कुण्डलिया
करता रहता है समय, सबको ही संकेत।
कुछ उसको पहचानते, पर कुछ रहें अचेत।।
पर कुछ रहें अचेत, बंद कर बुद्धि-झरोखा।
खाते रहते प्रायः, वही पग-पग पर धोखा।
‘ठकुरेला’ कविराय, मंदमति हर क्षण डरता।
जिसे समय का ज्ञान, वही निज मंगल करता।।
छाया कितनी कीमती, बस उसको ही ज्ञान।
जिसने देखें हों कभी, धूप भरे दिनमान।।
धूप भरे दिनमान, फिरा हो धूल छानता।
दुख सहकर ही व्यक्ति, सुखों का मूल्य जानता।
‘ठकुरेला’ कविराय, बटोही ने समझाया।
देती बड़ा सुकून, थके हारे को छाया।।
गंगा थी जीवन नदी, हर लेती थी पाप।
झेल रही है आजकल, वह भीषण संताप।।
वह भीषण संताप, चिढ़ाते उसको नाले।
है इस जग में कौन, पीर जो उसकी टाले।
‘ठकुरेला’ कविराय, चलन है यह बेढंगा।
यमुना हुई उदास, बहाए आंसू गंगा।।
मैली गंगा देखकर, बुधजन हुए उदास।
मानवता के पतन का, हुआ सहज अहसास।।
हुआ सहज अहसास, सभी को भायी माया।
व्यापा सब में लोभ, स्वार्थ ने रंग दिखाया।
‘ठकुरेला’ कविराय, लालसा इतनी फ़ैली।
दूषित हुआ समाज, हो गयी गंगा मैली।।
भागीरथ तट पर गए, और हुए बेचैन।
गंगा की यह दुर्दशा, कैसे देखें नैन।।
कैसे देखें नैन, कि मैं अमृत था लाया।
अरे मनुज नादान, नीर को जहर बनाया।
‘ठकुरेला’ कविराय, मनुजता भटक गयी पथ।
होगा तब उद्धार, बनें जब सब भागीरथ।।
पछताओगे एक दिन, कर यह भीषण भूल।
नदियों से दुर्भाव यह, कभी नहीं अनुकूल।।
कभी नहीं अनुकूल, बड़ी मँहगी नादानी।
क्षिप्रा, यमुना क्षुब्ध, क्षुब्ध गंगा का पानी।
‘ठकुरेला’ कविराय, स्वयं आफत लाओगे।
दूषित करके नीर, एक दिन पछताओगे।।
भातीं सब बातें तभी, जब हो स्वस्थ शरीर।
लगे बसंत सुहावना, सुख से भरे समीर।।
सुख से भरे समीर, मेघ मन को हर लेते।
कोयल, चातक, मोर, सभी अगणित सुख देते।
‘ठकुरेला’ कविराय, बहारें दौड़ी आतीं।
तन, मन रहे अस्वस्थ, कौनसी बातें भातीं।।
हँसना सेहत के लिये, अति हितकारी मीत।
कभी न करें मुकाबला, मधु, मेवा, नवनीत।।
मधु ,मेवा , नवनीत, दूध, दधि, कुछ भी खायेँ।
अवसर हो उपयुक्त, साथियो हँसे-हँसायें।
‘ठकुरेला’ कविराय, पास हँसमुख के बसना।
रखो समय का ध्यान, कभी असमय मत हँसना।।
खटिया छोड़ें भोर में, पीवें ठण्डा नीर।
मनुआ खुशियों से भरे, रहे निरोग शरीर।।
रहे निरोग शरीर, वैद्य घर कभी न आये।
यदि कर लें व्यायाम, वज्र-सा तन बन जाये।
‘ठकुरेला’ कविराय, भली है सुख की टटिया।
जल्दी सोये नित्य, शीघ्र ही छोड़ें खटिया।।
मिलती है मन को खुशी, जब हों दूर विकार।
नहीं रखा हो शीश पर, चिंताओं का भार।।
चिंताओं का भार, द्वेष का भाव नहीं हो।
जगत लगे परिवार, आदमी भले कहीं हो।
‘ठकुरेला’ कविराय, सुखों की बगिया खिलती।
खुशी बाँटकर मित्र, खुशी बदले में मिलती।।
– त्रिलोक सिंह ठकुरेला