आलेख
कृष्ण कालीन प्रमुख वृक्षों का औषधीय महत्व: डॉ. ऋतु जैन
वृक्षों एवं वनस्पतियों के सम्बन्ध मंे लोक कथाओं मंे वर्णन किसी भी राष्ट्र और उसकी देषज संस्कृति का प्रतिबिम्ब होता है। भारत लोक साहित्य एवं काव्य की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध सांस्कृतिक विरासत वाला देष हंै। लोक कथाएं एवं महाकाव्य भारत की संस्कृति एवं समाज के प्रतिबिम्ब हैं। ये हमारे सामाजिक परिवेष में रचे बसे हंै। इन महाकाव्यों, लोक आख्यानों में वृक्षों, लताओं, फूलों, फलों के संदर्भ में अनेक स्थान पर वर्णन मिलता है। पौराणिक कथाओं में अनेक वृक्षों को देवताओं का प्रतीक एवं रहवास भी माना गया है। अनेकों मुख्य वृक्षों जैसे बरगद, पीपल, नीम, तुलसी इत्यादि की पूजा की जाती है। इन पवित्र वृक्षों की पूजा की पृष्ठभूमि में कहीं ना कहीं इनकी उपयोगिता एवं औषधीय महत्व का असर है। ये पवित्र वानस्पतिक प्रजातियाँ हमारे पारम्परिक चिकित्सा विज्ञान की औषधियों का समृद्ध स्रोत हंै। इन वनस्पतियों को हमारे सामाजिक परिवेष में संरक्षित करने के लिए इनको सम्मानित स्थान दिया गया है।
महाभारत वेद व्यास रचित महाकाव्य है, जिसमें एक कुल मे उत्पन्न दो वंषों के आपसी वैमनस्य एवं वर्चस्व के युद्ध को प्रदर्षित किया गया है तथापि सामाजिक रूप से महाभारत एक तरह से कृष्ण लीला का ही वर्णन है। लोक कथाओं में वर्णित है कि जब महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद सब पांडव योद्धा अपनी-अपनी वीरता का वर्णन कर रहे थे एवं अपने को दूसरों से अधिक वीर बता कर श्रेय ले रहे थे तो बर्बरिक, जो कि समस्त युद्ध को देख रहा था, से प्रष्न किया गया कि सर्वाधिक वीरता का प्रदर्षन किसने किया एवं युद्ध विजय में सर्वाधिक योगदान किसका है, तो उसने उत्तर दिया की मुझे तो श्रीकृष्ण का चक्र ही सर्वत्र घूमता हुआ दर्षित हो रहा था। महाभारत कथा एवं गीता श्री कृष्ण के विलक्षण ज्ञान, कूटनीति एवं चरित्र का वर्णन है। इसकेें विभिन्न श्लोकों में अनेकों वनस्पतियों का वर्णन किया गया है। यहाँ इस पत्र में इनमें से कुछ वनस्पतियों के औषधीय एवं आर्थिक पहलुओं के अध्ययन का प्रयास किया गया है।
तुलसी- यह पौधा लेबिएटी कुल का है। इसे वृंदा भी कहते हंै औंर यह श्रीकृष्ण का अत्यन्त प्रिय पौधा है। तुलसी वन के कारण ही कृष्ण निवास को वृंदावन भी कहा गया। सामान्यतः भारत वर्ष में दो प्रकार की तुलसी पाई जाती। हरी पत्तियों की, हरी तुलसी और काले पर्ण वाली, कृष्णा तुलसी कहलाती है। यह एक खुषबूदार पौधा है जिसका वर्णन आयुर्वेद में भी मिलता है। यह लगभग पूरे भारववर्ष में पाया जाता है। इस की पत्तियों को अत्यधिक पवित्र माना जाता है। यह प्रायः सभी हिन्दू रीति रिवाजों में प्रमुखता से प्रयुक्त होती है। तुलसी का पौधा श्वसन तंत्र के संक्रमण, त्वचा संक्रमण, कान के दर्द इत्यादि में उपयोग आती है। तुलसी के बीज और पत्तियाँ मूत्र वर्धक होती हैं एवं ये रक्त चाप तथा युरिक अम्ल की मात्रा कम करने मंेे भी सक्षम पाए गए हंै। तुलसी के तेल में अनेक प्रकार के फीनाॅल एवं पादप रसायन पाए जाते हैं जो जीवाणु रोधी एवं शरीर के डी एन ए को सुरक्षित रखने का गुण रखते हंै। यह एक सम्पूर्ण औषधीय गुणों से युक्त पौधा है जिसका वर्णन वृक्ष आयुर्वेद में भी किया गया है।
पीपल- हिन्दू दर्षन शास्त्र में पीपल को त्रिमूर्ति, ब्रह्मा-विष्णु-महेष का रहवास माना गया है एवं श्री कृष्ण को विष्णु भगवान का अवतार माना जाता है। अत्यधिक प्राचीन समय से पीपल को पौराणिक, धार्मिक एवं औषधीय महत्ता प्राप्त है। यह एक सदाबहार पर्णपाती वृक्ष है जिसकी ऊँचाई 20 मीटर तक हो जाती है। यह त्वचा के घावों की सूजन एवं जलन, मोच, तंतु शोथ, इत्यादि को कम करने में उपयोगी पाया गया है। यह गलगंड, बडी माता, गर्भाषय के विकार के उपचार मेे भी प्रयुक्त होता है। इसके फल गैस्ट्रिक अल्सरए कुष्ठ रोग, रक्त विकार, खाँसी, मधुमेह में असरदार साबित हुए हंै। घाव, अस्थमा, दर्द के उपचार में इसकी छाल का प्रयोग प्रभावी रहा है। पत्तियांे का उपयोग खाँसी, श्वसन शोथ के विरूद्ध किया जाता है।
बाँस- इस वृक्ष का महाभारत एवं कृष्ण लीला में अनेक स्थान पर वर्णन है। इसका प्रयोग विभिन्न अस्त्र शस्त्रों में हुआ है। यह वृक्ष तीव्र गति से बढने वाला है। इस वृक्ष का भगवान श्री कृष्ण के अनेक नाम जैसे वेणुगोपाल, बंसीलाल, मुरलीधर से संबंध दर्षित होता है क्योंकि, बाँसुरी या मुरली, श्री कृष्ण की सहचरी है जो कि बाँस के पौधे से ही बनती है। बाँस की जड़ की राख जोड़ांे के दर्द, मसूडों के रक्तó्राव, दाद के उपचार में उपयोगी है। बाँस के वृक्ष केे बीज दस्तावर तासीर वाले होते हैं। मूत्र संबंधी विकारों में भी इस वृक्ष के भागों का प्रयोग लाभकारी हैं। इसका अर्क अनेक प्रकार के सूक्ष्मजीवियों जैसे ई-कोलाई, स्टेफायलोकाॅकस पैनिसलियम इत्यादि के निरोध मे लाभकारी है। बाँस के आचार में, विषेषकर हिमालय क्षेत्र के, में कैल्सीयम भरपूर मात्रा में पाया जाता है।
परिजात- यह वृक्ष हरसिंगार के नाम से भी जाना जाता है। परिजात वृक्ष के बारे में कथा है कि यह स्वर्ग का वृक्ष है जिसे कृष्ण अपनी रानी सत्यभामा के हठ करने पर लेकर आए थे। उन्होनें इसे इस प्रकार से लगाया था कि वृक्ष तो सत्यभामा के महल मे लगे और इसके पुष्प रूकमणि के महल में गिरें आंैर इस प्रकार श्री कृष्ण दोनों रानियों को खुष रखने में सफल हुए। यह वृक्ष लगभग 10 मीटर उँचा होता है। इसके पुष्प खुषबूदार होते हंै। इस वृक्ष के विभिन्न भाग अनेक प्रकार के रोगों के उपचार में प्रभावी सिद्ध हुए हंै। इसकी पत्तियांँ कैंसर रोधी, षियेटिका, तापरोध, मधुमेह, एन्टीआॅक्सीडेन्ट एवं यकृत के रोगों के उपचार में प्रभावी सिद्ध होती हैं। पत्तियों का अर्क अवसाद दूर करने, विषाणु रोधी, परजीवी रोधी व मलेरिया के उपचार में भी उपयोगी है। साथ ही इसके पुष्प से व्युत्पन्न पादपीय रसायन भी इन बीमारियों की रोकथाम एवं उपचार सार्थक सिद्व हुए हंै।
कदम्ब- ब्रज भाषा के प्रसिद्ध कृष्ण भक्त कवि रसखान में यह इच्छा व्यक्त की हैं कि यदि वे अगले जन्म में पक्षी बनंे तो कदम्ब के वृक्ष पर ही बसेरा करेंगे ’’जो खग हों तो बसेरौ करूँ नित, कालिन्दी कूल कदम्ब की डारन’’। यह वृक्ष लगभग 12 मीटर की ऊँचाई का होता है और सामान्यतः नदी के किनारों पर पाया जाता है। इसके पुष्प सुगंधित होते हैं। कदम्ब के वृक्ष को श्रीकृष्ण एवं राधा तथा गोपियों के रास के साथ चित्रित किया जाता है और श्रीकृष्ण की रास लीला से सम्बन्धित होने के कारण अत्यंत पवित्र माना गया है। इसके पत्तियों एवं छालांे का प्रयोग मधुमेह, ज्वर, दर्दनाषक के लिए किया जाता है। छाल का उपयोग मूत्रवर्धक एवं दस्तावर औषधी के रूप में होता है। इसकी छाल विभिन्न प्रकार के कृमियों का नाष करने में सक्षम रही है।
इन पवित्र वनस्पतियों के विभिन्न अंगो के उपयोग पर अनेकों अध्ययन हुए हैं। विभिन्न शोध पत्रों की समीक्षा इन वनस्पतियों के ऐतिहासिक चिकित्सकीय एवं पौराणिक महत्व को रेखाकिंत करती है। ये पवित्र वनस्पतियाँ अनेक प्रकार के रोगों के उपचार में असरकारक एवं सहायक सिद्ध हुई हैं। यह चिकित्सकीय प्रभाव इन पौधों से पाए जाने वाले पादपीय रसायनों जैसे टैनिक अम्ल, फ्लेवेनाइॅड, केराटिनाॅइड, पाॅलिफिनाल के कारण है। हमारे ऋषि मुनि, जो कि चिकित्सकीय ज्ञान रखते थे, ने इनके औषधीय महत्व को पहचाना और इनको जन-जन तक पहुचाने के लिए, इन पौधों को हमारी संस्कृति में पवित्र स्थान दिया जिससे कि ये हमारे आसपास और हमारे परिवेष का हिस्सा बन सकें और इनके गुणों का लाभ उठाकर कर हम स्वस्थ रह सकें। इन वृक्षों तथा इनमें पाये जाने वाले तत्वों के चिकित्सीकीय प्रभाव पर और भी अधिक शोध की आवष्यकता है।
– डॉ. ऋतु जैन