काव्य परम्परा से कृष्ण भक्ति धारा का प्रचार हुआ।
कृष्ण साहित्य में सर्वत्र आध्यात्मिकता का वातावरण परिव्याप्त है। सूरदास के गेय पदों का होना यह निश्चित करता है कि कृष्ण लीला से सम्बद्ध गेय-पद के साहित्य की उत्स भूमि पूर्वी भारत ही है। वहीं से चलकर यह प्रथा पश्चिमी भारत में आई है। फलतः सूरदास तथा अन्य कृष्ण काव्य में कृष्ण के लीला गान की गीति पद्धति का प्रचलन मिथिला के कवि विद्यापति, बंगाल के चंडीदास तथा जयदेव के गीतगोविन्द आदि से प्रभावित होकर ही हुआ है। अतः कृष्ण-भक्ति परम्परा पूर्वी भारत से दक्षिणी भारत और वहाँ से पश्चिमी भारत से होती हुई महाप्रभु बल्लभाचार्य जी का सम्बल पाकर संपूर्ण उत्तरी भारत में फैल गई। महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के अनुसार ‘‘ब्रह्म के अतिरिक्त किसी का भी अस्तित्व नहीं है। जीव और जगत् उसी के चित् और सत् अंश हैं। पूर्ण अथवा अंशी ब्रह्म परम आनंदमय श्री कृष्ण रूप हैं।’’
‘‘यही आनंदमय श्रीकृष्ण हिन्दी कृष्णभक्ति काव्यधारा के कवियों के उपास्य देव बने। इन्हीं कृष्ण को आधार मानकर इनके प्रेममय लीला-रूप को लेकर भक्तकवियों ने कृष्ण-भक्ति का जनमानस में प्रचार एवं प्रसार किया। इस सम्प्रदाय के भक्तों ने कृष्ण का लीला-पक्ष लेकर जो भगवान की भक्ति की, उसमें भगवान के धर्मरक्षक मर्यादा पुरूषोत्तम और दुष्टदमनकारी रूप तो गौण हो गया और निखिलानंद संदोह प्रेममय रूप प्रधान हो गया।’’ ‘‘कृष्ण भक्ति काव्य अपने गुणों एवं प्रवृत्तियों के कारण मध्यकाल में इतना पल्लवित एवं पुष्पित हुआ कि कृष्ण के धर्मोपदेष्टा ऋषि, नीति विशारद क्षत्रिय नरेश तथा गोपालकृष्ण गोपीवल्लभ कृष्ण में कृष्ण के अंतिम रूप को ही प्रधानता प्रदान की गई।’’
कृष्ण भक्ति काव्य मंे लोकजीवन तथा सांस्कृतिक तत्वों का विशद् चित्रण मिलता है। कृष्ण भक्ति काव्य की धारा को प्रवाहित करने वाले कुछ विशेष कवि हैं-सूरदास, नंददास तथा अष्टछाप के अन्य कवि एवं रसखान, मीराबाई आदि। इन्होंने अपने सतत् प्रयास एवं अथक परिश्रम से कृष्ण भक्ति काव्य को निरंतर गति प्रदान की है।
सूरदास ने श्रीमद्भागवत पुराण की कथा का अनुसरण करते हुए सूरसागर में श्रीकृष्ण की लीला का गान किया है। सूर के नारी चरित्रों का आधार भी वही है। किन्तु सूर ने अपने काव्य में श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णित कृष्ण कथा का अनुवाद नहीं किया है, उन्होंने कथा की रूपरेखा उक्त पुराण से ली है और अपनी भावनाओं के द्वारा उसे मौलिकता एवं विस्तार प्रदान किया है। स्वभावतः सूर के नारी चरित्र पौराणिक परम्परा से प्राप्त नारी चरित्र है। देवकी, यशोदा, गोपियाँ, राधा, रूक्मिणी, कीर्ति, कुब्जा आदि की अवतारणा कृष्ण की लीला के अंग के रूप में और उसकी सम्पुष्टि के लिए की गई है। कृष्ण ही उनके जीवन के केन्द्र हैं एवं उनके जीवन का चित्रण कृष्ण के ही संदर्भ में हुआ है। इनमें कृष्ण के प्रति अनन्य एवं एकान्तिक प्रेम है।
इन चरित्रों के माध्यम से सूर ने अपनी प्रेम मूलक भक्ति भावना की अभिव्यक्ति की है। ये स्त्रियाँ दो वर्गों की हैं। देवकी, यशोदा एवं कीर्ति माताएँ हैं और राधा, रूक्मिणी, कुब्जा और गोपियाँ प्रेमिकाएँ हैं। सूर-साहित्य में स्त्री के माता एवं प्रेमिका रूपों में भावना का चरमोत्कर्ष बहुत ज्यादा मात्रा में है। अतः कृष्ण भक्ति काव्य में सूर ने नारी जीवन के विभिन्न वर्ग विभिन्न पक्ष एवं परिस्थितियों की चित्रित किया है।
राधा प्रथम बार कृष्ण से परिचय के संदर्भ में उपस्थित होती है। यह परिचय बड़े सहज स्वाभाविक वातावरण में होता है। कृष्ण कछनी, पीताम्बर बाँधे हुए हाथ में भौंरा चकडोरी लेकर यमुना के किनारे खेलने चले जा रहे हैं। सहसा उनकी दृष्टि राधा पर पड़ती है, जिसके नयन विशाल हैं और मस्तक पर रोली लगी हुई हे। वह नीले कपड़े की फरिया पहने हुए हैं पीठ पर वेणी डोल रही है, वह अवस्था में छोटी है किन्तु बड़ी संुदर और गोरी है। राधा रानी के इस रूप को देखते ही कृष्ण रीझ जाते हैं और दोनों के नयन मिल जाते हैं।
प्रथम मिलन में ही कृष्ण को अपना हृदय हारकर राधा का चित्त चंचल हो उठता है।
गए स्याम रबि-तनया कै तट,
अंग लसति चंदन की खोरी।
औचक ही देखी तहँ राधा,
नैन विसाल भाए दिए रोरी।
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बूझत स्याम कौन इ गोरी।
कहाँ रहति, काकी है बेटी,
देखी नहीं कहूँ ब्रज-खोरी।
काहे कौ हम ब्रज-तन आवति,
खेलति रहति आपनी पोरी
सुनत रहति स्रवननि मँद-ढोटा,
करत-फिरत माखन-दधि चोरी।।
वह खाना पीना भूलकर कभी हँसती हैं, कभी रोती और लज्जित होकर संकोच का अनुभव करती रहती है। माँ से दोहनी माँग कर वह अपने चितचोर कृष्ण के दर्शन के लिए खरिक में चली जाती है।
स्याम सुंदर मदन मोहन मोहिनी सी लाई।
चित्त चंचल कुँवरि राधा खान-पान भुलाई।
कबहुँ बिहँसति कबहुँ बिलपति, सकुचि रहति लजाइ।
मातु-पितु कौ त्रास मानति, मन बिना भई बाइ।।
राधा की रूप छवि पर आत्म-विस्मृत होकर कृष्ण जब वृषभ को दुहने लगते हैं तो यशोदा बड़ी परेशान हो जाती है। वह राधा से कहती है-चितैबो हांडि़ दै री राधा। अतः प्रेमगर्विता राधा ने कृष्ण और यशोदा दोनों के मनोभावों को अच्छी तरह पढ़ लिया। राधा ऐसी विभोर है कि उसके पाँव घर की ओर बढ़ते नहीं और मुड़ मुड़कर नंद की गली की ओर देखती है। सखियाँ जब उससे व्यंग्य विनोद करती है तो वह सखियों से बता देती है कि वह कृष्ण पर लुब्ध और आत्मविस्मृत है।
यमुना के तट पर कल्पतरू वंशीवट के नीचे गोपियाँ रास मण्डल बना कर नृत्य करती हैं, मंडल के मध्य में कृष्ण और राधा है। रास में नृत्य करती हुई राधा के अनुपम सौंदर्य और श्रृंगार की वर्णना करता हुआ कवि उसे जगत-जननी के रूप में वंदनीया बतलाया है।
मोहि लई नैननि की सैन।
श्रवन सुनत सुधि-बुधि सब बिसरी।
हौ लुबधी मोहन-मुख-बैन।।
होली का पर्व ब्रज मण्डल में बड़े उल्लास के साथ मनाया जाता है। सखियाँ खेल के बीच राधा और कृष्ण की गाँठ जोड़ती है स्वयं कृष्ण भी युवती का वेश धारण कर गोपियों के साथ खेलते हैं और राधा को एकांत में ले जाकर उसके साथ विहार करते हैं।
कृष्ण के मथुरा गमन के बाद से राधा के जीवन में विरह का सुदीर्घ अध्याय प्रारंभ होता है। राधा की विरह-व्यथा यद्यपि सबसे अधिक गूढ़ और गंभीर है। किन्तु राधा के मुख से उसकी अभिव्यक्ति विरल अवसरों पर होती है। उद्धव को संदेश देती हुई गोपियाँ उनसे राधा की विहर दशा का वर्णन करती हैं। राधा अत्यन्त मलिन है। वह सदैव मुख नीचा किए हुए अपने विरह-दुःख में डूबी रहती है। किन्तु स्वयं राधा उद्धव से कुछ भी नहीं कहती। अतः ब्रज से लौटकर वे कृष्ण से राधा की अश्रुपूर्ण दशा का वर्णन अत्यन्त विस्तार से करते हैं।
राधा नैन नीर भरि आए।
कब धौ मिलै स्याम संुदर सखि, जदपि निकट है आए।
कहा करो किहिं भाँति जाहुँ अब पंख नहीं तन पाए।
सूर स्याम सुंदर घन दरसैं, तन के ताप नसाए।।
यशोदा कृष्ण भक्ति काव्य परम्परा की सुविकसित एवं स्मरणीय स्त्री चरित्रों में से एक है। यशोदा के दर्शन कृष्ण जन्म के समय होते हैं। वह अपनी कोख में बालक को देखकर फूली नहीं समाती। यशोदा ऐसी मुग्धा माता है जो कृष्ण के लालन-पालन और उनकी शिशु-क्रीड़ा देखने में लीन रहती है। वह कृष्ण को पालने में झुला कर सुलाती है और उनका दुलार करती हुई मधुर गीत गाती है-
जसोदा-हरि पालनै झुलावै।
हलरावै, दुलराइ, मल्हावै जोइ-सोइ कछु गावै।
मेरे लाल कौ आउ निदरिया, काहै न आनि सुवावै।
यशोदा वात्सल्य की प्रतिमा है। वह वयस्का स्त्री है गाँव के मुखिया की पत्नी होने के कारण उसमें वैभवगत अभिजात्य है और सामाजिक प्रतिष्ठा भी किन्तु इस आभिजात्य एवं वैभव होने पर भी अपने पुत्रों के लालन-पालन और परिचर्या का सारा काम यशोदा स्वयं करती है। इसलिए यशोदा का सरल मातृत्व अत्यन्त ही मनोरम ढंग से कृष्ण काव्य में विकसित है। यशोदा एक ऐसी नारी के रूप में विकसित हुई है जो पूरे कृष्ण काव्य परम्परा में वात्सल्य के चरमोत्कर्ष पर है।
सूर ने कृष्ण भक्ति काव्य में नारी का सर्वोच्च स्थान रखा है। सूर की गोपियाँ इनकी साधना की विशेष नारियाँ हैं जिनमें इनके सामान्य अवगुण दृष्टिगत नहीं होते हैं। वे भगवान की आह्नादिनी शक्तियाँ हैं। ‘‘ऐसी कुमारियो के लिए लौकिक मर्यादा, कुलकानि, पति त्याग आदि से कोई संबंध नहीं है। वे वेगवती नदियों के सदृश्य है जो मर्यादा के कगारो को तोड़कर स्वच्छंद वेग से बहती आरजपथ के त्याग करने पर भी दोषी नहीं है।’’
उनके प्रेम में लौकिक काम का अभाव है इनकी रति अथवा प्रीति भगवद् भक्ति की ओर उन्मुख है। ऐसी नारियाँ माता-पिता, पति, भाई, बंधु को इस प्रकार त्याग देती हैं, जैसे सर्प अपनी केंचुली को त्याग देता है। सूर की गोपियाँ कहती हैं-
तुमहिं बिना मन धिक अरू धिक घर।
तुमहि बिना धिक धिक माता पितु, धिक कुल कानि लाज डर।
धिक सुत पति, धिक जीवन जग को, धिक तुम बिनु संसार।।
ये नारियाँ सूर की विशेष भक्ति भावना से प्रेरित, आध्यात्मिकता के रंग में रंगी है जिनके लिए भगवद्भक्ति के सम्मुख सांसारिक सुख व्यर्थ है। गोपिकाएँ नारी एवं ऋचाएँ हैं तथा भगवान की आनंद-प्रसारिणी रसात्मक शक्तियों के रूप में है। ये सभी बंधनों से मुक्त हैं एवं निर्दोष हैं। अतः सूरदास ने इन्हें सामान्य स्त्री न कहकर भगवान की आनंद-प्रसारिणी शक्ति ही बताया है जो भगवान की सिद्ध शक्ति राधा के साथ मिलकर रसेश्वर कृष्ण से क्रीड़ा करती है।
कृष्ण-भक्त कवि सूरदास की नारी-भावना का विकास उसके प्रेम, पूर्वराग, संयोग-लीला, वियोग-वेदना में ही हुआ है। यशोदा एवं अन्य वयोवृद्ध गोपियों के वात्सल्य के रूप में अभिव्यक्त कर देते हैं। नारी हृदय वात्सल्य और प्रेम के आरोपण से नारी भावना के विकास में जननी और जाया, माता और प्रेयसी के रूप में मिलते हैं जिनका अवलम्ब लेकर कवि का भक्त हृदय अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करता है।
भक्त कवि सूरदास ने जहाँ एक ओर नारी पर अलौकिकता का आरोप करते हुए सांसारिक प्रतिबंधनों एवं मर्यादा से मुक्त करके भक्ति के अंतर्गत उनके सभी व्यवहार दोष मुक्त व क्षम्य माने हैं तथा उनका कृष्ण के प्रति आत्म समर्पण प्रशंसनीय बताया है वहीं दूसरी ओर सूरदास ने लौकिक दृष्टि से नारी के सामान्य सामाजिक विविध रूपों तथा माता, पत्नी, प्रेयसी, पुत्री और कन्या, सखी एवं दासी आदि के सूक्ष्म मनोभावों का सूक्ष्म दृष्टि से विवेचन किया है और उनके लिए सामाजिक आदर्शों का पालन करते हुए उसका अनिवार्य एवं धर्म सम्मत बताया है।
सूरदास ने अपने काव्य में नारी के अन्य भावों की अपेक्षा मातृत्वभाव को सर्वोपरि माना है। यद्यपि उनकी रचनाओं में वात्सल्य के साथ श्रंृगार का बहुत ही सुंदर चित्रण किया है। सूर की भावना मातृत्व हृदय का कोना-कोना झाँक आई है। उन्होंने मातृत्व हृदय के मर्मस्पर्शी व हृदयहारी चित्र प्रस्तुत किए हैं। सूर ने संयोग वात्सल्य के साथ-साथ वियोग वात्सल्य के भी मर्मस्पर्शी भावों का प्रतिपादन किया है। पुत्र प्रवास के पश्चात् माता यशोदा का विकल, विह्नल रूप दर्शनीय है-
बार-बार भंग जोवति माता।
व्याकुल बिनु मोहन बलभ्रता।
आवत देखि गोपनंद साथा।
बिवि बालक बिनु भई अनाथा।।
अतः कृष्ण काव्य में सूर ने नारी के उपर्युक्त सामान्य विविध रूपों में उनकी साधारण मनोवृत्ति एवं भावनाओं का यथार्थ एवं स्वाभाविक चित्रण भी प्रस्तुत किया है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि संपूर्ण कृष्ण काव्य में स्त्री के स्वरूप को प्रेम एवं वात्सल्य से परिपूर्ण भावुक किन्तु अपने अधिकारों को जानने वाली के रूप में चित्रित किया गया है एवं सूर के कृष्ण भक्ति काव्य में नारी माता, पत्नी, पुत्री, दासी प्रेमिका आदि रूपों में अपने कत्र्तव्यों का पालन करती हुई समाज में विशेष आदर की पात्र रही है।
अतः इससे यही स्पष्ट होता है कि संपूर्ण कृष्ण भक्ति साहित्य में नारी अपने माता, पत्नी, पुत्री, प्रेमिका, सहचरी एवं सखी आदि रूपों में गौरव मंडित थी। उसी का संपूर्ण प्रभाव समाज में आज तक दिखाई देता है।
संदर्भ-
1. हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, रामकुमार वर्मा, रामनारायण लाल बेनी माधव, छठवाँ संस्करण, 1971
2. हिन्दी साहित्य उद्धव और विकास, हजारी प्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, छठां संस्करण, 1990
3. सूरदास, रामचन्द्र शुक्ल, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, संस्करण, 2010
4. भक्तिकालीन काव्य में चित्रित नारी जीवन, प्यारेलाल शुक्ल, साहित्यवाणी, इलाहाबाद, संस्करण, 1984
5. भक्तिकालीन राम तथा कृष्ण काव्य में नारी भावना: तुलनात्मक अध्ययन, श्यामबाला गोयल, विभू प्रकाशन, साहिबाबाद, संस्करण, 1976
– सरिता देवी