आलेख
कृष्ण भक्ति काव्य और मीरां का नारी विद्रोह: निवेदिता सिंह
‘भक्ति परम्परा कितनी प्राचीन है, यह कह पाना तो कठिन है, किन्तु इसकी रसधार में भारतीय समाज समय-समय पर रस विभोर होता रहा है। इस भक्ति परम्परा में कृष्ण भक्ति का विशेष योगदान है।’ कृष्ण भक्ति के उद्भव का समय निश्चित करना भी कठिन कार्य है, किन्तु महाभारत के समय से कृष्ण का स्वरूप भगवान के रूप में स्वीकृत होने लगा था। कृष्ण भक्ति में कुछ ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों का योगदान रहा है जिन्होंने अपने भक्ति मार्ग में भगवान कृष्ण का प्रेममय स्वरूप प्रतिष्ठित किया और उसके आकर्षण द्वारा समाज को मुक्ति का मार्ग दिखलया और उन्हीं में से एक है ‘मीराॅंबाई’।
मीराॅं का राजकुल की नारी होकर अपने कुल, समाज, धर्म आदि को चुनौती देना और अपने फैसले स्वयं लेना, एक नई क्रान्तिकारी प्रेरणा का उन्मेष है। राजस्थान के एक राज परिवार की स्त्री अपनी स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति करती है – वह भी डंका पीट-पीट कर, चारों ओर चिल्ला-चिल्ला कर, नाचते-गाते हुए। राजस्थान की ‘सामंती व्यवस्था कब इसकी इजाज़्ात देती है; कौन हुआ है जिसने राज्य, परिवार व राजकुल की मर्यादा को ताक पर रखकर अपनी मनमानी की हो?’ लेकिन मीराॅं ने इन सबसे ऊपर उठकर परम्परा की बेडि़यों को तोड़ते हुए कृष्ण भक्ति की।
राजघराने में जन्मी एवं ब्याही मीरा लगभग 20 वर्ष की उम्र में ही विधवा हो गयीं। इस सदमें के कुछ दिनों के बाद ही उनके पिता और श्वसुर भी स्वर्ग सिधार गए। ऐसी स्थिति में मीरां का जीवन अत्यन्त कष्टमय हो गया। लगभग यही वो दिन रहे होंगे जब मीराॅं के देवर की भी मृत्यु हो गयी और मेवाड़ की सत्ता उसके सौतेले भाई राणा विक्रमादित्य के हाथों में आ गयी। मीराॅं एकांतवास (मंदिर) में रहने लगी और कृष्ण भक्ति में लीन हो गयी। साधु-संतों के बीच एवं भक्त मंडलियों में रहने लगी। राणा को यह अच्छा न लगा कि राजघराने की स्त्री साधुओं, सन्यासियों, भक्तों के मध्य अपना समय गुजारे। मीराॅं सांसारिक चीजों को त्याग चुकी थी। कुछ न चाहने के कारण ही उनके व्यक्त्वि में नकार का साहस विकसित हुआ – अपने मन की करने का साहस।
‘वैधव्य का दंश, युवा शरीर की सभी आवश्यकताओं पर प्रतिबंध, अपनी इच्छानुसार उठने-बैठने और सत्संग पर राजा का कोप आदि ऐसे कारण थे, जो मीराॅं में विरोध का भाव विकसित करते गए। जैसे-जैसे दबाव व प्रतिबन्ध बढ़े, मीराॅं का आत्मबल भी बढ़ता गया।’ कृष्ण भक्ति में उनकी आस्था और श्रद्धा भी बढ़ती गयी। खानदान के विरोध के बावजूद उनका रूख साधुओं के सत्संग की ओर बढ़ता गया और वे राज्य, समाज और परिवार की दृष्टि में अपराधिनी बनती गयी और यहीं से प्रारम्भ होता है विरोध और संघर्ष का वह सिलसिला, जिसने मीराॅं को संत, भक्त और सबसे अधिक कवि बना दिया।
कृष्ण की भक्ति में लीन मीरा पद बनाकर गाने लगी और कृष्ण जी के मंदिर में उन्मत होकर नाचने भी लगी। इसके लिए उन्हें जहर के प्याले, साॅंप, सूली की सेज आदि से सामना भी करना पड़ा, पर वह इन सब परीक्षाओं में और कठोर तथा दृढ़ बनती गयी। वो कहती है-
पग घूँघरू बाॅंध मीरां नाची रे
मैं तो अपने नारायण की आपहि हो गई दासी रे।
लोग कहैं मीरां भई बावरी, न्यात कहैं कुलनासी रे।
इस प्रकार लोक-लाज और मान-सम्मान की लकीर पर चलने वाली सामंती व्यवस्था की आन-बान-शान में मीराॅं फिट न बैठ सकी। मीराॅं उस युग में विद्रोह कर रही थी जिस समय नारी का सम्मान लुप्त हो चुका था। ‘नारी की दीन-दशा से मुक्ति के लिए भक्त कवियों ने यह आवश्यक समझा कि समाज में नारी के प्रति विषयो व भोग के प्रति अरूचि उत्पन्न की जाए जिससे समाज में नैतिकता व सदाचार की भावना का प्रसार हो।’ ‘तत्कालीन समाज में प्रेम का पारिवारिक स्वरूप ही स्वीकृत था। मीरा ने उसे परिवार से बाहर ला दिया, सार्वजनिक कर दिया यह उसका सबसे बड़ा विद्रोह है।’ कृष्ण की भक्ति में लीन मीराॅं कहती है –
म्हारो तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई,
जाके सिर मोर-मुकुट मेरो पति सोई।
मीरा ने कृष्ण को अपना आध्यात्मिक स्वामी माना है। ‘उन्होंने सांसारिक आकर्षणों को मिथ्या कहा है उनके अनुसार इस संसार में मिलने वाली मणियाॅं और मोती भी झूठें हैं।’ माया, मोह, ममता आदि भगवद्प्राप्ति में बाधक है।’ ‘सारा संसार स्वार्थी है। यहाॅं सुख में तो सब साथ रहते हैं किन्तु विपत्ति के समय कोई पास भी नहीं फटकता।’
झूठा मणिक मोतिया री, झूठी जगमग जोती।
प्रभु सों मिलण कैस होय।
पाॅंच पहर धन्धे में बीते, जीन पहर रहे सोय।
विपत्ति पड्याॅं कोई निकटि न आवै,
सुख में सबको सीर।
प्रस्तुत शोध पत्र में भक्तिकाल की तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था और मीरा के जीवन-संघर्ष, तनावों और उनके मनोभावों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। मीराॅं ने काफी हद तक अपनी भावनाओं को अलौलिकता का रंग देने का प्रयास किया है, जिसमें वह बहुत कुछ सफल भी रही है। परन्तु इतिहास गवाह है कि राजस्थान के कुछ लोग आज भी मीराॅं को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखते। लेकिन मीराॅं को सम्मान दिया है- उनके साहित्य ने और साहित्य में उनको जो स्थान प्राप्त है, उसे डिगा सकना किसी समाज के बूते की बात नहीं।
सन्दर्भ-
1. डाॅ. जयसिंह नीरज, सृजन के विविध आयाम, कविता प्रकाशन, अलवर (राजस्थान), प्रथम संस्करण-1983, पृ.सं.67
2. डाॅ. ओम प्रकाश त्रिपाठी, प्रो. लता शिरोड़कर, भक्तिकाल के प्रमुख कवियों का पुनर्मूल्यांकन, विद्या प्रकाशन, कानपुर, 2004, पृ.सं.216
3. वही, पृ.सं. 218
4. वही, पृ.सं. 219
5. डाॅ. बीना गुप्ता, भक्ति-काव्य में नारी की स्थिति, क्लासिक पब्लिकेशन्स, जयपुर, 1998, पृ.सं. 36
6. डाॅ. ओम प्रकाश त्रिपाठी, प्रो. लता शिरोड़कर, भक्तिकाल के प्रमुख कवियों का पुनर्मूल्यांकन, विद्या प्रकाशन, कानपुर, 2004, पृ.सं.219, 220
7. संजय मल्होत्रा, डाॅ. ओम आनन्द सरस्वती, प्रो. सत्यनारायण समदानी, मीरा का व्यक्तित्व और कृतित्व, शान्ति प्रकाशन, 1998, पृ.सं.190
8. मीराॅं, मीराॅंबाई की पदावली, पृ.सं.33, पद 27
9. वही, पृ.सं. 147, पद 160
10. वही, पृ.सं. 170, पद 193
– निवेदिता सिंह