आलेख
कृष्ण भक्ति काव्य और ब्रजभाषा माधुर्य: मोहम्मद शानू
भक्तिकाल में सगुण भक्ति के आराध्य देवों में श्री कृष्ण जी का स्थान सर्वोपरि है। कृष्ण-भक्ति तथा उनकी लीला का गान करने वाले आचार्य बल्लभाचार्य जी हैं। जिन्होंने ब्रज में कृष्ण-भक्ति का समुचित प्रचार-प्रसार किया। बल्लाभाचार्य जी ने कृष्ण भक्ति को पुष्टिमार्ग के नाम से प्रतिष्ठित किया। पुष्टिमार्गी भक्ति रागानुगाभक्ति है। इस भक्ति में किसी प्रकार के साधन या कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं। गोस्वामी विट्ठलनाथ जी ने लीलागान करने के लिए प्रमुख आठ संगीत भक्त कवियों की मंडली बनाई। इसको अष्टछाप कहा गया। इनमें क्रमशः चार आचार्य वल्लभ के और विट्ठलनाथ के शिष्य थे।
अष्टछाप के कविन में कुंभन, परमानंद।
सूर, कृष्ण, गोविंद हैं, छीत, चतुर्भुज, नंद।।1
इन आठों कवियों ने अपने काव्य में कृष्ण-भक्ति की लीलाओं का गान ब्रजभाषा में किया। भक्तिकाल में ब्रजभाषा का प्रयोग काव्य भाषा के रूप में प्रारंभ हुआ जो दीर्घकाल तक हिंदी काव्य भाषा के पद पर प्रतिष्ठित रही। भक्तिकाल में सर्वप्रथम कृष्ण भक्त कवियों ने ब्रजभाषा का प्रयोग किया।
‘‘उत्तर भारत में, और विशेषतः ब्रज प्रदेश में, कृष्ण-भक्ति के प्रचार-प्रसार में सर्वाधिक योगदान वल्लभाचार्य और चैतन्य महाप्रभु का है। ब्रज प्रदेश में सूर के समकालीन कृष्ण भक्त सम्प्रदायों में हरिदासी सम्प्रदाय और राधावल्लभ सम्प्रदाय प्रमुख थे और सूरदास का उनसे निकट संपर्क था। भक्तिआंदोलन और भक्ति काव्य के माध्यम से लोक संस्कृति का उत्थान हुआ। भक्ति आंदोलन पर पुराणों के चिंतन का प्रभाव पड़ा है। सूरदास भक्ति आंदोलन में व्यक्त लोक संस्कृति के कवि है।’’2
सूरदास भक्त कवि हैं। भक्ति इनके काव्य का साध्य है। सूरदास जी में ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा अद्भुत थी। इनके विषय में यह कहा जाता है कि श्री मद्भागवत के दशम स्कंध में वर्णित कृष्ण की व्याख्या सुनकर उसे आत्मसात किया और स्वहृदय से सरस पर निर्झरों का प्रसवण किया, वही ‘सूरसागर’ बन गया। शांत, वात्सल्य और श्रंृगार का जैसा चित्रण सूर ने अपनी बंद आँखों से किया वैसा किसी अन्य कवि ने नहीं। सूर का काव्य, काव्य का शृंगार है। रसराज शृंगार के सूर कविराज हैं। सूरदास जी ने सूरसागर, सूरसरावली, भ्रमरगीत, साहित्य लहरी आदि कृष्ण भक्ति काव्यों की रचना ब्रजभाषा में की। कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन सूर करते हुए कहते हैं-
मैया मैं नहि माखन खायो
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि मेरे मुख लपटायौ।।
मैया मोहि दाउ बहुत खिझायो
मासों कहत मोल कौ लीन्हों तोहि जसुभति कब जायौ।।3
सूरदास द्वारा की गई श्रीकृष्ण की भक्ति के गुणगान लोक में चारों तरफ गाये जाते है। महाकवि सूरदास जी की उनके जीवन काल में ही बहुत ख्याति हो गई थी। उनके पद मंदिरो-मठों से लेकर मुगल-महलों और दरबारों तक में गाए जाते थे। सम्राट अकबर के दरबार में तानसेन ने सूर का यह पद गाया था-
जसुदा बार-बार यों भाखे।
है कोउ ब्रज में हितू हमारों, चलत गुपालहि राखे।4
सूरदास की कृष्ण भक्ति और ब्रजभाषा सारे भक्तिकाल में उच्च पद पर प्रतिष्ठित है। सूरदास ने अपनी बंद आखों से कृष्ण जीवन का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत कर, ब्रजभाषा को उच्च स्तर पर उठाने का कार्य किया। ‘‘ब्रजभाषा के अग्रदूत सूरदास ने इस भाषा को जो गौरव-गरिमा प्रदान की, उसके परिणामस्वरूप ब्रजभाषा अपने काव्य युग में काव्यभाषा के राजसिंहासन पर आसीन हो सकी। सूर की ब्रजभाषा में चित्रात्मकता, आलंकारिकता, भावात्मकता, सजीवता, प्रतीकात्मकता तथा बिंबात्मकता पूर्ण रूप से विद्यमान है। ब्रजभाषा को ग्रामीण जनपद से हटाकर उन्होंने नगर और ग्राम के संधिस्थल पर ला बिठाया था। संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रचुर प्रयोग करने पर भी उनकी मूल प्रवृत्ति ब्रजभाषा को संुदर और सुगम बनाए रखने की ओर ही थी। ब्रजभाषा की ठेठ माधुरी यदि संस्कृति और अरबी-फारसी के शब्दों के साथ सजीव शैली में जीवित रही है, तो वह केवल सूर की भाषा में ही है।’’5
अष्टछाप के कवियों में सूरदास के पश्चात् दूसरे स्थान पर नन्ददास आते हैं। ब्रजभाषा में रचित नन्ददास की रासपंचाध्यायी, भगवत दशम स्कंध, भँवरगीत, रूप मंजरी, विरह-मंजरी आदि अनेक रचनाएँ उपलब्ध होती है, जिसमें रासपंचाध्यायी और भँवरगीत को विशेष ख्याति प्राप्त हुई है। रासपंचाध्यायी में भगवान कृष्ण की प्रेम क्रीड़ाओं के मनोरम चित्र प्रवाहमयी लालित्यपूर्ण भाषा में अभिव्यक्त किए गए हैं। भँवरगीत भी नन्ददास की एक श्रेष्ठ रचना है। इसके पूर्व भाग में उद्धव-गोपी-संवाद हैं और उत्तरार्द्ध के अंतर्गत कृष्ण प्रेम में गोपियों की विरह दशा का वर्णन है। नन्ददास की भाषा को लेकर यह उक्ति प्रसिद्ध है-
और कवि गढि़या, नन्ददास जडि़या। 6
कुंभनदास के अधिकतर पद भगवान श्रीकृष्ण की आठ पहर की सेवा तथा वर्षोत्सवों से संबंध रखते हैं। कुंभनदास का एक पद बहुत प्रसिद्ध है-
भक्तन को कहा सीकरी सों काम।
आवत जात पन्हैया टूटी बिसरि गयो हरिनाम।7
कृष्णदास की भ्रमरगीत, प्रेमरस-रस जुगलमानचित्र, वैष्णवनन्दन, भक्तमालटीका आदि रचनाएँ हैं। गोविन्दस्वामी, छीतस्वामी और चतुर्भुजदास की अब तक कोई स्वतंत्र रचना उपलब्ध नहीं होती। इन तीन कवियों में भी लगभग उन्हीं विषयों को अपनाया है।
अष्टछाप का सम्पूर्ण काव्य ब्रजभाषा में लिखा गया है। काव्यभाषा के सारे गुण अष्टछाप काव्य की भाषा में पाए जाते हैं। भावात्मक, सजीवता, लालित्य, चित्रमयता और संगीतात्मकता अष्टछाप के कवियों की भाषा में प्रचुर मात्रा में पायी जाती है। अलंकारों की स्वाभाविक योजना एवं मुहावरों के समुचित प्रयोग से उनकी भाषा अधिक हृदयग्राही एवं सशक्त बन गयी है।
मीराबाई ने भी कृष्ण की लीला एवं भक्ति का चित्रण ब्रजभाषा में किया। कृष्ण की भक्ति एवं प्रेम में रीझकर मीरा कहती है-
बसो मेरे नैनन में नंदलाल।
मन रे परसि हरि के चरन।
सुभग सीतल कमल कोमल त्रिविध ज्वाला हरन। 8
रीतिकालीन कवियों ने भी कृष्ण की प्रेम एवं लीलाओं का वर्णन कर उनके प्रति अपनी जिज्ञासा को उजागर किया।
आधुनिक काल तक आते-आते ब्रजभाषा का स्तर धूमिल सा होता गया। लेकिन कृष्ण भक्ति के प्रेमी कवियों ने इस काल में भी ब्रजभाषा को अपने काव्य का विषय बनाया। जगन्नाथदास रत्नाकर का कृष्ण जीवन पर आधारित ‘उद्वव शतक’ को ब्रजभाषा में लिखा। ब्रजकोकिल कहे जाने वाले ठेठ ब्रजभाषा के प्रमुख कवि ‘सत्यनारायण कविरत्न’ ने कृष्ण की लीलाओं का छुट-पुट गान किया। रामचंद्र शुक्ल ने अपने ‘भ्रमरगीत सार’ ग्रंथ में कृष्ण की बाल लीलाओं का संुदर चित्रण कर ब्रजभाषा को उच्चकोटि की ब्रजभाषा मानने और सदैव लोक में बनाए रखने की वकालत करते हुए कहा ‘‘अभी देश में न जाने कितने कवि नगरों और ग्रामों में बराबर ब्रजवाणी की रसधारा बहाते चल रहे हैं। जब कहीं किसी स्थान पर कवि सम्मेलन होता है तब न जाने कितने अज्ञात कवि आकर अपनी रचनाओं से लोगों को तृप्त कर जाते है।’’9 ब्रजभाषा को सदैव एवं जीवंत बनाए रखने के संदर्भ में वे और भी स्पष्ट शब्दों में कहते है ‘‘हम नहीं चाहते और शायद कोई नहीं चाहेगा, कि ब्रजभाषा काव्य की धारा लुप्त हो जाए।’’10
आज भी लोक में जगह-जगह ब्रजभाषा बोलते और ब्रजलोक गीत गाते हुए लोक मिल जाते हैं। भक्तिकाल से लेकर अब तक कृष्ण की भक्ति और ब्रजभाषा का माधुर्य कम भले ही हो, लेकिन छटी नहीं है। गीत, संगीत, लोकगीत आदि में कृष्ण भक्ति का लीलागान ब्रजभाषा में ही किया जाता है।
संदर्भ-
1. डाॅ॰ रमेश शर्माः अभिनव भारती शोध पत्रिका, हिंदी विभाग अ॰मु॰वि॰ अलीगढ़, 2008-2009, पृ॰सं॰-17
2. पाण्डेय, मैंनेजरः भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली संस्करणः 2012 पृ॰सं॰-221-222
3. सिंह, बच्चनः हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करणः 1997, पृ॰सं॰-132
4. डाॅ॰ रमेश शर्माः अभिनव भारती शोध पत्रिका, हिंदी विभाग अ॰मु॰वि॰ अलीगढ़, 2008-2009, पृ॰सं॰-21
5. डाॅ॰ नगेन्द्र, डाॅ॰ हरदयालः हिन्दी साहित्य का इतिहास, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, तीसरा संस्करण-2009, पृ॰सं॰-189
6. वही, पृ॰सं॰-196
7. वही, पृ॰सं॰-192
8. सरस्वती पाण्डेय, गोविदं पाण्डेयः हिंदी भाषा एवं साहित्य का वस्तुनिष्ठ इतिहास, अभिव्यक्ति प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण-2014, पृ॰सं॰-114
9. शुक्ल, रामचंद्रः हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी 34 वा संस्करणः 2056 वि॰, पृ॰-357
10. वही, पृ॰-357
– मोहम्मद शानू