आलेख
कृष्णभक्ति काव्य का सामाजिक सरोकार: डाॅ. विजय कुमार प्रधान
कृष्णभक्ति काव्य परम्परा अति प्राचीन है। यह परम्परा वैदिक युग से लेकर आधुनिक युग तक विस्तारित है। भारत की अधिकांश भाषाओं में कृष्ण-कथा का व्यक्तित्व इतना व्यापक है कि सभी को अपने-अपने अनुसार कुछ न कुछ मिल ही जाते हैं। आज के वैश्वीकरण के युग में कृष्णभक्ति काव्य का सामाजिक सरोकार पर चर्चा अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि कृष्ण भक्त कवियों में केवल भक्ति रस में डूबकर उनके माधुर्य रूप को ही नहीं चित्रित किया है बल्कि समाज के प्रति उनकी चिन्ता रही है। इमें उन पहलूओं की भी चर्चा करनी चाहिए ताकि उनका सर्वांगीण विमर्श संभव हो सके एवं समाज के प्रति उनके योगदान का आकलन किया जा सके।
हिन्दी कृष्ण भक्ति काव्य का मुख्य वण्र्य विषय श्रीकृष्ण का चरित्र अथवा उनकी लीलाएॅं हैं। ये लीलाएंॅ दो प्रकार की है – लौकिक एवं अलौकिक। इसके अनुसार अनेक सम्प्रदाय भी हैं, परन्तु सभी सम्प्रदायों के कवि कृष्ण के माधुर्य रूप को ही अभिव्यक्त करते हैं। उनके लोकरक्षक एवं धर्म संस्थापक स्वरूप को अधिकांशतः महत्व नहीं दिया गया। इसके बावजूद कुछ ऐसे अंश मिल जाते हैं, जिससे कृष्ण काव्य का सामाजिक पक्ष उभरता है एवं उनके सामाजिक सरोकार भी स्पष्ट होते हैं। कोई भी रचनाकार वह किसी भी काल का क्यों न हो, समाज से अलग नहीं। कृष्ण भक्त भी इससे अलग सोच नहीं रखते किन्तु सभी सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक समस्याओं के समाधान के लिए कृष्ण को ही केन्द्र में रखते हैं। बल्लभाचार्य ने अपने ‘कृष्णाश्रय’ ग्रन्थ में कहा है कि गंगा आदि सब उत्तम तीर्थ भी दुष्टों से आक्रान्त हो रहे हैं। इसलिए उन आधि दैविक तीर्थों का महत्व भी तिरोहित हो गया है। ऐसे समय में कृष्ण ही मेरी गति है। अशिक्षा और अज्ञान के कारण मंत्र नष्ट हो रहे हैं। ब्रह्मचर्यादि व्रत से लोग रहित है। ऐसे लोगों के पास रहने से वेद-मंत्र अर्थहीन हो गए हैं। उनके अर्थ और ज्ञान भी विस्मृत हो गए हैं। ऐसी दशा में केवल कृष्ण ही मेरी गति है।’’
‘‘इसी प्रकार कृष्ण भक्ति सम्प्रदायों में श्री बल्लभाचार्य तथा श्री विट्ठलनाथ जैसे उदार आचार्य हुए जिन्होंने भंगी, चमार, नाई, धोबी, वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण, हिन्दुओं की सभी जातियों को यहाॅं तक कि मुसलमानों को भी वैष्णव हिन्दु कहलाने का अधिकारी बनाकर सबको एक भगवान के प्रसाद का बिना छुआछूत के भागी बनाया। अष्टछाप भक्तों ने अपनी रचनाओं के अनेक स्थलों पर जाति-पाॅंति के प्रति उपेक्षा का भ्ज्ञाव प्रदर्शित किया है।’’ तभी कृष्णकाव्य की महत्ता व्यापक होगी। मध्यकालीन भक्त कवियों ने सामाजिक कुप्रथाओं को बार-बार अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया है, जिसका उद्देश्य तत्कालीन विलासिता की जिन्दगी को नकारना है एवं सत्मार्ग पर समाज को ले जाना है।
सूरदास ने अपने उपास्य देव श्रीकृष्ण को समदर्शी बतलाते हुए तत्कालीन समाज को एक सूत्र में बाॅंधने की चेष्टा की। उनके अनुसार भक्ति-मार्ग में जाति-पाॅंति का कोई स्थान प्राप्त नहीं है – ‘‘जाति-पाॅंति कुल-कानि न मानत, बैद-पुराननि साखै।’’ भक्त कवि सूरदास ने आध्यात्मिक भूमिका पर जाति-पाॅंति तथा कुल-शील आदि की भावना को अर्थहीन एवं निस्सार माना। भगवान ही दृष्टि में इस प्रकार का कोई भेद नहीं होता – ‘‘राम भक्तवत्सल निज बानौं। जाति, गोत, कुल, नाम, गनत नहिं, रंग होइ कै रानौ।’’ तत्कालीन परम्परागत समाज में ऐसी सोच उनकी प्रगतिशीलता का परिणाम है। इसी प्रगतिशीलता का प्रमाण परमानन्द दास की काव्य में भी लिखा है। उन्होंने लिखा – ‘‘अति सुकुमारी घरी सुभ लच्छन कीरति कन्या जाई।’’ एवं ‘‘परमानन्द के आॅंगन जसुमति के बधाई।’’ इससे स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज में पुत्री का जन्म पुत्रवत् सम्मान एवं प्रसन्नता का विषय था।
इसके अलावा कृष्ण भक्ति काव्य में व्यक्ति की भावनाओं को पर्याप्त महत्व प्रदान किया गया है। परिणामतः उसमें वर्णित नायक एवं नायिका कुल, समाज तथा धर्म की मर्यादाओं तृणवत त्याग देते हैं। यही कारण है कि उसमें यत्र-तत्र विद्रोह का स्वर अपने प्रबल रूप में दिखाई देता है। सूरकाव्य की गोपियाॅं लोक मर्यादाओं को विशेष महत्व नहीं देती। मीरा के काव्य में सामाजिक मर्यादाओं का पूर्ण बहिष्कार है, उनकी स्वच्छन्द दृष्टि परिलक्षित होती है। रसखान की रचनाओं में सामाजिक बन्धनों के स्वर पर मुक्ति का स्वर सुनाई पड़ता है। स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि इन कवियों के आराध्य भले ही श्रीकृष्ण हो परन्तु उन्होंने स्वच्छन्द रूप से सामाजिक बुराईयों को अभिव्यक्त किया है।
कृष्ण भक्ति कवियों के काव्य में सामाजिक व धार्मिक स्वर तो मुखर है परन्तु राजनीतिक स्वर गौण रूप में चित्रित है, इसका कारण यह है कि उन पर तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों का प्रभाव नहीं पड़ा है। अपनी समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों से उदासीन होकर संपूर्णतः उन्होंने अपने आराध्य कृष्ण की ओर उन्मुख थे। तत्कालीन शासकों के प्रति कृष्ण भक्त कवियों का क्या भाव था, कंुभनदास के इस पद से पता चल सकता है –
संतन कहा सीकरी काम।
आवत जात पनहियां टूटीं बिसिरी गयौ हरिना।।
जिनको मुख देखे दुख उपजत तिनको करिवे परी सलाम।
कंुभनदास लाल गिरधर बिन और सबै बेकाम।।
कृष्ण भक्त कवि केवल अपने आराध्य में लीन होना चाहता है एवं समय-समय पर अपने समाज के प्रति उत्तरदायित्व को निभाता है।
कृष्ण भक्ति काव्य धर्मनिरपेक्षता का भी अन्यतम उदाहरण है। कृष्ण काव्य केवल हिन्दू कवियों के लिए ही प्रिय नहीं है, बल्कि मुस्लिम कवियों के लिए भी उतने ही अधिक प्रिय है। रहीम, सैयद इब्राहीम रसखान, तान कवियित्री नजीर अकबरबादी आदि रचनाकार कृष्ण काव्य की समन्वयशीलता और सामाजिक सरोकारों के चर्चित हस्ताक्षर हैं। कृष्ण की लीलाओं में आसक्त रसखान जब यह लिखते हैं कि ‘मानुष हो तो वही रसखानि बसै ब्रज गोकुल गाॅंव के ग्वालन’ तो कट्टरतावादी मानसिकता के लोगों को इसका उत्तर मिल जाता है। मुसलमान होते हुए भी उन्होंने स्वयं को कृष्णभक्ति से सम्बद्ध किया। उनके रसात्मक चित्र के साथ-साथ उन्होंने कृष्ण काव्य के माध्यम से मानवता का संदेश दिया है।
सोशल मीडिया के इस युग में संचार माध्यमों के द्वारा वैमनस्य की भावना को निरन्तर प्रचारित व प्रसारित किया जा रहा है। साहित्य को भी जब हम वाद-विशेष के पिंजरे में आबद्ध करके रखते हैं, तो उसका सही स्वरूप बाहर नहीं निकल पाता। कृष्ण भक्ति काव्य को भी केवल भक्ति रस में आप्लावित होकर नहीं देखा जा सकता। कृष्ण भक्त कवियों की सामाजिक चिन्तन को भी प्रधानता देनी होगी। प्रत्येक महत्वपूर्ण साहित्य अपने समकालीन सामाजिक मूल्यों से संपृक्त रहता हैं। कृष्ण भक्त कवियों में अनेक ऐसे कवि हुए हैं जिनकी वाणी ने मार्गदर्शन किया है, वह आज के विशृंखलित जीवन के लिए भी उतना ही मूल्यवान है, जितना अपने युगीन संदर्भों में था।
सन्दर्भ सूची-
1. कृष्णाश्रय, षौडश ग्रन्थ, भट्ट रमानाथ शर्मा, श्लोक सं. 2,3,5
2. डाॅ. दीन दयालु गुप्त – अष्टछाप और बल्लभ सम्प्रदाय, भाग-1, पृ.सं. 33-34
3. सूर सागर – सप्तम् स्कंध, नागरी प्रचारिणी सभा, पद संख्या-821
4. सूर सागर – सप्तम् स्कंध, नागरी प्रचारिणी सभा, पद संख्या-11
5. परमानन्द सागर – पद संख्या-164
6. वहीं, 164
7. कंुभन दास, विद्या विभाग, कांकरौली, पद संख्या-397, पृ.सं. 127
– डाॅ. विजय कुमार प्रधान