यात्रा-वृत्तान्त
कुन्तलपुरी: महाभारत की पदचाप का गवाह
मुझे नहीं पता कहावतों, किवदंतियों और मुक्त किस्सों में कितनी सच्चाई होती है मगर ये सच है कि जीवन रूपी बगिया में एक सूर्य सदैव होता ही है सबकी अंगनाई में। कुछ उस दिनकर को पाकर तेज़वान हो जाते हैं और कुछ का हेठा भाग्य कि अपने प्रिय भास्कर से वो झुलस जाते हैं। जी हाँ, आज पुनः ले चलती हूँ एक छोटी मगर रोचक महाभारतकालीन यात्रा पर।
‘चंबल घाटी’ से हूँ तो इतना आश्वासन दे ही सकती हूँ, जिस तरह ये घाटियाँ डाकुओं से जुड़े अनगिनत राज़ छुपाये इतराती हैं, ठीक वैसे ही इस घाटी का पौराणिक-ऐतिहासिक महत्व कम नहीं आँका जा सकता। महाभारत में पांडवों को कौन नहीं जानता और माँ कुंती को भी। वहीं एक और नाम है ‘कवच कुंडल धारी महान योद्धा कर्ण’, जो कि पुराणों की सुनें तो सूर्यदेव के पुत्र हैं जिनकी माता कुंती ही हैं। तो चलिये आज इसी महान योद्धा की जन्मस्थली की सैर कराती हूँ।
कुंतलपुरी चंबल घाटी का 5,000 सालों से भी प्राचीन नगर है, जो कि ज़िला मुरैना से 35 किलोमीटर दूर महाभारत की कुंती की जन्मस्थली भी है। कुंतलपुरी को ‘कुंतवार या कुतुवार’ के नाम से भी जाना जाता है और यहाँ की बसायत में लोकल क्षत्रिय स्वयं को ‘जनमेजय’ के वंशज मानते हैं। कहते हैं कि अर्जुन के प्रपौत्र जनमेजय हस्तिनापुर के हाथ से निकल जाने पर कुंतलपुरी पहुंचे थे।
पुरातन काल में चंबल नदी के पास के संपूर्ण भू-भाग पर ‘सम्राट शूरसेन’ का अधिकार था। शूरसेन की एक पुत्री का नाम ‘पृथा’ था, इन्हीं राजकुमारी पृथा को ही आगे चलकर कुंती नाम से अलंकृत किया गया। पृथा के भाई ‘श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव’ थे। राजा शूरसेन ने अपने नि:सन्तान परम मित्र ‘कुंतीभोज’ को गोद दे दिया था। कुंतीभोज का साम्राज्य कुंतलपुरी महाभारत काल में ‘काँतिपुर’ के नाम से प्रसिद्ध था।
कुंतलपुरी दुर्ग के अवशेष आज भी कुंतवार में दिखाई देते हैं। कुंतलपुरी दुर्ग के बाहर-अश्व (आसन) नदी किनारे पर भगवान शिव का प्राचीन मंदिर स्थित है। पुराणों के अनुसार दुर्वासा ऋषि ने यहाँ पर तपस्या की थी। राजा कुंतीभोज और कुंती ने दुर्वासा की बहुत सेवा की थी। तभी दुर्वासा ने राजा कुंतीभोज को ‘पुत्र प्राप्ति का बीज मंत्र’ दिया था। राजा कुंतीभोज ने पुत्री कुंती को वह बीज मंत्र दिया और उसे मंत्र के फल के बारे में सतर्क कर दिया था। लेकिन कुंती के युवा मन की जिज्ञासा ने उस मंत्र का उच्चारण सूर्य भगवान के आह्वान हेतु कर दिया। तभी सूर्यदेव वहाँ प्रकट हुए और तत्पश्चात बीज मंत्र के फलस्वरूप कुंती गर्भवती हो गईं। यहाँ कुंती ने ‘कर्ण’ को अवैध रूप से जन्म दिया व अविवाहित होने के कारण लोक भय से कर्ण को अश्व नदी में बहा दिया था।
सूर्यदेव के कुंतलपुरी में आने पर उनके अश्वों की पदचापों के निशान अश्व नदी के किनारे चट्टानों पर दिखाई देते हैं और इसको मैंने स्वयं अपनी आँखों से देखा ही नहीं वरन अपने कैमरे में कैद भी किया है। मेरे लिये अत्यंत आश्चर्यजनक रहा उन निशानों को यूँ ताकना सोचते हुए कि कितने मजबूत और विशाल अश्व रहे होंगे। एक और खूबसूरती यहाँ की चट्टानों में बनी पतली परतें जो लग रहा था मानो पतली स्लेटें एक के ऊपर एक टिका दी गयी हैं। प्रकृति सच में अनमोल ख़जानों से भरी पड़ी है। यात्राएँ महज बस घुमक्कड़ी नहीं बल्कि वो हमें इतिहास और तकनीकी व कला से जोड़ने की एक सार्थक योजना ही है मेरी दृष्टि में।
सूर्यदेव के आगमन के कारण शिव मंदिर को ‘सूर्यवाह’ व ‘सूर्य मंदिर’ के नाम से संबोधित किया जाने लगा था। मैं जब यहाँ पहुँची तो टीकाटीक दोपहर थी और गर्मी चरम पर। मंदिर प्रांगण में सभी महन्त तखतों पर बैठे दोपहर भोज का आनंद ले रहे थे। कोने में एक तरफ बछड़े समेत गाय बंधी थी, जो कि मरखनी थी। बाहर बहुत से आवारा कुत्ते बैठे देख डर गयी पर वो बहुत नेकदिल और पथ-प्रदर्शक बने। मुझे मंदिर से आसन नदी के किनारे उन चट्टानों तक बिना कुछ बोले ले गये जहाँ-जहाँ पर सूर्यदेव के घोड़ों की टापों के निशान वो महाभारत कालीन पद चिह्न बने थे।
मंदिर के एक बुजुर्ग पुजारी का कहना है कि इस मंदिर में रखी एक पिंडी को पहले भक्त लोग हाथ में उठाकर अश्व नदी में स्नान के लिए जाते थे। पिंडी को स्नान कराने के बाद फिर मंदिर में रखते थे। धीरे-धीरे वह पिंडी इतनी बड़ी हो चुकी है कि अब पिंडी को उठाया नहीं जा सकता। कुंतलपुरी के बाद खण्डहर हो चुके दुर्ग का एक हिस्सा है ‘कर्णखार’, सहस्त्रों वर्षों से कुंतलपुरी के निवासी इसे कर्णखार के नाम सम्बोधित करते हैं। कर्णखार के पीछे अश्व नदी बहती है। इस खार में जाने के लिए पहाड़ काट के सीढियाँ बनी हुई थीं, जो नदी के किनारे तक जाती थीं और अब यहाँ पक्की सीमेंट वाली सीढ़ियाँ बना दी गयी हैं। साथ ही नदी के किनारे एक विशाल पुराना कुँआ है, इसी स्थान से कुंती ने कर्ण को एक टोकरी में रखकर अश्व नदी के खार में बहा दिया था। तब ही से इसे कर्णखार भी कहते हैं। एक और विशेष बात पता लगी महन्त से, जो ये खुलासा करती है कि सूर्यपुत्र का नाम कर्ण क्यूँ पड़ा और उन्हें पैदाइशी कवच कुंड़ल कैसे प्राप्त थे।
भगवान सूर्य का एक शिष्य महाबलशाली था, उससे नर और नारायण दोनों ने बारी-बारी युद्ध किया। लेकिन उसे दिए गए सुरक्षा कवच रक्षा करते रहे। 100 कवच नष्ट होने के बाद जब एक बचा तो वह भगवान सूर्य की शरण में पहुँचा। सूर्य ने उसे बचाने के लिए कुंती को दर्शन देते समय अपने शिष्य को मच्छर के रूप में कुंती के कान में प्रवेश करा दिया। इसी महाबली ने कुंती के कान से कुंडल और कवच के साथ जन्म लिया। कान से जन्म लेने के कारण ही उसका नाम कर्ण पड़ा। लेकिन लोक-लाज के भय से कुंती ने इस बाल को आसन नदी के खार में बहा दिया। इसे आज भी कर्णखार के नाम से ही जाना जाता है। कुंती को वरदान देने के बाद जब भगवान सूर्य आकाश मार्ग से चले गए तो इन चट्टानों पर घोड़ों के पदचिह्न बन गए। हालांकि कर्णखार के पानी के तेज़ बहाव में इन पदचिह्नों की आकृतियाँ बदलने लगी हैं, लेकिन कुछ पदचिह्न आज भी यथावत हैं। आसन/अश्व नदी आगे चलकर चंबल नदी में विलीन हो जाती है।
कर्णखार और दुर्ग का बहुत कुछ भाग ग्वालियर के लिए बनाए गए अश्व नदी के एक बाँध, जो कि बहुत विशाल है, के बनने से डूब गया। वैसे आज भी यहाँ पर दुर्ग के ध्वस्त 30-35 फुट मिट्टी के टीलों के नीचे महाभारत काल के अनेक अवशेष दिखाई देते हैं। खेतों के बीच भी कई पुरातात्विक स्तंभ और गुंबदनुमा विश्रामगृह जैसे हैं, जो शायद सुरक्षा प्रहरियों हेतु बनते होंगे उस काल में। ये मेरा अनुमान है क्योंकि ग्रामीण इनमें दिखे तो पर सही जानकारी कोई न दे सका। हाँ, पर हमने नींम की डाली पर पटरी वाले झूले का गाँव की किशोरियों संग आनंद भरपूर लिया और रिस्क लेते हुए भरे बाँध के पाटों पर पैर के पंजे तिरछे टिका-टिका कर दूसरे छोर तक हो आये। साँस ज़रूर ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे थी पर एक जुनून भी सवार था सो बन पड़ा मज़ेदार। बैलेंस ज़रा-सा बिगड़ता तो एक तरफ लबालब पानी और दूजी ओर गहरी सूखी भुरभुरी बीहड़।
बहरहाल मुरैना के संग्रहालय से पहले यह जानकारी बटोर ली गयी थी कि 1984 में पुरातत्व विभाग ने खुदाई कराकर देखा था, उस खुदाई में नागवंश कालीन 18,959 सिक्के मिले थे। प्राचीन ग्रंथ-पुराण विष्णु पुराण के अनुसार कुंतवार, प्राचीनकाल में नागों की राजधानी थी। यहाँ पर नागों की टकसाल भी थी, जहाँ सिक्कों का निर्माण किया जाता था। नागों की राजधानी मथुरा व पद्मावती थीं।
विशेष– दानवीर कर्ण के जन्म की कहानी पुरातत्व विभाग के अध्ययन में प्रमाणित हो चुकी है। पुरातत्व विभाग 10-12 साल पहले कर्णखार एवम् कुंतलपुर के आसपास खुदाई करवा चुका है। वहाँ मिले मोती एवं अन्य पत्थरों की जाँच में यह सिद्ध हो चुका है कि यह स्थान महाभारतकालीन है। यह भी सिद्ध है कि कर्ण का जन्म भी यहीं हुआ था। सो कह सकते हैं कि महान दानवीर कर्ण, हमारे ममेरे भाई हैं…हा हा! देखा, हमने यहाँ भी एक रिश्ता तो जोड़ ही लिया प्रीत भरा।
फिर मिलने के वादे संग विदा लेती हूँ।
कुछ तस्वीरें….आपके लिए
– प्रीति राघव प्रीत