आलेख
कृष्ण भक्तिकाव्य और मुसलमान कवि: डाॅ. जितेश कुमार
भारतवर्ष में कृष्णभक्ति की बेहतरीन परंपरा रही है। मध्यकालीन सगुण भक्ति के आराध्य देवताओं में भगवान् श्रीकृष्ण का स्थान सर्वोपरि रहा है। इसका महŸवपूर्ण कारण तो यह रहा है कि वे भारतीय पुराण और इतिहास दोनों में ही सर्वाधिक वर्णित हैं। कृष्ण एक साथ अपने में बुद्धि कौशल, पराक्रम, पुरुषार्थ और तेजस्वी व्यक्तित्व समेटे हुए हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं। सोलह कलाओं से संपन्न वे एक संपूर्ण पुरुष के रूप में विष्णु के अवतार स्वीकार किए जाते हैं। कृष्ण को आराध्य मानकर उनके प्रति अतिशय श्रद्धा व्यक्त करते हुए कई काव्य रचे गए। हिंदी साहित्य में विद्यापति, सूर, मीरा, रसखान, केशव, बिहारी जैसे कई कवि-कवियित्रियाँ हैं जिन्होंने कृष्णकाव्य की परंपरा को आगे बढ़ाया है।
यहाँ एक बात स्वीकार करनी होगी कि इन कवियों ने जिस कृष्ण को आधार मानकर अपनी श्रद्धा व्यक्त की है, वह महाभारतकालीन कृष्ण है। वैसे वेदों और उपनिषदों में भी ऋषि कृष्ण का जिक्र है। कई संदर्भाें और खोजों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि दोनों कृष्णों का अस्तित्व अलग-अलग है। बहरहाल, हिंदी साहित्य में पुराणों में वर्णित कृष्ण का स्वरूप ही दृष्टिगोचर होता है।
कृष्ण सनातनी धर्म के थे। उनके अनुयायी भी सनातनी रहे हैं। हिंदी कवियों में अधिकांश हिन्दू धर्म को माननेवाले थे। बावजूद इसके इन कवियों में कई ऐसे कवि भी हैं जिनका धर्म इस्लाम होने के बाद भी वे कृष्णभक्ति की यमुना में जीवन भर गोते लगाते रहे। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने तो इन कवियों के लिए जो शब्द कहे हैं उससे ये कवि और भी महŸवपूर्ण हो जाते हैं।
‘इन्ह मुसलिम हरिजनन पर, कोटिन हिन्दू वारिये।’
भारत जैसे देश की बहुलतावादी संस्कृति के लिए यह बेहद महŸवपूर्ण प्रसंग है। हमारा इतिहास जिन रंगों से भरा हुआ है, उनमें एक रंग सर्वधर्मसमभाव का रंग है। यह हमारी स्वस्थ और स्वच्छ परंपरा को मूल्यांकित करती है। हमें आज के माहौल से इतर इन पर भी ध्यान देने की तत्काल आवश्यकता है। यहाँ कृष्णकाव्य में मुसलमान कवियों के योगदान की चर्चा करना आवश्यक हो जाता है।
दिल्ली के शाही खानदान से ताल्लुक रखनेवाले पठान कवि रसखान को कौन नहीं जानता होगा, जो गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्य और बड़े कृष्णभक्त हुए।
‘मानुष हौं तो वही रसखान बसौं संग गोकुल गाँव के ग्वारन,
जो पशु हौं तो कहा बस मेरो चरौं नित नंद की धेनु मझारन।’
रसखान की गणना भक्त कवियों में की जाती है। एक सहृदय भावुक व्यक्ति के रूप में वे सर्वाधिक चर्चित रहे हैं। दिल्ली के गदर से मर्माहत होकर वे ‘प्रेमवाटिका’ में कह उठते हैं-
‘देखि गदर हित साहबी, दिल्ली नगर मसान।
छिनहीं बादसा-वंश की, ठसक छोरि रसखान।
प्रेमनिकेतन श्रीबनहिं, आइ गोवर्धन धाम।
लह्यो सरन चित चहिके, जुगलसरूप ललाम।।’
रसखान की रचनाओं में कृष्ण के प्रति जो विह्वलता है, वह उन्हें बेहतरीन सिद्ध करता है। उनका संपूर्ण काव्य कृष्णभक्ति से ओतःप्रोत है। कहा जाता है कि श्रीमद्भागवत का फारसी अनुवाद पढ़ते-पढ़ते वे अचानक गोपियांे के अलौकिक प्रेम से प्रभावित होकर कृष्णभक्ति की ओर उन्मुख हो गए।
‘तोरि मानिनी तैं हियो, फोरि मोहिनी मान।
प्रेमदेव की छबिहीं लखि, भए मियां रसखान।।’
आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानते हैं-‘प्रेम के ऐसे सुंदर उद्गार इनके सवैयों में निकले कि जनसाधारण प्रेम या शृंगार-संबंधी कविŸा सवैयों को ही ‘रसखान’ कहने लगे-जैसे ‘कोई रसखान सुनाओ।’1 इससे यह सिद्ध होता है कि रसखान अपने पदो ंके कारण समाज में पूर्ण प्रतिष्ठा पा चुके थे।
इसी क्रम में ताज बीबी का नाम लेना भी उचित होगा जिन्होंने कृष्ण के प्रेम में कई पदों की रचनाएँ कर डाली। ताज बीबी शाहजहाँ की ही एक बेगम थीं। इतिहास प्रसिद्ध ताजरोजा को शाहजहाँ ने उनकी याद में ही बनवाया था। कृष्ण के प्रति उनका प्रेम किसी भी मायने में मीरा से कम नहीं है।
‘सुनो दिलजानी माॅडे दिल की कहानी,
तुव दस्तहू बिकानी बदनामी हू सहँूगी मैं।
छेवपूजा ठानी, मैं निवाज हूँ भुलानी,
तजे कलमा कुरान ताॅड़े गुनन गहूँगी मैं।
साँवला सलोना सिर ताज सिर कुल्लेदार,
तेरे नेह दाग में, निदाघ हो दहूँगी मैं।
नंद के फरजंद, कुरबान ताँड़ी सूरत पर,
तेरे नाल प्यारे, हिन्दुवानी बन रहूँगी मैं।’
ब्रज के मंदिर के बाहर चबूतरे पर बैठी ताज बीबी को कइयों ने ‘बावली’ और ‘पगली’ तक कह दिया, लेकिन वह ताउम्र श्रीकृष्ण की भक्ति में डूबी रही। वह एकस्वर में कहती रही-
‘निहचै करि सोधि लेहु, ज्ञानी गुनवंत बेगि।
जग में अनूप मित्र, कृष्ण का मिलाप है।’
फारसी के प्रसिद्ध कवि ‘लालमूसा’ ने भी कृष्णकाव्य की रचना की है। उन्होंने कृष्ण को ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित किया है। उनकी मौजूदगी को धरती के कण-कण में सिद्ध किया है। तभी तो वे कह उठते हैं-
‘जहाँ देखा वहाँ मौजूद मेरा कृष्ण प्यारा है,
उसी का सारा जल्वा इस जहाँ में असरारा है।’
गुजरात के एक पठान परिवार में जन्मे अब्दुल सŸाार ने भी कृष्ण के प्रेम में क्या खूब कह डाला-
‘नात-जात छोड़ी और तात-मात छोड़े,
हो गई फजैत मैंने लोक-लाज खोई।
प्रेम में प्रभु के मैं तो हो गई दीवानी,
कहते सŸाारदास होनी थी सो होई।’
इसी तरह रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि आलम खाँ भी कृष्ण के प्रेम में आकंठ डूबे हैं-
‘मुक्ता मनि पीत, हरि वनमाल।
नभ में सुरचाप, प्रकाश कियो जनु/ भूषण दामिनी से दीपित हैं/
धुर वासित चंदन खैर कियो तनु/ आलम धार सुधा मुरली/
बरसा पपीहा ब्रज नारिन को पनु/आवत हैं वन ते जसुध धनु/
री सजनी घनश्याम सदा धनु।’
इसी कड़ी में कारे खाँ नामक एक मुसलमान कवि की चर्चा भी लाजिमी है जिन्होंने कृष्णकाव्य में एक महŸवपूर्ण स्थान पाया है-
‘कारे के करार माँहि, क्यों दिलदार हुए,
ऐरे नंदलाल क्यों, हमारी बारबार की।’
कविवर रहीम तो इन कवियों से एक कदम आगे ही हैं। वे कृष्ण को चंद्रमा मानकर स्वयं चकोर ही बन जाते हैं-
‘कवि रहीम मन आपुनों, हमने कियो चकोर,
निसि बासर लागौ रहै, कृष्न चंद्र की ओर।’
तत्कालीन समाज में रहीम को कृष्णभक्ति के लिए कट्टरपंथियों का कोपभाजन भी बनना पड़ा था, लेकिन वे इससे घबराए नहीं। उन्होंने माखनचोर से इसे लेकर एक पद में कहा है-
‘रहिमन कोई क्या करे, ज्वारी, चोर, लवार।
जौ पत राखनहार है, माखन चाखनहार।’
उन्होंने तो श्रीकृष्ण की मनभावनी छवि को ही हृदय में बसा लिया था। रहीम ने सामाजिक समरसता का अन्यतम उदाहरण प्रस्तुत किया।
मुसलमान कवियों की वाणियों में सुंदर कल्पना के साथ श्रीकृष्ण दर्शन सबों को आकर्षित करता है। अकबर के समय तक मुस्लिम गोष्ठियों में कृष्ण की वंदना करना और उसके माध्यम से इस्लामी चिंतन को व्याख्यातित करना सामान्य हो गया था। उस दौर में श्रीकृष्ण का सामान्यीकरण उसकी विराटता का परिचायक माना जा सकता है। मुस्लिम रचनाकारों ने इस बात को और भी बल दिया। समाज का हर महापुरुष धर्म से ऊँचा होता है। उसे किसी खास धर्म में नहीं बाँधा जा सकता है। खासकर कृष्ण के रूप-गुण ने ही उन्हें धर्म के बंधन से आजाद होने में मदद पहँुचाई। हजारी प्रसाद द्विवेदी भी मानते हैं-‘श्रीकृष्णभक्ति के साहित्य में जिस मधुर भाव पर बहुत अधिक बल दिया गया है, उसमें विश्वजनीन तŸव है। धर्म-संप्रदाय और विश्वासों के बाहरी बंधन उस विश्वसनीन माधुर्य तŸव को रोक नहीं सके हैं।’2 उनका यह कथन अक्षरशः सत्य है।
आलम जैसा प्रसिद्ध कवि भी जो हिंदू से मुस्लिम बना था, ने भी कृष्णकाव्य में अपना योगदान दिया। उनकी बेगम शेख रंगरेजिन ने भी इस कड़ी को आगे बढ़ाया।
शाह बरकतुल्लाह की रचना में कृष्णकथा की कितनी गहराइयाँ हैं इसे देखना भी यहाँ जरूरी हो जाता है-
‘ऊधौ तुम यह मरम न जानो।
हम में श्याम, श्याम मय हम हैं,
तुम जाति अनत बखानो।’
कृष्ण का स्वरूप ही ऐसा था कि उनसे मोह हो जाना इन कवियों के लिए स्वाभाविक था। यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि इन रचनाकारों का राम की तुलना में कृष्ण के प्रति अत्यधिक लगाव के क्या कारण रहे हैं? तो इसके लिए हमें बच्चन सिंह के शब्दों का सहारा अत्यधिक मुफीद लगता है-‘कृष्ण राम की तरह मर्यादा पुरुषोŸाम नहीं हैं। उनकी मर्यादाएँ उच्चवर्ग की मर्यादाएँ हैं। कृष्ण राजा भी हैं और सामान्य मनुष्य भी। उनका नटखटपन अच्छा लगता है। वे उच्चवर्गीय मर्यादाओं को तोड़ते हैं। उनमें रागतŸव की प्रमुखता है। रागतŸव शायद जिंदगी का सबसे अधिक मूल्यवान तŸव है। कृष्ण के साथ संस्कृति के अन्य आयाम भी जुड़े हुए हैं-संगीत, नृत्य, नाट्य, लोकधुन आदि।’3 इन आधारों के कारण ही श्रीकृष्ण जनसामान्य में रचते-बसते हैं। वे धर्म से ऊपर हो जाते हैं। मुसलमान कवियों ने उसे अपना आराध्य बना लिया। यह कृष्ण की महानता का सबसे सबल पक्ष है।
यहाँ कुछ और मुसलमान कृष्णभक्त कवियों की चर्चा की जानी अपेक्षित है। मियाँ वाहिदअली ने कृष्णभक्ति के सुंदर पद रचकर अपनी विशाल मनोदृष्टि को उजाकर किया है।
‘सुंदर सुजान पर, मंद मुस्कान पर,
बाँसुरी की तान पर ठौरन ठगी रहै।
मूरति बिसाल पर कंचन की माल पर,
खंजन-सी चाल पर खौरन सजी रहै।
भौंहे धनु मैन पर, लोने जुग नैन पर,
प्रेम भरे बैन पर वाहिद पगी रहै।
चंचल से तन पर, साँवरे बदन पर,
नंद के ललन पर, लगन लगी रहै।’
कृष्णभक्ति की ओर उन्मुख होनेवाले मुसलमान कवियों की एक लंबी फेहरिस्त है। ये सभी अपने धर्म में विश्वासी होने के साथ-साथ कृष्ण प्रेम को भी जीवन को एक ध्येय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मौलाना आजाद अजीमाबादी ने जो पंक्तियाँ रचीं, वे न केवल खूबसूरत हैं, बल्कि हमें अंदर तक झंकृत भी करती हैं-
‘बजानेवाले के हैं करिश्मे, जो आप हैं महब बेखुदी में,
न राग में है न रंग में है जो आग है उनकी बाँसुरी में।
हुआ न गाफिल रही तलाशी, गया न मथुरा न काशी,
मैं क्यों कहीं की खाक उड़ाता, मेरा कन्हइया तो है मुझी में।’
आमजनो के प्रसिद्ध कवि नजीर अकबराबादी को कौन नहीं जानता? उन्होंने तो कृष्ण की तारीफ में शब्दों के पुल बना दिए हैं-
‘तारीफ करूँ अब मैं क्या-क्या, उस मुरली अधर बजैया की।
नित सेवा कुँज फिरैया की और बन बन गउ चरैया की।
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमति छैया की।
रख ध्यान सुनो दंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हइया की।’
नजीर ने कृष्ण के जिस स्वरूप की चर्चा की है, वह सामान्य जनों में घर की हुई है। इस रूप में ही कृष्ण को देखे जाने की भरपूर मान्यता मिली है। इन प्रसिद्ध मुसलमान कवियों के अलावा सैयद अब्दुल जलील, बिहार के मीर साहब, मौलवी जहूरबख्श आदि का नाम बड़े ही अदब के साथ लिया जाता है।
दतिया के कविवर नवीबख्श ‘फलक’ अपने समय के सफल रचनाकारों में थे। ‘फलक’ तुर्की टोपी लगाकर कवि-सम्मेलनों में जाकर सर्वप्रथम अपना परिचय एक भक्तकवि के रूप में देते थे। फलक ने तो कई सुंदर पदों की रचना की है।
बहरहाल कृष्णभक्ति काव्य को श्रेष्ठता के फलक पर पहुँचाने में मुसलमान कवियों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। इन कवियों का स्थान हिंदी साहित्य में अक्षुण्ण है। यह हमारे हिंदी साहित्य की समरस परंपरा का उद्घोष ही है कि यहाँ धर्म के आधार पर साहित्य का बँटवारा नहीं किया गया है। यह हमारी संस्कृति का मजबूत पक्ष है। वर्तमान समय में भी इससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इसकी प्रासंगिकता सदैव बनी रहेगी। अंधेरे माहौल में हमें एक नई रोशनी दिखाता यह कवि-कर्म सदैव हमें गुमराह होने से बचाता रहेगा।
यहाँ पंजाब मुसलिम लीग के नेता मौलाना जफर अली द्वारा कही गई पंक्तियों के साथ ही कृष्ण के तमाम उपदेश एक बार प्रासंगिक हो उठते हैं। उनके ही शब्दों में-
‘है इस तराने में बाँसुरी की गूँज,
खुदा करे वह मकबूल आम हो जाए।
अगर कृष्ण की तालीम आम हो जाए,
तो काम फितनागरों का तमाम हो जाए।’
संदर्भ-
1. रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-113, संस्करण-2003, अशोक प्रकाशन, दिल्ली
2. हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिंदी साहित्य: उद्भव और विकास, पृष्ठ-117,संस्करण-2013, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
3. बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृष्ठ-137-138, संस्करण-2006, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
– डाॅ. जितेश कुमार