आधी आबादी: पूरा इतिहास
कृष्णा सोबती का रचना संसार हमारे लिए उनकी उपस्थिति को दर्ज करता है
– डॉ. शुभा श्रीवास्तव
कृष्णा सोबती का नाम हिन्दी साहित्य के पाठकों के लिए नया नहीं है। उपन्यास कहानी और लेख में अपने बोल्ड अंदाज़ के लिए वह प्रसिद्ध रही हैं। कृष्णा जी की रचनाओं में दो मुख्य विषय- ‘देश विभाजन की त्रासदी’ और ‘स्त्री’ केन्द्र में रहे हैं। लेखन को ज़िन्दगी का पर्याय मानने वाली कृष्णा जी ने कभी किसी बात पर समझौता नहीं किया।
देश विभाजन की त्रासदी को कृष्णा जी ने लिखा ही नहीं, जीया भी है। ज़िन्दगीनामा, चन्ना, गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान आदि अनेक रचनाएँ भारत पाकिस्तान विभाजन के दौरान उत्पन्न हुई विभिाषका पर आधारित हैं। गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान में सामंती समाज के बदलाव की सारी तहें बड़ी सहजता से खुलती जाती है। बंटवारे के दौरान उपजी संवेदनहीनता, पीड़ा, बेचैनी पाठक को अन्दर तक हिला देती है। इन रचनाओं को पढ़ते हुए पाठक को लगता है कि वह बंटवारे का दर्द जी रहा है। पाठक अगर स्त्री हो तो वह दो देशों के पौरूष दंभ को सहती स्त्री देह की पीड़ा को अपने अन्दर धंसा ही नहीं पाती बल्कि अनुभूती के स्तर पर रचित भी पाती है। स्त्री के शरीर और मन का दर्द शायद ही किसी अन्य रचनाकार ने इतनी सजीवता से चित्रित किया है, यह कहना अतिश्योक्ति नही होगी।
कृति और पाठक के बीच एक दर्द का रिश्ता सिरजने में कृष्णा जी निपुण थीं। यह दर्द कई स्तरों से होकर पाठक के भीतर गुजरता है। कही वह अनुभूति के स्तर से जुड़ता है तो कहीं अभिव्यक्ति के स्तर पर। बंटवारे का दर्द लम्बे समय तक मन के भीतर चुभन उत्पन्न करता है। कृष्णा जी के उपन्यासों में यह चुभना और तीव्र है।
विभाजन के पूर्व पंजाब की संस्कृति, सभ्यता और परम्पराओं पर अगर शोध करना हो तो कृष्णा जी की रचनाओं से अच्छा उदाहरण अन्य कहीं नहीं मिलेगा। पंजाब के लोक गीत, लोक पर्व, लोक प्रचलित रीति-रिवाज की सोधी गंध इनकी रचनाओं में बिखरी पड़ी है। अंचल विशेष, उसके स्थानीय रंग के जितने शेड हम इनके उपन्यासों में पाते हैं, वह पंजाब की तस्वीर को और सुन्दर बना देते हैं। परन्तु अंचल की सारी विशेषताओं को समेटने के बावजूद कृष्णा जी ने अपने को आंचलिक रचनाकार के रूप में नहीं बाँधा है। ‘डार से बिछुड़ी’ के सन्दर्भ में चंद्रगुप्त विद्यालंकार यहाँ तक कहते हैं कि यह संभवत: पंजाब की किसी पुरानी लोक गाथा या किंवदंती के आधार पर इस आंचलिक उपन्यास की रचना की गयी है। ( आजकल पत्रिका, मई 1960, पृ- 43)
स्थान विशेष की दृष्टि से देखें तो पंजाब शिमला और दिल्ली अपने पूरे परिवेश के साथ इनकी कहानियों और उपन्यास में उपस्थित हुए हैं। ‘दिलो-दानिश’ में पुरानी दिल्ली अपनी संवेदना, परिवेश और मर्म के साथ आया हुआ है।
कृष्णा जी के कथा साहित्य में स्त्री और उसकी हर समस्या अपने मूल और संवेदनात्मक रूप में आये हैं। यहाँ सिर्फ समस्या ही नहीं बल्कि प्रश्न भी है, जो पाठक को कुरेदते हैं और उनका हल पूछते हैं। प्रश्न चाहे अकेलेपन (मित्रो मरजानी) का हो या वृद्धावस्था (समय सरगम) का हो समस्या की हर तह पर कृष्णा जी की निगाह रहती है। स्त्री जीवन की अनेकानेक समस्याएँ– विवाह, नारी विक्रय, दहेज, विधवा पुनर्विवाह, आत्महत्या, संतानहीनता, कृष्णा जी के कथा साहित्य में नारी दृष्टिकोण से बखूबी उकेरे गये है। इसीलिए डॉ. नामवर सिंह ने कृष्णा जी को उन रचनाकारों की पंक्ति में गिनाया है, जिनकी रचनाओं में कहीं वैयक्तिक तो कहीं सामाजिक समस्याओं और विषमताओं का प्रखर विरोध मिलता है।
स्त्री, उसकी स्वतंत्रता, उसका संघर्ष, उसकी शर्तें, उसकी संकल्पनाएँ, उसकी उड़ान देखनी हो तो कृष्णा जी के रचना संसार में विचरण करना चाहिर, जहाँ हर जगह स्त्री के हर पहलू अपने नये बिम्ब विधान के साथ मौजूद हैं। मित्रो, पाशो आदि सभी चरित्र हर सामान्य और आसपास के स्त्री पात्र हैं, जो अपनी स्वतन्त्रता के लिए व्याकुल हैं, अपनी समस्या के लिए जूझारू हैं और तथाकथित समाज के शब्दों में बोल्ड और बेबाक हैं। तभी तो अशोक वाजपेयी जी कहते हैं कि बेबाकी और उस बेबाकी को शब्दों में व्यक्त करने की हिम्मत दोनों ही कृष्ण सोवती में है।
कृष्णा जी ने ऐसी स्त्रियों का चित्रण किया है, जो समाज को हाशिए पर रखकर जीवन का आनन्द लेती हैं। इस रचना संसार में ऐसी स्त्रियाँ भी हैं, जो तमाम विसंगतियों, विडम्बनाओं और त्रासदी से घिरी हैं पर ज़िन्दगी जीने को प्रतिबद्ध हैं। इन स्त्रियों में स्वत्व की भावना कूट-कूट कर भरी है। जीवन की कोई परिस्थति उन्हें विचलित तो कर सकती है पर डिगा नहीं सकती। ऐसे ओजस्वी नारी चरित्र कृष्णा जी को अन्य रचनाकारों से पृथक करते हैं। वह स्त्री विमर्श का शोर नहीं करती हैं बल्कि उसे चरितार्थ करती हैं। यह स्त्रियाँ अपने अनगढपन के कारण ज्यादा सहज व सरल बनकर आयी हैं।
कृष्णा जी के विशाल कथा साहित्य में फैली स्त्रियों का फ़लक बहुत विस्तृत है। यहाँ स्त्रियाँ रूढ़ियों और परम्पराओं पर वार ही नहीं करती हैं बल्कि प्रेम, शरीर आदि वर्जित क्षेत्र को केन्द्र में भी ले आती हैं। मित्रो, पाशो, रत्ती जैसे चरित्र प्रेम और यौनिकता के जड़ से वशीभूत भारतीय समाज की सोच को झकझोर देती हैं और विचार करने पर विवश भी करती हैं। रत्ती जैसा पात्र समाज के ऐसे लोगों को आईना दिखाता है, जो स्त्री शोषण पर सहानुभूति भरे शब्द तो बोलते हैं पर स्वयं शोषण के उसी वर्ग में शामिल रहते हैं। रत्ती जैसी स्त्री की लड़ाई सदैव दोहरी होता है- प्रथम अपने साथ हुए शारीरिक अन्याय से अपने को उबारना और दूसरे समाज की मानसिकता से लड़ना।
कृष्णा जी के उपन्यासों की भाव भूमि से विपरीत कहानियाँ हैं। नई कहानी का नारा भोगा हुआ यथार्थ के विपरीत सहज व सामान्य कहानियों की रचना कृष्णा जी ने की है। इनकी कहानियों में पात्र या परिस्थितियाँ नहीं बल्कि ज़िन्दगी बोलती है। जीवन का यथार्थ और उससे संघर्ष इनकी कहानियों के केन्द्र बिन्दु हैं। कुछ कहानियाँ अवश्य अपवाद स्वरूप भावुक और रूमानी हो गयी हैं। आदर्श इनकी रचनाओं में कही भी झाँक नहीं पाता है। जहाँ तक विस्तार है, वहाँ तक सिर्फ यथार्थ और उसकी सत्य है और कुह नहीं। यही यथार्थ, यही सत्य कहानी बनकर हमारे सम्मुख आता है। नई कहानी की रूढ़ि का प्रभाव कृष्णा जी पर नहीं है। मानवीय मूल्य, टूटन और दर्द इनकी कहानी के केंद्र में सदैव रहे हैं।
कृष्णा जी ने सिर्फ लिखा ही नहीं है बल्कि पढ़ा भी है। साथ ही दूसरों के बारे में लिखा भी है। ‘मुक्तिबोध: एक व्यक्तित्व सही की तलाश’ में सोबती जी लिखती हैं- “मुक्तिबोध स्वयं अपनी सोच के अँधेरों से आतंकित होते हैं फिर उजालों को अपनी रूह में भरते हैं। अपनी आत्म शक्ति की प्रखरता को जाँचते हैं और मुक्तिबोध से आत्मबोधी बन जाते हैं।” कृष्णा जी के ये शब्द मुक्तिबोध की काव्य चेतना को बड़ी सहजता से व्यक्त करते हैं और कृष्णा जी की सूक्ष्म दृष्टि का परिचय देते हैं।
कृष्णा जी ने कथा साहित्य के अलावा कविता भी लिखी है परन्तु इनकी संख्या कम है। साहित्य की गद्य विधा में ही उनका मन अधिक रमा है। इनके द्वारा जो भी कविताएँ लिखी गयी हैं, उनमें पीड़ा का बोध ज्यादा है। उदाहरणार्थ-
कौन जानेगा
कौन समझेगा
अपने वतनों को छोड़ने
और उनसे मुहँ मोड़ने के दर्दों को पीड़ा को
कविता के माध्यम से भी कृष्णा जी ने यथार्थ का ही वर्णन अपनी काव्य अभिव्यक्ति में किया है। वह कहती हैं कि-
औक़ात न क़लम की
न लेखक की
न लेखन की
ज़िंदगी फैलती चली गयी
काग़ज़ के पन्नो पर
कुछ इस तरह ज्यों धरती में उग आया हो
विशाल जड़ो वाला एक ज़िन्दा रूख
कृष्णा जी ऐसी लेखिका हैं, जिन्होंने विषयवस्तु और भाषा दोनों स्तर पर हिन्दी साहित्य को अमूल्य और नवीन रूप विन्यास दिया है। विषयवस्तु के आधार पर हम देखें तो विभाजन की त्रासदी, नायिका की परिकल्पना आदि के प्रतिमानों को कृष्णा जी ध्वस्त करती चलती हैं। इन ध्वस्त प्रतिमानों को अभिव्यक्त करने के लिए कृष्णा जी भाषा में देसीपन का निर्माण करती हैं। खुरदूरे यथार्थ के लिए वह ऐसी भाषा प्रयुक्त करती हैं, जिसमें से एक खुरदुरापन गूंजता है, जो भाषा को सहज व सपाट नहीं रहने देता है। यह खुरदूरापन पाठक को रगड देता है, उसे सहज नहीं होने देता। यही सहज न होने की अवस्था बेचैनी में बदल जाती है, जो सीधे विषयवस्तू की बेचैनी से जुड़ जाती है। प्रारम्भ में कृष्णा जी की यह बेधड़क, बेलौस रपटीली भाषा लोगों को ग्राह्य नहीं हुई पर भाषा की यही नवीनता कृष्णा जी की सबसे बड़ी विशेषता बनती है। स्त्री पात्र की बेचैनी और छटपटाहट भाषा के घनत्व में डूबकर पाठक को उस बिन्दु पर खड़ा कर देती है, जिस पर पात्र स्वयं खड़ा होता है।
आज यह प्रथम जन्म दिवस है, जब कृष्णा जी हमारे बीच नहीं हैं पर उनका लिखा रचना संसार हमारे लिए उनकी उपस्थिति को दर्ज करता है। उनके जन्म दिवस पर उनकी रचनाओं और पात्रो को याद करके हम उन्हें श्रद्धांजलि दे सकते हैं।
– डॉ. शुभा श्रीवास्तव