छन्द-संसार
कुण्डलिया छन्द
पोखर, जोहड़, बावड़ी, बाकी बस दो -चार।
मानव बनकर आधुनिक, करता इन पर वार।
करता इन पर वार, लुप्त हो रही विरासत।
भुगत रहे अंजाम, मग़र नूतन की चाहत।
हे मानव! अब जाग, मिलेगी वरना ठोकर।
करो जतन तुम आज, बचाओ जोहड़, पोखर।
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धरनी नीचे तप रही, ऊपर तीखी धूप।
पेड़ जमीं से लुप्त है, बिगड़ा भू का रूप।
बिगड़ा भू का रूप, काटते हम नित जंगल।
मौसम में बदलाव, नहीं है दूर अमंगल।
कहती है सुधि बात, देख मानव की करनी।
हैरत करती आज, काँपती है यह धरनी।।
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तेजी से संसार की, बदली है जलवायु।
प्रकृति के बदलाव से, घटी हमारी आयु।
घटी हमारी आयु, रोग नाना आ धमके।
घूम रहा है धुआँ, हवा में अब बेखटके।
छोड़ मनुज आराम, स्वार्थ का बन परहेजी।
आजा रोपें वृक्ष ,काम में लाएँ तेजी।
– तारकेश्वरी तरु सुधि